बच्चा पैदा हुआ तो आस-पास के लोगों ने माना कि वह स्वस्थ है. एक समय ऐसा आया कि हिंदी ब्लॉग की संख्या 18,000 को पार कर गई और हर दिन 150 नए हिंदी ब्लॉग जुड़ने लगे. फिर इसे किसी की नजर लग गई. सभी मानते हैं कि हिंदी ब्लॉग की दुनिया में ठहराव आ गया है. यह दुनिया लगभग आठ साल पुरानी है. आठ साल लंबा वक्त होता है. इतने समय में फेसबुक ने दुनिया भर में 80 करोड़ यूजर जुटा लिए.
हिंदी के प्रमुख ब्लॉग एग्रीगेटर (एक ऐसी साइट जहां ढेर सारे ब्लॉग इकट्ठे देखे जा सकते हैं) नारद, चिट्ठाजगत और ब्लॉगवाणी बंद हो गए. कई सक्रिय ब्लॉगर दृश्य से गायब हो गए, कई फेसबुक पाकर ब्लॉग को भुला बैठे, कुछ ट्विटर पर जम गए. हिंदी ब्लॉग का यह सफर कई सवाल खड़े करता है. कुछ साल पहले इसे लेकर देखे जा रहे सपने क्या हकीकत से दूर थे?
क्या हिंदी में ब्लॉग की स्थिति इसलिए बुरी है? क्योंकि इंटरनेट पर ही हिंदी की स्थिति बुरी है. क्या हिंदी की राजनीति ब्लॉग को ले डूबी? क्या 'इंस्टैंट' के दौर में फेसबुक और ट्विटर ने ब्लॉग की जगह खा ली? सवाल कई हैं और जवाब जटिल.
टीवी पत्रकार और ब्लॉग कस्बा चलाने वाले रवीश कुमार कहते हैं, ''ब्लॉग का खत्म होना दरअसल उसके बनने में ही निहित था. ब्लॉग अभिव्यक्ति के एक वैकल्पिक माध्यम के रूप में उभरा और एसएमएस, फेसबुक, ट्विटर के समय में खुद ही निष्क्रिय भी हो गया. यह कुछ ऐसा ही है कि जैसे डीवीडी के आने से कैसेट चलन से बाहर हो गए.''
लेकिन टीवी लेखक और ब्लॉग निर्मल आनंद के लेखक अभय तिवारी की राय इससे कुछ अलग है. इस बात से सहमत होने के बावजूद कि फेसबुक काफी हद तक हिंदी ब्लॉगिंग के निष्क्रिय होते जाने के लिए जिम्मेदार है, वे कहते हैं, ''फेसबुक सोशल नेटवर्किंग के लिए की जाने वाली अड्डेबाजी है, जबकि ब्लॉग एक किस्म की सार्वजनिक डायरी है. कुछ लोग डायरी में कौड़ी-पाई का हिसाब रखते हैं, कुछ मन की गांठें टटोलते हैं तो कुछ अपनी पसंद की चिंता पर विचार प्रवाह खोलते हैं. कौड़ी-पाई और मन की गांठें भले अब फेसबुक पर खिलने और खुलने लगी हों पर तात्कालिकता से परे गंभीर चिंतन और विमर्श के लिए ब्लॉग की उपयोगिता हमेशा बनी रहेगी.''
बेशक हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जहां हर दिन एक नई चीज बाजार में आ रही है और पुरानी को अप्रासंगिक किए दे रही है. दरअसल, फेसबुक की गति और ट्विटर की चंद शब्दों में अपनी बात को समेट देने की सीमा ने भारी-भरकम ब्लॉग को चलन से बाहर कर दिया. जैसा कि रवीश चुटकी लेते हैं, ''मैं यह देखने के लिए उत्साहित हूं कि दुनिया के किस कोने में कौन-सा ऐसा नया मंच बन रहा है, जो फेसबुक और ट्विटर को भी खत्म कर देगा.''
आज हिंदी ब्लॉगों की संख्या 30,000 के आसपास है, जिसमें से महज 3,000 ही नियमित लिखे जाते हैं. वहीं देश में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या तकरीबन 10 करोड़ है, जिसमें से 3.4 करोड़ सक्रिय फेसबुक यूजर हैं. इनमें से अगर देश के बड़े शहरों को निकाल दें तो भी राजधानी समेत हिंदी राज्यों के बड़े-मझेले और छोटे शहरों में फेसबुक का इस्तेमाल करने वालों की संख्या डेढ़ करोड़ से ज्यादा है. इन आंकड़ों के मुकाबले हिंदी ब्लॉगिंग के आंकड़े बहुत कम हैं. हिंदी के सबसे ज्यादा चर्चित और पढ़े जाने वाले ब्लॉगों पर प्रतिदिन 200 से 300 हिट्स होती हैं. हालांकि ऐसे ब्लॉग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं, जबकि अन्य ब्लॉगों पर हिट्स का आंकड़ा प्रतिदिन 25 से लेकर 100 तक है.
ब्लॉग के मरणासन्न होते जाने पर स्यापा करने वालों और फेसबुक को तनी भौंहों से देखने वालों का तर्क है कि फेसबुक तत्काल छप जाने और प्रतिक्रिया पा लेने को लालायित लोगों का शगल है. यहां लोगों के पास हर मुद्दे पर देने के लिए कुछ रेडीमेड विचार हैं, जबकि ब्लॉग ज्यादा गंभीर और विचारशील थे. ''लेकिन यही विचारशीलता उसकी सबसे बड़ी दिक्कत भी थी.
ब्लॉग पर कोई गंभीर, दार्शनिक विचार हासिल करने नहीं आता. यहां लोग लाइट रीडिंग और हल्की-फुल्की मनोरंजक चीजें चाहते हैं.'' यह कहना है ब्लॉग एग्रीगेटर चिट्ठाजगत के संस्थापक और पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर विपुल जैन का.
वे कहते हैं, ''अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि सबसे ज्यादा पॉपुलर वही ब्लॉग थे, जो रोजमर्रा की जिंदगी की छोटी-छोटी बातें और रोचक किस्से मस्त किस्सागोर्ई वाले अंदाज में बयां करते थे.'' ब्लॉग को पॉपुलर करने में जरूरी भूमिका निभाने वाले मोहल्ला ब्लॉग के मॉडरेटर अविनाश को भी स्पीडी फेसबुक से कोई गुरेज नहीं है. उनके मुताबिक इस तेज रफ्तार समय में लंबी पोस्ट पढ़ने की फुरसत किसी के पास नहीं.
क्या आम पाठक ब्लॉग के साथ इसलिए नहीं जुड़ पाए क्योंकि उसकी भाषा और विषयवस्तु 'मास कम्युनिकेशन' के साधारण से तर्क को पूरा नहीं करती थी. जैसा कि शब्दों का सफर ब्लॉग के लेखक और पेशे से अखबार सरीखे मास कम्युनिकेशन के माध्यम से जुड़े अजीत वडनेरकर कहते हैं, ''ब्लॉग बहुत-से लोगों के लिए अपनी छपास की भूख शांत करने का माध्यम था. उसमें गुणवत्ता नहीं थी. बेशक अच्छे ब्लॉगर भी थे, लेकिन ब्लॉग उनके लिए छपने के माध्यम से ज्यादा अपने लिखे का डॉक्युमेंटेशन करने का एक माध्यम था.
ब्लॉग की ताकत ही यह है कि यहां हर कोई लेखक या संभावित लेखक है. यह ताकत है, लेकिन हिंदी पब्लिक स्पेस में यही बात समस्या बन गई. यहां ब्लॉगर ही ब्लॉग के पाठक भी थे. यह माध्यम अपने लिए पाठक नहीं बना पाया.''
ब्लॉग पर महिलाओं के साझा मंच चोखेर बाली की मॉडरेटर सुजाता कहती हैं, ''यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आपके ब्लॉग का पाठक कौन है? चोखेर बाली के निष्क्रिय होने की एक वजह यह थी कि उससे नए लोग नहीं जुड़ रहे थे. ब्लॉग पढ़ने और टिप्पणियां करने वाले ज्यादातर ब्लॉगर ही होते थे. हम आपस में ही एक-दूसरे की पीठ थपथपाने और आलोचना करने में मुब्तिला थे. अगर नए लोग नहीं जुड़ते, नए विचार नहीं आते तो एक ठहराव-सा आ ही जाता है.''
सुस्त पड़ रहे हिंदी ब्लॉग को जिस एक एग्रीगेटर ब्लॉगवाणी के बंद हो जाने से आखिरी धक्का लगा, उसके संचालक मैथिली गुप्त भी इस बात का समर्थन करते हैं, ''ब्लॉगवाणी का ट्रैफिक ज्यादातर ब्लॉगर से ही आ रहा था. सिर्फ ब्लॉग पढ़ने के लिए आने वाले पाठकों की संख्या न के बराबर थी.'' यह एक पक्ष है, लेकिन संगीत के चर्चित ब्लॉग रेडियोवाणी के लेखक व रेडियो एनाउंसर यूनुस खान हिंदी दुनिया की उस दुखती रग पर हाथ रखते हैं, जो साहित्य से लेकर ब्लॉग और अब फेसबुक पर भी अपने पैर पसार रही है.
वे कहते हैं, ''ब्लॉगवाणी हिंदी की कुटिल राजनीति के चलते बंद हुआ. लोग उसका रचनात्मक इस्तेमाल करने की बजाए उसे अपनी कुंठाएं शांत करने का माध्यम समझ्ते थे. यही पॉलिटिक्स अब फेसबुक पर भी नजर आती है, लेकिन उसका असर इतना व्यापक नहीं कि जुकेरबर्ग तंग आकर फेसबुक को ही बंद कर दे.'' बेशक यहां आप अपने दोस्त चुन सकते हैं और नापसंदीदों से छुटकारा भी पा सकते हैं.
मौजूदा स्थितियां आखिर किस ओर इशारा कर रही हैं? क्या हिंदी में ब्लॉग अप्रासंगिक होते-होते खत्म हो जाएंगे? विपुल जैन ब्लॉगिंग की कुछ गंभीर तकनीकी खामियों की ओर इशारा करते हैं. समस्या हिंदी ब्लॉगिंग से कहीं ज्यादा इंटरनेट में हिंदी को लेकर है. चीन और कोरिया के उलट भारत में इंटरनेट इंग्लिश में आया और वह स्थिति अब भी कमोबेश बनी हुई है.
हिंदी में यूनिकोड देर से आया, इस वजह से अरसे तक फॉन्ट की समस्या बनी रही. विपुल कहते हैं, ''जिस तरह अरब देशों में कोई कंपनी अरबी फॉन्ट के बगैर कंप्यूटर नहीं बेच सकती, उसी तरह भारत में भी देवनागरी और राज्यों की भाषाएं कंप्यूटर की बोर्ड में अनिवार्य कर दी जानी चाहिए.''
आंकड़ों से इतर एक बड़ा तबका अभी भी ब्लॉग के भविष्य को लेकर आशान्वित है. ब्लॉग फुरसतिया के लेखक अनूप शुक्ल ब्लॉग के हाशिए पर जाने की बात को सिरे से खारिज करते हैं, ''ब्लॉग निष्क्रिय नहीं हुआ है? कल मैं अकेला ब्लॉगर था, लेकिन आज मेरे मुहल्ले में ही चार और पूरे शहर में 100 ब्लॉगर हैं. फेसबुक तो आभासी है. 5,000 के बाद फ्रेंड लिस्ट भी खत्म हो जाती है. लेकिन ब्लॉग के जरिए तो दोस्त और मुरीद मिलते हैं.'' ब्लॉग ढार्ई आखर के लेखक और पत्रकार नसीरुद्दीन हैदर भी यह मानते हैं कि जब तक कहने की इच्छा रहेगी, कहने को कुछ बात होगी, तब तक ब्लॉग बने रहेंगे.