इस कार्रवाई का मकसद था, एक सख्त और कोई भी गड़बड़ी बर्दाश्त न करने वाली सरकार का एहसास दिलाना. ऐसी सरकार जो शक्तिशाली कांग्रेस को नीचा दिखाने वाले अपने कृत्य-बाबा रामदेव के आगे नतमस्तक होने के दौर से उबर चुकी है.
लेकिन कांग्रेस जिस भी अनचाहे नतीजे की कल्पना कर सकती थी, वे सारे नतीजे हकीकत बन गए और इस कार्रवाई की प्रतिक्रिया कदम-दर-कदम काबू से बाहर होती गई. इस कार्रवाई ने बाबा रामदेव और अण्णा हजारे को एक साथ ला दिया. इसने उनींदी भाजपा को जगा दिया.
दिल्ली के रामलीला मैदान में रामदेव के समर्थकों, जिनमें कई अपना बचाव करने में असमर्थ महिलाएं थीं, पर पुलिस के आंसू गैस के गोले, लाठियां और पत्थर बरसाने के दृश्यों ने लोगों की नाराजगी को हवा दे दी. हालात जलियांवाला बाग जैसे न थे, लेकिन अण्णा हजारे तक ने 8 जून को राजघाट पर दिन भर अनशन करके नाराजगी जताई.
कांग्रेस का नियंत्रण करने वाले कुनबे ने इसका बेतुका जवाब दिया-पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी दो हफ्ते की छुट्टियों पर विदेश के लिए उड़ गईं, पीछे-पीछे उनके बेटे, कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भी उड़ लिए.
सोनिया गांधी अब अवांछित खबर आने पर टीवी बंद कर सकती हैं. और ऐसी खबरों की भरमार है.
इंडिया टुडे-साइनोवेट के पांच शहरों में करवाए गए एक विशेष सर्वेक्षण के मुताबिक, 55 फीसदी लोग मध्यावधि चुनाव चाहते हैं और 61 प्रतिशत लोग मानते हैं कि भ्रष्टाचार और महंगाई के कारण इस सरकार ने राज चलाने का नैतिक अधिकार खो दिया है.
60 प्रतिशत से ज्यादा लोग मानते हैं कि रामलीला मैदान पर की गई कार्रवाई बिल्कुल गलत थी. जाहिर तौर पर, जीवन भर गांधीवादी रहे एक नेता के खिलाफ एक महत्वाकांक्षी योगी को मैदान में उतारने की कोशिश में, सरकार आखिर में दो ऐसे लोगों को एकजुट कर बैठी, जिनकी मांगें भिन्न हैं-रामदेव चाहते हैं कि सरकार विदेशों में जमा सारे काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दे और जिन लोगों ने यह पैसा जमा कर रखा है, उनके खिलाफ देशद्रोह का मामला चलाए. रामदेव यह भी चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के मामलों से निपटने के लिए विशेष अदालतें बनाई जाएं और भ्रष्ट लोगों को मौत की सजा दी जाए. हजारे के आंदोलन का मुख्य लक्ष्य लोकपाल विधेयक है.
अनजाने में ही, सरकार ने बड़े शहरों के असरदार मध्यम वर्ग और आम जन की विशाल शक्ति में भी एकता करवा दी. सरकार ने अपने आपको विरोध प्रदर्शनों के लंबे मौसम का भी निशाना बना लिया. दिल्ली के बाद रामदेव ने अनशन के लिए हरिद्वार को चुना.
4 जून को अनशन पर बैठे रामदेव की 10 जून को हालत बिगड़ने पर उन्हें देहरादून के अस्पताल में भर्ती कराया गया. जहां उनसे मिलने आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रवि शंकर पहुंचे. यही नहीं रामदेव अपनी संपत्ति को भी वेबसाइट पर सार्वजनिक कर चुके हैं.
दूसरी ओर, हजारे ने भी घोषणा कर दी है कि अगर 15 अगस्त तक लोकपाल विधेयक पारित नहीं हुआ, तो 16 अगस्त से वे अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठ जाएंगे. भाजपा ने 9 जून से 11 जून तक देशव्यापी आंदोलन की घोषणा की है. बात इतनी ही नहीं है, रामदेव ने अगली बार 'अस्त्र-शस्त्र' का प्रशिक्षण पाए अपने 11,000 समर्थकों के साथ रामलीला मैदान पर 'रावणलीला' की चेतावनी दी है.
बाबा कह चुके हैं, ''तब देखते हैं कौन पिटता है.'' बर्बादी के गहराते एहसास के लिए सरकार उस बात को दोष दे सकती है, जिसे गृह मंत्री पी. चिदंबरम दोनों अनशनों का मीडिया का किया ''प्रतियोगी और लोकलुभावन'' कवरेज कहते हैं. यह वह हश्र है, जिसे टाला जा सकता था. अब यह सरकार और आम आदमी की टक्कर बन गया है, जिसमें सरकार अपने ही लोगों के खिलाफ जाती दिख रही है.
इसने कांग्रेस के भीतर गरम कांग्रेस और नरम मनमोहन सिंह की फूट को भी उजागर कर दिया है. मनमोहन सिंह को दिल्ली हवाई अड्डे पर रामदेव की अगवानी करने के कदम का रचयिता माना जा रहा है, तो सोनिया गांधी को रामलीला मैदान पर हुई कार्रवाई के पीछे की ताकत.
यूपीए-दो के लिए इसका क्या मतलब निकलता है? कांग्रेस के सहयोगी इस सबसे दूरी बनाकर चल रहे हैं. लोकपाल विधेयक के लिए बने मंत्रियों के समूह से इस्तीफा देकर राकांपा नेता शरद पवार ने लोकपाल पर नाराजगी से खुद को अलग कर लिया था.
समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव, रामदेव की तरह यादव हैं, वे अपने ठोस समर्थक वर्ग को खोना नहीं चाहेंगे. बसपा की मायावती ऐसे विधेयक पर टिप्पणी करने के खिलाफ हैं, जो अभी संसद में रखा भी नहीं गया है. लालू प्रसाद की राजद का सवाल है, तो यह पार्टी किसी भी सूरत में लोकपाल विधेयक के पक्ष में नहीं है.
भाजपा ने फैसला किया है कि जब तक संसद का सत्र आत नहीं किया जाता, वह अपने पत्ते नहीं खोलेगी. सरकार ने 30 जून तक लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने की बात कही है और इसे संसद के मानसून सत्र में पेश कर देगी, फिर चाहे जो हो. लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में गंभीर होने के उसके दावे की पोल जरूर खुल गई है.
मसौदा समिति की पहली बैठक 16 अप्रैल को हुई थी. इस घूसखोरी विरोधी कानून का कार्यकर्ताओं का संशोधित संस्करण-जन लोकपाल विधेयक समिति के पांच सरकारी सदस्यों को सौंपा गया था.
समिति के सदस्य और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने तब कहा था, ''बातचीत बहुत अच्छी रही.'' लेकिन उसके बाद से मामला बिगड़ता गया. इसके बाद 7, 23 और 30 मई को हुई बैठकों में, जब सरकार ने अपने विचार पेश किए, तो सिविल सोसाइटी के कार्यकर्ताओं को सरकार के कड़े विरोध का एहसास होने लगा था. 30 मई आते-आते मतभेद विधेयक के दायरे में प्रधानमंत्री को लाने के मसले से कहीं आगे, जांच एजेंसियों को लोकपाल के दायरे में लाने जैसे मुद्दों पर पहुंच गए.
मसौदा समिति की 30 मई को हुई बैठक में हिस्सा लेने के बाद उत्तेजित हजारे ने कहा था, ''बातचीत बहुत खराब रही.'' अब तक छह बैठकें हो चुकी हैं. 6 जून को हुई बैठक में सिविल सोसाइटी के पांचों सदस्य शामिल नहीं हुए. सिविल सोसायटी के कार्यकर्ता की मांगों और उनको मानने की सरकार की तैयारी में जमीन-आसमान का फर्क हैः
सामाजिक कार्यकर्ता चाहते हैं कि प्रधानमंत्री को लोकपाल विधेयक के दायरे में लाया जाए, सरकार का कहना है कि ऐसा करने से प्रधानमंत्री के लिए कामकाज करना मुश्किल हो जाएगा.
सामाजिक कार्यकर्ता चाहते हैं कि सांसदों की खरीद-फरोख्त की जांच का अधिकार लोकपाल को हो, लेकिन सरकार कहती है कि ऐसा करने का अधिकार अध्यक्ष के पास पहले ही है.
सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि लोकपाल की सात सदस्यीय पीठ किसी भ्रष्ट न्यायाधीश की प्रथम दृष्टया रिपोर्ट दर्ज करने की इजाजत दे सकती है. सरकार कहती है कि उसका न्यायिक मानदंड और जवाबदेही विधेयक इस मुद्दे से निपट लेगा. कार्यकर्ता कहते हैं कि यह विधेयक गलत आचरण से निपटता है, भ्रष्टाचार से नहीं.
सामाजिक कार्यकर्ता चाहते हैं कि सीबीआइ स्वतंत्र ढंग से लोकपाल के अधीन काम करे. सरकार का मानना है कि लोकपाल के लिए एक अलग जांच एजेंसी गठित की जानी चाहिए.
सामाजिक कार्यकर्ता चाहते हैं कि 11 सदस्यीय लोकपाल के खर्चों का भुगतान भारत के समग्र कोष से किया जाए. सरकार चाहती है कि भुगतान की मात्रा तय करना विधि और वित्त मंत्रालयों का अधिकार हो.
विडंबना यह है कि हड़बड़ी दिखाने वाली सरकार इन मांगों का इस्तेमाल समूचे राजनैतिक तंत्र को एकजुट करने में कर सकती थी.
लेकिन इसके बदले उसे जो हासिल हुआ है, वे हैं नाराज युवा. राजघाट पर विरोध करने बैठे जालंधर के बी.टेक के छात्र 20 वर्षीय सिमरित कथूरिया और 19 वर्ष की अर्चना चौहान जैसे युवा. या झुंझुनूं के 22 वर्ष के मुकव्श डूडी, जो आइएएस की तैयारी कर रहे हैं और कहते हैं, ''अगर एक बुजुर्ग व्यक्ति देश के लिए भूख हड़ताल पर बैठ सकता है, तो हम यहां आकर उसके प्रति समर्थन तो दर्शा ही सकते हैं.''
हजारे के इंडिया अगेंस्ट करप्शन और रामदेव के भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के समर्थकों में अंतर था. हजारे शहरी भीड़ को आकर्षित करते हैं, तो रामदेव अनुयायियों के विशाल समूह तक पहुंचते हैं. हजारे के समर्थकों को लोकपाल और बदलाव लाने की प्रक्रिया की बेहतर समझ है. रामदेव के समर्थकों की अस्पष्ट-सी इच्छाएं हैं. हजारे को आम इंसान समझा जाता है.
रामदेव एक दिव्य पुरुष होने का दावा करते हैं. लेकिन अब किसी बात से फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि भारत तय कर चुका दिखता है कि उसे ऐसी सरकार नहीं चाहिए जो तब तो अड़ियल हो जाती है, जब उसे दूसरे की बात सुननी चाहिए, और उस समय भीगी बिल्ली बन जाती है, जब उसे मजबूत होना चाहिए.
बाबा की संपत्ति पर खतरा
सरकार ने भारत और विदेशों में बाबा रामदेव की संपत्ति की जांच शुरू कर दी है
आय के स्त्रोत
प्रवर्तन निदेशालय और गृह मंत्रालय का विदेश विभाग विदेशों से रामदेव ट्रस्ट को मिलने वाले धन की जांच करेगा. दूसरी ओर आयकर विभाग उनके कारोबार में हो रही कथित अनियमितताओं की गहन पड़ताल करेगा.
दवाएं स्वास्थ्य मंत्रालय बाबा रामदेव की फार्मेसी द्वारा बेची गई कतिपय औषधियों की जांच करवाएगा. आंवला चूर्ण, शिलाजीत रसायन और नपुंसकता का निदान करने से संबंधित कुछ औषधियों को इस आधार पर खारिज कर दिया गया है कि या तो इन औषधियों के मिश्रण में इस्तेमाल किए गए कुछ तत्व नए थे या फिर अस्वीकृत की श्रेणी में आते थे.
रियल एस्टेट
एजेंसियां भारत और विदेशों में रामदेव के फैल रहे आश्रम नेटवर्क की जांच करेंगी. स्कॉटलैंड में 20 लाख पाउंड का लिटिल कंब्रे आइलैंड, जो विदेशों में उनका मुख्यालय बनने वाला था और जिसके बारे में बाबा का दावा है कि वह उनके एक भक्त का दिया दान है, उसकी भी जांच की जाएगी.
उनकी कंपनियां रामदेव और उनके सहयोगी जिन 200 कंपनियों से जुड़े हुए हैं, वे सब भी जांच के घेरे में हैं. प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग इन कंपनियों के एक-दूसरे में आर्थिक हितों, इनके वित्तीय मामलों और कर की घोषणाओं में संभावित अनियमितताओं के लिए इनकी जांच करेगा.
आश्रम का मालिकाना
सरकारी सूत्रों का दावा है कि जिस जमीन पर पतंजलि योगपीठ बना हुआ है, उस जमीन को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता. बाबा के सहयोगी बालकृष्ण के नाम उस जमीन की गलत तरीके से रजिस्ट्री करवाई गई थी और इसे अदालत में चुनौती दी गई है.