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कहानी संग्रह: औरत का असली घर है कहां

अपने घर की अनवरत तलाश में जुटी स्त्री के जरिए परिवार, समाज, राष्ट्र के तमाम समकालीन सवालों को उठातीं कहानियां.

अपडेटेड 10 जुलाई , 2012

सातवीं औरत का घर
नीला प्रसाद
शिल्पायन,
वेस्ट गोरख पार्क, शाहदरा, नई दिल्ली-32,
कीमतः 225 रु.
shilpayanbooks@gmail.com

कहानियां लिखना देर से शुरू किया नीला प्रसाद ने लेकिन पूरी तैयारी के साथ. यानी ढेर सारे परिपक्व अनुभवों को अर्जित करके कहानी की जमीन  पर उतरीं. उनकी कहानियों में औरत के कई शेड्स ही नहीं, रंग भी मिलते हैं, जिससे पुरुष वर्चस्व वाले समाज का विद्रूप चेहरा उभरता है. उन्होंने हर एंगल से एक स्त्री को, उसके मन, संघर्ष और अंतर्द्वंद्व को समझाने की कोशिश की है. चाहे वह बेटी के रूप में हो, प्रेमिका, पत्नी या फिर मां.

नीला प्रसाद ने अपने इस पहले कहानी संग्रह की शीर्ष कहानी दूसरी, तीसरी...सातवीं औरत का घर में औरत के घर की तलाश को पूरी शिद्दत से उभारा है. यही कि हर औरत शादी के बाद अपने अस्तित्व को तलाशती अपने असली घर को पाना ही नहीं चाहती बल्कि उस घर पर पूरा अधिकार भी चाहती है, किसी के साथ घर का बंटवारा नहीं चाहती. इस घर की तलाश साहित्य में पहले भी कई लेखकों-कवियों ने की है. मोहन राकेश, राजकमल चौधरी, रमेश बक्षी, शलभ श्रीराम सिंह और आलोकधन्वा को अपने एक घर की तलाश थी. यह 'घर' वे चाहते तो रहे पर पा नहीं सके.

इस कहानी की नायिका निशिता प्रेमी अभिजित से कहती है कि ''हवा की दीवारों वाला सपनों का बना घर नहीं, ईंट-गारे-कंक्रीट वाला भावनाओं से भरा सुंदर सा घर चाहती हूं जहां सपने बसें.'' निशि महसूस करती है कि उसे पिता का घर अब घर क्यों नहीं लगता क्योंकि पिता के घर को पोते के जन्म के साथ ही वारिस मिल गया था इसलिए निशि के मन में पिता के घर का एहसास छोटा होता गया और ब्याह के बाद पति का घर उसे अपना लगने लगा.

अभि की पहली डायरी पढ़ने के बाद निशि के मन में आकार लेता घर बिखर जाता है. एक क्षण में वह दूसरी औरत बन गई. जिस कमरे को इतनी मेहनत से चमकाकर उसने 'अपना घर' बनाया था, एक क्षण में 'किसी और का' घर हो गया. अभि निशि को शादी निभाने की दलील देता है कि मन में इच्छा करो तो खड़ा हो जाता है दीवारों वाला घर.

वह निशि से कहता है कि मैं चाहता हूं, ''तुम मेरी सारी प्रेमिकाओं के मुकाबले प्रतियोगिता में उतरो और मुझे जीत लो.'' निशि को यह गवारा तो नहीं लेकिन फिर भी वह समझौता करती है और अभि के पास वापस लौट आती है, एक बेटी की मां बनती है. दोनों के अलग-अलग सिद्धांत हैं, बहस हैं, मतभेद हैं, विचार हैं, तर्क हैं. निशि उसकी पहली और दूसरी प्रेमिका को मन के अंधेरे तहखाने में छुपाए पहली होने का नाटक इतनी सफलतापूर्वक कर लेती है कि लोगों को ही नहीं, खुद उसे भी यह नाटक सचाई में बदलता लगने लगता है.

अंततः वह स्वीकार करती है कि पिता का घर छोड़ चुकी और पति का घर न रच पाई स्त्री का कोई घर नहीं होता क्योंकि 'घर' को अपने अंदर ढूंढ़ा था निशि ने, घर वहां नहीं था. घर को अपने अंदर ढूंढ़ा होगा अभि ने और घर वहां मिला नहीं होगा. तभी वह बार-बार ढूंढ़ता फिरा प्यार और घर. दांपत्य जीवन की विडंबना यह है कि  अभि अपने अतीत के साथ जीना चाहता है जबकि निशि चाहती है कि वह वर्तमान को जिए. टकराहट का केंद्र यही है.

विधवाएं कहानी में नीला प्रसाद ने भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में एक विधवा की स्थिति और हैसियत का चित्रण किया है. दूसरी ओर बड़े साहस के साथ वह कैसे समाज का सामना करती है, इसको भी सामने लाने का प्रयत्न किया है. यही इस कहानी की विशेषता है. लेखिका की दूसरी कहानियां दो घंटे और दो जिंदगियां, दिल के दरवाजे से, पौधे से कहो, मेरे जन्मदिन पर फूल दे मां-बेटी के रिश्तों के माध्यम से औरत के जीवन-संघर्ष और उसकी जिजीविषा को गहराई से चित्रित करती हैं.

लेखिका समाज से यह सवाल करती है कि आखिर एक लड़की का शरीर-खासकर मध्यवर्ग में इतना बड़ा मुद्दा क्यों था?..चाहे जिस कारण था, पर था. प्यार में धोखा खाई बेटी को दिल के दरवाजे से कहानी में लेखिका नसीहत देती है कि जीवन गणित हो या न हो, प्यार निश्चित रूप से भावनाओं का गणित है. इसी तरह 'लिपस्टिक' कहानी शहरी औरतों की सज-धज को लेकर बुनी गई एक अच्छी कहानी है. बाबरी मस्जिद टूटने के  बाद हिंदी में कई कहानियां लिखी गईं लेकिन नीला की एक मस्जिद समानांतर अलग तरह की उत्कृष्ट प्रेम कहानी है.

नीला प्रसाद की इन कहानियों के  कथ्य में विविधता ही नहीं, उनके अनुभव  के  'ताप के  ताए हुए दिन' भी हैं. भाषा का नया सौंदर्य और शिल्प का कौशल तो है ही. उनकी कहानियों के घेरे में हमारे समय के  तमाम प्रश्नाकुल सवाल हैं, जिनका संबंध व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र से है. इन कहानियों से सही मायने में स्त्री-विमर्श का एक नया क्षितिज खुलता है.

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