उदारीकरण के बाद भारत ने कामुकता के मसले पर नैतिकता संबंधी असमंजस के कई उफान देखे हैं. नैतिकता से जुड़ी यह घबराहट पहनावे, शादी से पहले सेक्स को लेकर या किसी और मसले के बारे में हो सकती हैं. इन सभी मामलों पर किशोरियों और नवयौवनाओं के बारे में इस दौर की चिंता की लकीरें साफ नजर आती हैं. युवाओं और उनकी कामुकता को लेकर भी आशंकाएं कुछ कम नहीं हैं.
जब बात नैतिकता से जुड़ी आशंकाओं की हो तो मन हां-या-ना की विपरीत दिशाओं में डावांडोल रहता हैः मासूमियत को ज्ञान का उलट मान लिया जाता है और मासूमियत को जंगलीपन का भी उलटा मान लिया जाता है (यही वजह है कि हमारे बच्चों को हमें 'जंगली ढंग से'-चाहे इसका जो भी अर्थ हो-पार्टी करते हुए कभी नहीं देखना चाहिए, यहां तक कि हमें मौज करते हुए भी नहीं देखना चाहिए).
मस्ती की तलाश को अक्सर ऐयाशी के बराबर मान लिया जाता है और जब बात लालन-पालन की हो, तब तो यह निश्चित रूप से गैरजम्मेदाराना मानी जाती है. चूंकि जानकारी का अभाव मासूमियत को बरकरार रखने के समान होता है, लिहाजा हमारे बच्चों को भी यौन व्यवहार के बारे में कभी बताया नहीं जाना चाहिए. नतीजतन अक्सर वे अज्ञानतापूर्ण फैसले करने के लिए मजबूर होते हैं.
भारत के कई राज्यों में स्कूलों को यौन शिक्षा देने की अनुमति नहीं है. सीबीएसई से संबद्ध स्कूलों में छठवीं कक्षा के बाद यौन शिक्षा शुरू करने के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के फैसले के जवाब में स्कूलों में यौन शिक्षा शुरू करने के मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस की मांग करने वाली एक याचिका पर 2009 में राज्यसभा की संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट तैयार की.
रिपोर्ट में कहा गया, ''यह संदेश स्कूली बच्चों को समुचित तरीके से दे दिया जाना चाहिए कि शादी से पहले सेक्स नहीं होना चाहिए, जो अनैतिक, अनुचित और अ-स्वास्थ्यकर होता है.'' उन्होंने सुझव दिया कि सेक्स के बारे में कोई शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए, लेकिन वे जीव विज्ञान के पाठ्यक्रम में समुचित अध्याय शामिल करने के लिए तैयार थे, वह भी प्लस-टू से पहले नहीं. इसके अलावा 'किशोरावस्था में शारीरिक और मानसिक विकास' और 'एचआइवी/एड्स और अन्य सेक्स संचारी रोग' जैसे अध्यायों को मौजूदा पाठ्यक्रम से निकालकर जीव विज्ञान की किताबों में 10+2 में जोड़ा जाना था.
ताज्जुब की बात नहीं कि सेक्स शिक्षा के अभाव का मतलब सेक्स का अभाव नहीं होता. लेकिन इसका अर्थ, कम जानकारी वाला, कम जिम्मेदारी वाला, और कभी-कभी कम सम्मानजनक या कम विश्वास आधारित सेक्स जरूर होता है. मैंने कुछ साल पहले मुंबई के एक कॉलेज में लैंगिकता और उसके निरूपण (यौन शिक्षा नहीं) पर एक कार्यशाला आयोजित कराने में मदद की थी. मेरा इरादा उस शक्ति समीकरण के बारे में बताना था, जिनके भीतर सेक्स स्थित होता है, लेकिन मैंने पाया कि इसके बजाए मैं उसमें मध्य और उच्च मध्यवर्गीय 18-20 वर्ष की लड़कियों को माहवारी, गर्भधारण और गर्भावस्था जैसी मूलभूत प्रक्रियाएं समझ रही हूं. यह इस बात का सबूत है कि उन्हें कितनी कम जानकारी उपलब्ध है.
इंडिया टुडे के सर्वेक्षण से संकव्त मिलता है कि मां-बाप अपने बच्चों के साथ सेक्स के बारे में बात नहीं करते हैं-सुरक्षित सेक्स तो और भी कम. संपर्क किए गए मात्र 10 फीसदी लोगों ने सुरक्षित सेक्स के बारे मे अपने बच्चों के साथ बात की. 78 फीसदी लोग सेक्स के बारे में खुली बातचीत नहीं करते.
चाहे यह हमें पसंद हो या नापसंद, युवा लोग सेक्स के बारे में सोचते हैं और कई बार वे सेक्स के साथ प्रयोग करते हैं. हमें सिर्फ उन्हें ऐसे साधन उपलब्ध कराने की जरूरत है जिनसे वे इसे जिम्मेदारी से और सुरक्षित ढंग से कर सकव्ं. यकीनन, हम में से कोई नहीं चाहेगा कि उनका 12 साल का बच्चा सेक्स करे, लेकिन यह तो हम इससे भी कम चाहेंगे कि उसी 12 वर्ष के बच्चे को गुप्त (सेक्स संचारी) रोग हो जाए-या वह एक असहज और इससे भी बुरे जबरन किए गए सेक्स अनुभव के साथ लौटे.
सेक्स शिक्षा सिर्फ सेक्स के बारे में सूचना नहीं होती है. इसमें सिर्फ जीवविज्ञान और सुरक्षित सेक्स का नहीं बल्कि रिश्तों और जिम्मेदारी का भी बोध कराया जाना चाहिए.
युवा महिलाओं ने गर्भ निरोधकों के बारे में बातचीत में बताया कि कंडोम का इस्तेमाल करने के लिए राजी करना उनके लिए कितना मुश्किल था. वे खुद कंडोम मुहैया नहीं करा सकती थीं क्योंकि इससे उन्हें सेक्स के बारे में बहुत जानकार माने जाने का अंदेशा था. ऐसे में युवा महिलाएं गुप्त रोगों और संभावित अवांछित गर्भधारण का जोखिम उठाने को तैयार थीं, लेकिन उन्हें स्वच्छंद नजर आने और इस तरह अपनी प्रतिष्ठा को नुक्सान पहुंचाने का अंदेशा था. सेक्स शिक्षा के जरिए समकालीन संबंधों में इन चिंताओं को दूर करने की जरूरत है.
अगर, मां-बाप को अपने बच्चों के सामने स्नेह भी जताने में संकोच होता है-जैसा कि सर्वेक्षण बताता है, सिर्फ 15 फीसदी ऐसा कर पाते हैं-तो कुल मिलाकर इससे भिन्न व्यवहार आश्चर्यजनक नहीं होता है. समर इन माइ वेंस (निशित सरन निर्देशित, 1999) नाम के एक वृत्तचित्र में, फिल्मकार कैमरे पर अपनी मां के सामने पहुंचता है जबकि उसकी मां एतराज जताती है, ''तुम यह सब कैमरे के सामने नहीं कर सकते, यह ठीक नहीं है.''
लेकिन वह महिला इस मामले को गजब के आत्मविश्वास के साथ और सबसे बढ़कर प्यार के साथ संभालती है. यहां तक कि दिल्ली हाइकोर्ट ने भी एक ही लिंग के लोगों के बीच सहमति से और एकांत में बनाए गए संबंधों को 2009 में अपराधमुक्त कर दिया. लेकिन इंडिया टुडे के सर्वेक्षण से संकव्त मिलता है कि 74 फीसदी लोगों को ऐसे बच्चे को स्वीकार करने में मुश्किल होगी जिसकी लैंगिकता उनसे अलग हो.
जब मैं ज्यादा छोटी बच्ची भी नहीं थी, तो हम लोग डार्क रूम नाम का एक खेल खेलते थे, जो लुका-छिपी के खेल जैसा था, लेकिन अंधेरे में खेला जाता था. लेकिन डार्क रूम इस वजह से ज्यादा मजेदार था, क्योंकि यह शैतानी भरा और अक्सर थोड़ा वाइल्ड लगता था-उसमें कहकहे, जोर की चीखें और अंधेरे की चादर ओढ़े शरीर को खोजते हाथ हुआ करते थे.
और अंधेरा तो जगह और वक्त के लिहाज से हर तरह की संभावनाओं की खदान होता है-अचानक किस्मत से कुछ हाथ लग जाने का मौका, और फिर उसके कामुक अर्थ-अनर्थ. हम लोग इतने छोटे तो थे कि हमें बच्चा कहा जाए, लेकिन इतने बड़े भी थे कि वे बातें समझ जाएं, जो बड़े लोग हमें नहीं बताते थे. यही वजह है कि जब इंडिया टुडे का सर्वेक्षण बताता है कि राय देने वाले आधे से ज्यादा लोग अपने बच्चों को अपनी 'वाइल्ड' पार्टियों में शामिल होने की इजाजत नहीं देते, तो सवाल उठता है-क्यों.
'वाइल्ड' पार्टियों से अक्सर आशय उस जगह का होता है, जहां शराब परोसी जाती है, डांसिंग (उसमें से कुछ बेरोकटोक) हो सकती है और लोगों को रिझने की गुंजाइश रहती है. इसमें कहकहे, जोर की चीखें सुन सकते हैं और लोगों को महसूस किया जा सकता है. आप कह सकते हैं-यह डार्क रूम का वयस्क संस्करण है. इसके बावजूद वाइल्ड पार्टियों को ऐसे स्थानों के तौर पर नहीं पेश किया जाता, जहां आप सिर्फ मस्ती कर सकव्ं, बल्कि अवैध और संदिग्ध स्थान के रूप में पेश किया जाता है.
मसलन, मध्य वर्ग की नैतिकता दर्शाने वाले फिल्मकार मधुर भंडारकर पेज थ्री (2005) में संकेत करते हैं कि 'पार्टीबाज' सतही किस्म के, खोखले और बाकी बातों के अलावा, बाल यौन शोषण करते हैं. वे फैशन (2008) में बताते हैं कि 'वाइल्ड' पार्टियों के ग्लैमर की दुनिया के लोग गुमराह लोगों से खास अलग नहीं होते. तभी औरतें आखिरकार गलत लोगों के साथ हमबिस्तर हो जाती हैं.
जब वाइल्ड और सेक्स एक ही सांस में कहा जाता है, तो यह ज्यादातर लोगों को असहज बनाने की प्रवृत्ति रखता है. इस मिश्रण में आनंद डाल दीजिए और आपको अच्छी-खासी छटपटाहट देखने को मिल जाएगी. ऐसे में ज्यादातर लोगों के लिए मस्ती की तरफदारी करना मुश्किल हो जाता है. यहां तक कि सेक्स शिक्षा के पैरोकार भी दलील देने लगते हैं कि इससे युवाओं को नियंत्रित ज्ञान मिलेगा, कच्ची उम्र में गर्भधारण कम होगा और वास्तव में वे सेक्स के मामले में देर से सक्रिय होंगे. सुरक्षित सेक्स के तरीकों के बारे में पढ़ाते वक्त क्या यह मुमकिन है कि ऐसी स्थिति आ जाए जब हमें आनंद या मौज-मस्ती की भी चर्चा करनी पड़े?
सेक्स की हमारी शब्दावली में दो तरह के शब्द अक्सर गायब रहते हैं और वे शब्द हमें अपने और अपने बच्चों के लिए हमारी सोच को स्पष्ट करने के लिए जरूरी हैं: रजामंदी और मस्ती और दूसरा है सम्मान और विश्वास. अगर हम सेक्स और लैंगिकता को रजामंदी और मस्ती के नजरिए से देख सकते हैं तो हो सकता है कि हम सेक्स के नैतिक पहलुओं, सुरक्षित सेक्स, सेक्स के बारे में बातचीत, सेक्स में प्राथमिकताएं, और वास्तव में वाइल्ड पार्टियां या यहां तक कि वाइल्ड सेक्स के बारे में सोचने के बजाए खुद से दूसरे ही किस्म के सवाल करें. तब हम खुद से पूछ सकते हैं कि शामिल रहे हर व्यक्ति की रजामंदी थी और क्या उनको मजा आया?
लेखिका मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज में पढ़ाती हैं.