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शब्दशः: राष्‍ट्रपति के सेलेक्‍शन और इलेक्‍शन का खेल

श्रीमती पाटिल के पांच वर्ष के बाद भारतीय मर्यादा, योग्यता और ईमानदारी वाला कोई व्यक्ति चाहते हैं. हाथ की सफाई वाला एक और चयन शायद निर्वाचक मंडल में संख्या जुटा सकता है, लेकिन जनमत के हाथों दंडित किया जाएगा.

अपडेटेड 7 मई , 2012

झटका खाकर गिरने पर जब घुटने में चोट लगती है तो चीख जुबान से निकलती है. राजनीति में जब घुटने छिलते हैं तो जुबान कट जाती है और वह ऐसी गलत बयानी करता है जिस पर वह फुर्सत के लम्हे में ही पछता सकता है.

श्रीमती सुषमा स्वराज अनुभवी लोगों में से हैं, और वे तोल-मोलकर ही बोलती हैं. वे यह जरूर सोच रही होंगी कि उन्होंने लोकसभा में सदन के नेता प्रणब मुखर्जी और राज्‍यसभा के सभापति हामिद अंसारी को भारत का राष्ट्रपति बनने के लिए कद्दावर न होने की बात आखिर कैसे कह दी. शायद उनका आशय यह होगा कि राष्ट्रपति पद के लिए उनके पसंदीदा उम्मीदवार अब्दुल कलाम का कद कांग्रेस के उम्मीदवारों की तुलना में ऊंचा है. लेकिन यह बात दुनिया ने नहीं सुनी.

ऐसी चूक खबरों का एक चक्र पूरा होने तक ही बनी रहती है. उम्मीदवारों का नाम लेने की जल्दबाजी बिल्कुल समझ से परे है. नामांकन किए जाने के लिए अभी भी छह सप्ताह हैं, और वास्तविक चुनाव होने में 10 सप्ताह बाकी हैं. अभी विचार करने का समय है, फैसला बाद में किया जा सकता है.

राष्ट्रपति भवन की वेकेंसी की बहाली चयन करके करने के अभ्यस्त राजनैतिक दल एक वास्तविक चुनाव की संभावना से थोड़े हैरान हैं. कांग्रेस वही दोहरा रही है, जो उसने 2007 में किया था-यह भांपने के लिए नाम उछालो कि किसका नाम उभर जाएगा, किस में पलीता लगा दिया जाएगा और कौन अपने ही बोझ से डूब जाएगा.

2007 में प्रणब मुखर्जी कांग्रेस की पहली सूची में थे. वाम दलों की रजामंदी के बाद मुखर्जी जब गालिबन से बढ़कर मुमकिन की सूची में आए, तब  श्रीमती सोनिया गांधी ने उनके नाम पर अड़ंगा लगा दिया. इसके बाद उन्होंने श्रीमती प्रतिभा पाटिल को गुमनामी से बाहर निकाल लिया था. कांग्रेस में जरूरी नहीं कि सोने वाले खोएं ही.

2012 कम-से-कम दो वजहों से अलग है. श्रीमती पाटिल के पांच वर्ष के बाद भारतीय चाहते हैं कि मर्यादा, योग्यता और ईमानदारी वाला कोई व्यक्ति उनका राष्ट्रपति हो. हाथ की सफाई वाला एक और चयन  निर्वाचक मंडल में संख्या तो जुटा लेगा, लेकिन जनमत में दंड का भागी होगा.

2007 में चर्चा का विषय उम्मीदवार थे, उनकी जीत नहीं. आज कांग्रेस अनिश्चितता से बुरी तरह मात खा रही है क्योंकि वह ऐसे गठबंधन का नेतृत्व कर रही है, जो कागजों पर अजेय लेकिन व्यवहार में कमजोर है. आंकड़े स्थिरता नहीं लाते, सरकार का संचालन लाता है. यूपीए 1 का लक्ष्य तय था, और साथ ही वह सहयोगी दल थे जो सवालों का महत्व समझते थे. कांग्रेस खुद को अस्थिर कर चुकी है, और यह रोग सहयोगी दलों में भी फैल चुका है. अगर गठबंधन की धुरी असंतुलित होगी, तो पहिया टिक नहीं सकता. उत्तर प्रदेश, पंजाब या दिल्ली में हार सिर्फ एक लक्षण है. विश्वसनीयता में गिरावट महामारी बन चुकी है.

हर सप्ताह छोटा या बड़ा, कुछ-न-कुछ ऐसा हो जाता है, जो पहले ही झटके झेल रही पार्टी को और झटका दे जाता है. पिछले सात दिनों की सूची देखिए. महाराष्ट्र का एक पूर्व मुख्यमंत्री घोटाले के आसमान छूते मामले में दोषी पाया गया है. पार्टी का एक पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता नीच हरकत में फंस गया है. एक अदालत केंद्रीय गृह मंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की सुनवाई कर रही है. असम में कांग्रेस के सबसे सफल मुख्यमंत्री को सत्ता से उखाड़ने के लिए विद्रोह शुरू हो रहा है. अफवाहें हैं कि आंध्र में कांग्रेस के मुख्यमंत्री के पास कुछ ही हफ्ते बचे हैं.

एक डरी हुई सरकार मीडिया को एक निजी विधेयक 'प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मानक व नियंत्रण बिल 2012' से डराने की कोशिश करती है. यह विधेयक सेंसरशिप और इसी तरह के हथकंडों से जोर-जबरदस्ती को जायज करार देने की कोशिश करता है, जैसे कि लाइसेंस का सालाना नवीकरण और 'अपुष्ट और संदिग्ध सामग्री' के लिए सबक सिखा देने वाले जुर्माने. ज्‍यादातर मीडिया कंपनियों को वकीलों की फीस के बूते ही दिवालिया किया जा सकता है. संयोगवश, सरकार के सामने वकीलों की फीस की कभी कोई समस्या नहीं रहती, वह इसका भुगतान आपके पैसे से कर लेती है. इस प्रस्तावित विधेयक की लेखिका हैं मीनाक्षी नटराजन, जो राहुल गांधी से निकटता के लिए मशहूर हैं. कांग्रेस प्रवक्ता  इसमें राहुल गांधी की भूमिका होने से इनकार करते हैं, लेकिन आप उनसे यह उम्मीद भी नहीं कर सकते कि वे भूमिका होने की पुष्टि करेंगे.

रोचक बात यह है कि इस लोकसभा में न तो सरकार के पास बहुमत है और न विपक्ष के पास. विपक्ष छिन्न-भिन्न है क्योंकि उसकी सबसे बड़ी पार्टी, भाजपा, व्यावहारिक विकल्प के लिए नियमों और शर्तों को सफलतापूर्वक तय नहीं करवा सकी है. ऐसे में, सरकार एक संकट से दूसरे संकट तक हिलोरें मारती रहती है.

यह हालत 1969 की याद दिलाती है. तब अनिश्चितता का अत्यंत कुशलता के साथ फायदा उठाते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी ही पार्टी को धता बता दिया था और कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार संजीव रेड्डी के मुकाबले वी.वी. गिरि को मैदान में उतार दिया था. राष्ट्रपति के चुनाव अभियान बिना शोरशराबे के चलाए जाते हैं. 1969 के सौदे जब हो गए थे, तो वामपंथ, दक्षिणपंथ और मध्य पंथ के बीच की परंपरागत विभाजक रेखा छिन्न-भिन्न  हो गई थी. कोई नहीं जानता था कि वोट किस तरफ जाएगा. अकाली दल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नेता चौधरी चरण सिंह के बूते श्रीमती गांधी जीत गई थीं. छह साल बाद अकाली और चरण सिंह श्रीमती गांधी के लगाए गए आपातकाल की जेलों में थे. इसके बाद 1977 में उन्होंने कांग्रेस को उखाड़ फेंका और संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति बना दिया.

1969 में श्रीमती गांधी ने मतगणना के दिन के लिए दो भाषण तैयार किए थे. उनमें से एक हार के लिए था, और उस स्थिति में वह इस्तीफा दे देतीं. सिलेक्शन तो बच्चों का खेल है. इलेक्शन वह खेल है, जिसमें दांव पर बहुत कुछ लगा होता है. 

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