जबान पर जन और जेहन में जात. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की सियासी बिसात का कुछ ऐसा ही आलम है. हर दल ने मतदाता सूचियों और अपने कार्यकर्ताओं के बल पर विधानसभा सीटों का जातिगत ब्लूप्रिंट तैयार कर लिया है.
आधिकारिक आंकड़ों की गैर-मौजूदगी में इस ब्लूप्रिंट की वैधानिक कीमत भले ही रद्दी की तौल में हो, लेकिन टिकट बांटने वाले दिग्गज इस मोटी पोथी को सीने से लगाए घूम रहे हैं. और इसमें से निकले जाति-मंत्र टिकटार्थियों की किस्मत का फैसला कर रहे हैं. मजे की बात यह है कि फिर भी सूबे के पानी की तासीर कुछ ऐसी कि जाति के सौ तार वाले संतूर को साधने के बावजूद जीत की धुन सुनाई ही पड़ेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है.
जाति के ब्लूप्रिंट पर नजर डालें तो प्रदेश में 49 जिले ऐसे हैं, जहां सबसे ज्यादा संख्या दलित मतदाताओं की है. कुछ जिले छोड़ दें तो बाकी जगहों पर दलित दूसरा सबसे बड़ा वोट बैंक है. वहीं 20 जिले ऐसे हैं, जहां मुस्लिम वोटर सबसे ज्यादा हैं और 20 जिलों में वे दूसरा सबसे बड़ा वोट बैंक है.
सूबे के सियासी मुस्तकबिल की रेखाएं खींचने वाली तीन और प्रमुख जातियां हैं- यादव, ठाकुर और ब्राह्मण. संख्या के लिहाज से प्रदेश का सबसे बड़ा समुदाय ओबीसी है. हिंदू और मुस्लिम ओबीसी को जोड़ दें तो हर जिले में इनकी संख्या सर्वाधिक है. लेकिन ओबीसी समूह के तौर पर वोट नहीं करते. ओबीसी की सबसे बड़ी जाति यादव है.
प्रदेश के 44 जिलों में यादव जाति के वोटरों की संख्या 8 फीसदी से ऊपर है और इनमें से 9 जिलों में यादवों की हिस्सेदारी 15 फीसदी या इससे ऊपर है. एटा, मैनपुरी और बदायूं (मुसलमानों के बराबर) जिलों में यादव सबसे बड़ा वोट बैंक हैं. सपा ने 60, भाजपा ने 25, कांग्रेस ने 26 और बसपा ने 8 यादव प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे हैं. प्रदेश में इस जबरदस्त मौजूदगी के बावजूद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ऊपरी 10 जिलों में यादवों की संख्या न के बराबर है.
इन इलाकों में जाट और गुर्जरों का अच्छा-खासा वोट बैंक है. जाट मतदाताओं का पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खास असर है. बागपत में तो जाट और गुर्जर मतदाताओं की कुल संख्या 40 फीसदी तक चली जाती है.
वहीं बुंदेलखंड और पूर्वांचल के जिलों में लोध, कुर्मी, पाल और कुशवाहा जैसी जातियां यादवों के बराबर की हैसियत रखती हैं और अक्सर यादवों के असर को न्यूट्रल करने का काम कर देती हैं. इसके अलावा अतिपिछड़ी जातियों की लंबी जमात है जो छिटपुट रूप से अलग-अलग सीटों पर कुर्सी की चाभी अपने हाथ में रखती है.
जाति का खेल सभी खेलते हैं, लेकिन जाति समीकरण के असर को बसपा ने सबसे खुलकर स्वीकार किया है. 15 जनवरी को अपने जन्मदिन के मौके पर पार्टी सुप्रीमो मायावती ने जब 403 प्रत्याशियों की सूची जारी की तो मंच से साफ तौर पर बता दिया कि किस जाति या समुदाय के लोगों को कितने टिकट दिए गए हैं. बसपा ने 88 दलित, 113 अन्य पिछड़ा वर्ग, 85 मुसलमान, 74 ब्राह्मण और 33 ठाकुरों को टिकट दिया है. जात-बिरादरी के समीकरण को साधने और उसकी खुल्लम-खुल्ला घोषणा क्या जातिवाद पर मुहर लगाना नहीं है.
इस सवाल पर बसपा सांसद विजय बहादुर सिंह ने कहा, 'यह सोच का फर्क है. आप गौर से देखें तो बसपा सरकार 'सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय' की नीति पर चली है. पार्टी की मुखिया ने टिकट वितरण में समाज के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया है. इसे जात-पांत के चश्मे से देखना ठीक नहीं है.'
बसपा ने जिस फिराखदिली से ब्राह्मणों को टिकट दिया है, उससे साफ है कि पार्टी पिछले विधानसभा चुनाव की रणनीति पर ही कायम है. देखा जाए तो ब्राह्मण संख्या के लिहाज से दलित, मुसलमान और यादवों से कम हैं, लेकिन दलितों की ही तरह उनकी उपस्थिति पूरे प्रदेश में है. 60 जिलों में ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या 8 फीसदी से ज्यादा है, वहीं 29 जिलों में यह संख्या 12 फीसदी से ऊपर है.
बसपा ने 74, भाजपा ने 73, सपा ने 50 और कांग्रेस ने 42 और रालोद ने 3 ब्राह्मणों को टिकट दिया है. ब्राह्मणों पर सियासत की मेहरबानी के सवाल पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा-जोशी ने कहा, 'ब्राह्मण सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी जाति है. अपने आस-पास के परिवेश में उसका सम्मान और स्वीकार्यता है. ऐसे में संख्या में कम होने के बावजूद ब्राह्मण बाकी समुदायों को अपने साथ जोड़ने में आम तौर पर कामयाब रहते हैं.' यहां यह भी याद रखना चाहिए कि इन दिनों राहुल गांधी बुंदेलखंड दौरे में जनार्दन द्विवेदी को ब्राह्मण चेहरे के तौर पर पेश कर रहे हैं.
ब्राह्मणों की तरह ही ठाकुरों को टिकट देने में भी पार्टियां सजग रही हैं. बसपा ने 51, भाजपा ने 74, कांग्रेस ने 55 और सपा ने 45 एवं रालोद ने 4 ठाकुरों को टिकट दिया है. ठाकुर भी पूरे प्रदेश में फैले हैं और उनकी औसत उपस्थिति 5 से 6 फीसदी के बीच रहती है. पूर्वांचल के जिलों में ठाकुर और भूमिहार मतदाताओं की हिस्सेदारी 10 फीसदी के आसपास तक पहुंच जाती है. गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, आजमगढ़, मऊ, बलिया, जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, वाराणसी, मथुरा, आगरा, हरदोई, उन्नाव, रायबरेली, सुल्तानपुर, बांदा, चित्रकूट ऐसे जिले हैं, जहां यादवों के साथ ठाकुर तीसरे सबसे बड़े वोट बैंक के लिए कड़ा संघर्ष करते हैं.
संख्या में कम होने के बावजूद ठाकुरों को खूब टिकट मिलने के सवाल पर बांदा से कांग्रेस विधायक और ठाकुर बिरादरी के नुमाइंदे विवेक सिंह ने कहा, 'पहली बात तो यह कि कांग्रेस जात देखकर टिकट नहीं देती. दूसरी बात यह कि क्षत्रिय हमेशा से ही समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चले हैं. समाज में उनकी व्यापक स्वीकार्यता है. इसीलिए टिकट पाने में इस समुदाय के बहुत से लोग कामयाब रहे.'
इन तीन प्रमुख जातियों की तुलना में वैश्य या बनिया समुदाय की आबादी प्रदेश में कम है, लेकिन अपनी आर्थिक ताकत के कारण इनकी दरकार हर पार्टी को रहती है. कांग्रेस ने 12, भाजपा ने 22 और बाकी पार्टियों ने भी इसी अनुपात में वैश्य प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा है. कुर्मी जाति भी उत्तर प्रदेश चुनाव में अहम भूमिका निभाएगी. कुर्मी जाति की दमदार मौजूदगी संत कबीर नगर, मिर्जापुर, सोनभद्र, बरेली, उन्नाव, जालौन, फतेहपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, इलाहाबाद, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थ नगर और बस्ती जिलों में देखी जा सकती है. इन 16 जिलों में कुर्र्मी मतदाता 6 से 10 फीसदी के बीच हैं. कुर्मी वोटों की खातिर कांग्रेस बेनी प्रसाद वर्मा और भाजपा विनय कटियार को आगे किए हुए है.
कुर्मी के अलावा लोध या लोधी मतदाता भी सूबे में बड़ी ताकत हैं. भाजपा के पास पहले कल्याण सिंह के रूप में बड़ा लोध चेहरा था तो इस बार भाजपा उमा भारती के रूप में लोध चेहरे को आगे लाई है. रामपुर, ज्योतिबा फुले नगर, बुलंदशहर, अलीगढ़, माहामाया नगर, आगरा, फिरोजाबाद, मैनपुरी, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, उन्नाव, शाहजहांपुर, हरदोई, फर्रुखाबाद, इटावा, औरैया, कन्नौज, कानपुर, जालौन, झांसी, ललितपुर, हमीरपुर और महोबा जिलों में लोध मतदाता 5 से 10 फीसदी तक हैं.
उमा भारती खुद भी महोबा की लोधबहुल चरखारी सीट से चुनावी समर में कूदी हैं. बाबू सिंह कुशवाहा प्रकरण के बाद सुर्खियों में आई कुशवाहा जाति का फिरोजाबाद, एटा, मैनपुरी, हरदोई, फर्रुखाबाद, इटावा, औरैया, कन्नौज, कानपुर, जालौन, झांसी, ललितपुर और हमीरपुर जिलों में 7 से 10 फीसदी वोट बैंक है. बसपा में स्वामी प्रसाद मौर्य प्रमुख कुशवाहा चेहरा हैं.
जाति का यह जंजाल देखकर लगता है कि कांशीराम के दिनों का बसपाई नारा-जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी, कामयाब होना चाहिए. लेकिन सियासत इतनी आसान कहां होती है अन्यथा 20 से 22 फीसदी आबादी वाले दलित समुदाय के नुमाइंदों को आज भी सिर्फ सुरक्षित सीट पर किस्मत आजमाने को विवश न होना पड़ता.
जाति की राजनीति की अकादमिक व्याख्या करते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर आनंद कुमार ने कहा, 'भारत हो या उत्तर प्रदेश, यहां अब भी डोमिनेंट कास्ट डेमाक्रेसी (प्रभु जाति प्रजातंत्र) का ही बोलबाला है. समाज शास्त्र में प्रभु जाति या दबंग जाति उसे कहते हैं जो चार चीजों-संख्या बल, शिक्षा का स्तर, भूस्वामित्व (आर्थिक हैसियत) और राजनीतिक औजार बनाने में सफल रही हो. दलितों के पास पहली और चौथी योग्यता है, लेकिन दूसरी और तीसरी में वे अब भी पीछे हैं.'
मुसलमानों का भी यही हाल है. भाजपा को आखिर एक ही मुस्लिम प्रत्याशी क्यों मिला, इस सवाल पर भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा, 'पार्टी ने एक दर्जन मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट देने का मन बनाया था. लेकिन पार्टी के पास टिकट के जो दावेदार आए वे मजबूत नहीं थे. ऐसे में पार्टी को बेहतर प्रत्याशी के चयन को ही तरजीह देनी पड़ी.' वैसे बाकी पार्टियों ने मुसलमानों को टिकट देने में कंजूसी नहीं की. बसपा ने 85, कांग्रेस ने 62, सपा ने 80 और रालोद ने 8 मुस्लिमों को टिकट दिया है.
मुस्लिम राजनीति पर रालोद के कोकब हमीद ने कहा, 'दिक्कत यह है कि मुस्लिम-बहुल इलाकों में बहुत से मुस्लिम प्रत्याशी खड़े हो जाते हैं, ऐसे में वोट बंट जाता है और मुस्लिम प्रत्याशी नहीं जीत पाता है.' रालोद ने इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश से 8 मुस्लिम प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है.
मुस्लिम मतों के इस विभाजन पर समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खान की सोच कुछ सकारात्मक है. उन्होंने कहा, 'जाहिर तौर पर बहुत से मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं. लेकिन इस बार सबको पता है कि किस प्रत्याशी को वोट देना है. इस बार मुस्लिम विधायकों की संख्या बढ़ेगी.' आजम खुद 42 फीसदी से अधिक मुस्लिम मतदाताओं की रामपुर सीट की नुमाइंदगी करते हैं.
अगर जनता का नुमाइंदा बनना है तो जाति-समीकरणों की भूल-भुलैया से गुजरना पड़ेगा. लेकिन याद रखिए कि इस समीकरण में हर जाति और जाति के नेता अपना आंकड़ा दोगुना ही पेश करते हैं. जाति के जबानी आंकड़े मान लिए तो प्रदेश की आबादी दोगुनी करनी पड़ेगी, जो भीड़ से पटे सूबे की सेहत के लिए ठीक नहीं है. वैसे सबसे बेहतर तो यही होता कि हर आदमी नागरिक की तरह वोट डालता और बिरादरी के असल मायने उसके मूल फारसी शब्द बिरादर (भाई) में ही ढूंढता.