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मकबूल फिदा हुसैन: कूची छोड़कर कर गए कूच

इसी 9 जून की सुबह लंदन के एक अस्पताल में म.कबूल फिदा हुसैन की मौत के साथ भारत ने अपना सबसे बड़ा समसामयिक और  प्रतीक-सा बन चुका चित्रकार ही नहीं खोया बल्कि इस देश के आधुनिक, सेकुलर और बहुसांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बुनियादी विचार के आखिरी जीवंत प्रतीकों में से एक को खो दिया.

अपडेटेड 11 जून , 2011

इसी 9 जून की सुबह लंदन के एक अस्पताल में म.कबूल फिदा हुसैन की मौत के साथ भारत ने अपना सबसे बड़ा समसामयिक और  प्रतीक-सा बन चुका चित्रकार ही नहीं खोया बल्कि इस देश के आधुनिक, सेकुलर और बहुसांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बुनियादी विचार के आखिरी जीवंत प्रतीकों में से एक को खो दिया.

महाराष्ट्र में मंदिरों के नगर पंढरपुर में 1915 में जन्मे हुसैन निम्न मध्यवर्गीय सुलेमानी मुसलमान परिवार से ताल्लुक रखते थे. यहीं से निकलकर वे व्यक्तियों, स्थानों और घटनाओं को अपनी कूची से उतारने वाले भारत के सबसे मशर चित्रकार बन गए.

एक विजुअल आर्टिस्ट-खासकर बीसवीं सदी के मध्य के एक आधुनिकतावादी चित्रकार-के रूप में हुसैन उस वक्त के उभरते-अंखुआते राष्ट्रबोध की एक नाजुक जमीन पर खड़े थे.

विभाजन के बाद के दिनों में जब पहली बार भारतीय कला परिदृश्य पर वे उभरकर सामने आए तो वे एक बहुचर्चित प्रतीक बन गए, उस नेहरूवादी राज्‍य व्यवस्था के संरक्षण में, जिसकी आधुनिकतावादी रोल मॉडल तैयार करने में बड़ी दिलचस्पी थी. इसके बावजूद उस चर्चित शख्सियत ने खुद को इतना असुरक्षित बना लिया कि अमूमन मौन रहने वाली बहुसंख्यक हिंदू आबादी की प्रतिनिधि आवाज होने का दावा करने वाले एक अर्धशिक्षित साजिशकर्ता ने तीन दशक बाद उनका और उनके काम का वस्तुतः अपहरण किया, गलत ढंग से पेश किया और बदजबानी की. असल में हुसैन और हुआधुनिक सेकुलर' भारत के बीच एक उतार-चढ़ाव भरी रूमानी दास्तान और फिर उनका सपनों की तरह टूट-बिखर जाना, यह सब एक सभ्यता के मृत्युलेख जैसा है.

जैसा कि समाजशास्त्री वीणा दास कहती हैं कि टूटन तो इस 'असंभव प्रेम' की बुनियाद में ही थी क्योंकि प्रतिमा, छवि और शब्द, ये सब आपस में विरोधाभासी इकाइयां हैं. उत्तर औपनिवेशिक कल्पनाओं में इतिहास और 'इतिहास की अवधारणा' के बीच अवैध किस्म की अंतरंगता के कारण यह समीकरण और गड्डमड्ड हो गया.

राष्ट्र की स्व की अवधारणा और उस पर बनाए जाने वाले हुसैन के चित्रों के बीच यह लुभावना और त्रासद रिश्ता एक जटिल जंजाल बन गया. इसी की जमीन पर खड़े होकर कई परस्पर विरोधी सियासी गठजोड़ पूरे दो दशक तक छद्म युद्ध लड़ते रहे, जब तक कि हुसैन 2006 में स्वघोषित तौर पर निर्वासन में नहीं चले गए. चार साल बाद उन्होंने .कतर की नागरिकता स्वीकार कर ली और दुबई, लंदन और .कतर में रहने-जीने लगे.

हुसैन की पढ़ाई इंदौर की गलियों में, बड़ौदा के मदरसे में, इंदौर स्कूल ऑफ आर्ट्स और चंद दिनों के लिए मुंबई के जे.जे. स्कूल ऑव आर्ट्स में हुई. उनमें गजब की प्रतिभा, बुद्धिमानी और दुनिया के बारे में जानने की भारी जिज्ञासा थी. जिंदगी और उसमें आने वाले लोगों से वे अनायास ही सीखते गए. 1930 के दशक के शुरू में वे तब के बंबई में पहुंचे.

जेब में धेला नहीं लेकिन जोश और ऊर्जा का पारावार. ये गुण तो उनके जीवन में आखिरी क्षणों तक बने रहे. शुरुआत उन्होंने बंबई की सड़कों पर टहलते हुए लोगों के चित्र बनाने की पेशकश से की, उन लोगों की जो 25 रु. अदा करने की कुव्वत रखते हों. उस वक्त उन्हें हालांकि बहुत काम नहीं मिला लेकिन उनमें से कुछेक आज भी मौजूद हैं. 2008 में लंदन में मैंने लॉर्ड गुलाम नून के बड़े भाई का एक ऐसा पोर्ट्रेट देखा, जिसे हुसैन ने भिंडी बाजार में मिठाई की एक दुकान पर बैठकर बनाया था.

उसके बाद जल्दी ही वे सिनेमा के होर्डिंग्स बनाने लगे. पहले वी. शांताराम के प्रभात स्टुडियो.ज के लिए और फिर न्यू थिएटर्स के लिए.

बांस के मचानों पर चढ़कर काम करते हुए हुसैन ने नीचे सड़कों पर भारी शोर के बीच भी पूरी एकाग्रता से काम करना सीखा. सालों तक वे चार आना फुट के मेहनताने पर मुंबई की तीखी तपती धूप में 40-40 फुट के होर्डिंग बनाते रहे. होर्डिंग्स बनाने के बाद वे 300 रु. महीने में खिलौनों के डिजाइन और बच्चों के फर्नीचर पेंट करने लगे. वे कहा करते थे, ''उस वक्त भी मुझे पता था कि एक दिन मैं एक बड़ा कलाकार बनूंगा.

एक वक्त था जब मैं दिन में फर्नीचर पेंट करता था और रात में चित्रकारी करता था. मैंने लगातार काम किया.''

सिनेमा को लेकर उनके जीवन में सदा के लिए एक आकर्षण बन गया और कुछ दशक बाद उन्होंने खुद कुछ बहुचर्चित फिल्में बनाई. इनमें से थ्रू द आइज ऑफ ए पेंटर (1967) को बर्लिन फिल्मोत्सव में गोल्डन बीयर अवार्ड मिला, लेकिन उनकी सबसे चर्चित फिल्म रही गजगामिनी (2000), जिसमें माधुरी दीक्षित हीरोइन थीं. 2004 में उन्होंने अंशतः आत्मकथात्मक फिल्म बनाई मीनाक्षी: अ टेल ऑव थ्री सिटीज, जिसमें तब्बू नायिका की भूमिका में थीं. मुस्लिम उलेमा की चपेट में आकर यह फिल्म मुश्किल में पड़ गई.

हुसैन की जिंदगी में सबसे निर्णायक बदलाव आजादी के आसपास हुए. बचपन में ही भारतीय कला में गजब की प्रतिभा दिखाने वाले फ्रांसिस न्यूटन सू.जा (1924-2002) ने संयोग से उनकी प्रतिभा को देखा-पहचाना और 1947 में उन्हें प्रगतिशील कलाकार समूह में शामिल कर लिया.

हुसैन के काम की शुरुआती प्रदर्शनी ने भी सबका ध्यान खींचा. जर्मन मूल के यदी कला समीक्षक रूडी वॉन लेडेन से मिली सराहना के बाद उन्होंने मुंबई में अपनी पहली एकल प्रदर्शनी 1950 में लगाई. कीमत उन्होंने 50 रु. से 300 रु. तक रखी थी और सारी पेंटिंग्स बिक गईं. हुसैन ने चुटकी लेते हुए मुझे बताया था, ''मैं शुरू से ही बेस्ट सेलर था.''

हुसैन को उनके समय के प्रगतिशील कलाकारों से जो चीज अलग साबित करती है वह है गहरी जड़ें जमाए 'भारतीयपन' और भारतीय जीवन तथा जनमानस का जश्न. उनके समवर्ती दूसरे चित्रकार जब अपने काम में बाइजेंटियम से लेकर और आगे के लोगों की यूरोपीय कला को समाहित करने में लगे थे, तो उस वक्त हुसैन मंदिरों के वास्तुशिल्प (मथुरा और खजुराहो), पहाड़ी लघुचित्रशैली और भारतीय लोककला से प्रेरणा ले रहे थे.

1950 के दशक के मध्य में हुसैन को उनके दो दुर्लभ चित्रों ने राष्ट्रीय पहचान दिलाई. ये थी जमीन और बिटविन द स्पाइडर ऐंड द लैंप. जमीन पेंटिंग बिमल रॉय की दो बीघा .जमीन (1955) से प्रेरित थी लेकिन गांव की गरीबी और उधारी का रोना रोने की जगह ग्रामीण भारत में जीवन के प्रतीकात्मक जश्न को दर्शाया गया था. वैसी चमक पहले किसी चित्र में नहीं देखने को मिली थी. इस मोड़ पर हुसैन की राय थी, ''मुझे एहसास हुआ कि आधुनिक होने के लिए यूरोपीयों की तरह पेंट करने की कोई जरूरत नहीं.''

इसी तरह से अस्तित्ववाद का आक्रोश भी उन्हें कभी समझ में नहीं आया. वे मजाक में कहते थे, ''अवधारणा के रूप में अलगाव मेरे स्वभाव के लिहाज से कोई बड़ी ही अजनबी चीज लगती है.'' अगले साल उन्होंने कहीं अधिक रहस्यमय चित्र बिटविन द स्पाइडर ऐंड द लैंप बनाया. कलारसिकों ने इसे उनकी सर्वकालिक महानतम कृति बताया. इसमें प्राचीन भारतीय युग की पांच स्त्रियां प्राचीन मूर्ति शिल्प-सी चित्रित हैं. कैनवस के शीर्ष से एक लालटेन लटक रही है. एक पांडुलिपि में कुछ अस्पष्ट-से शब्द दिख रहे हैं, शायद ब्राह्मी, मागधी या कोई और बहुत पहले भुला दी गई बोली के शब्द हैं. एक स्त्री के हाथ से-चित्रण ऐसा कि जैसे वह एक मुद्रा में बर्फ-सी जमी हुई हो-एक मकड़ी एक जाले के जरिए लटक रही है.

कुछ समीक्षकों की राय थी कि ये स्त्रियां हिंदू पौराणिक ग्रंथों में वर्णित पंच कन्याएं हैं: अहिल्या, कुंती, द्रौपदी, तारा, मंदोदरी. जब इस पेंटिंग का प्रदर्शन किया गया तो चहुंओर हलचल मचाने के बावजूद इसे 800 रु. में खरीदने के लिए कोई आगे नहीं आया. अभी इसे कलाकार से मांग कर आधुनिक भारतीय कला संग्रहालय में टांगा गया है.

एक ओर हुसैन हिंदुओं और मुसलमानों की गंगा-जमुनी संस्कृति के जीवंत प्रतीक बन गए, दूसरी ओर उनकी कला ने स्वाभाविक रूप से एक भारतीय शक्ल और मजमून अख्तियार कर लिया. इन चित्रों की प्रासंगिकता और अपील सार्वभौमिक होती थी. इसके अलावा हुसैन ने अपने चित्रों में समसामयिकता का पुट डालकर भी उन्हें प्रासंगिक बनाया. कभी भी खांटी प्रासंगिक विषयों पर चित्र बनाने को वे तैयार रहते थे. चाहे वह 1969 में बनाया गया मैन ऑन द मून हो या फिर 1971 में बांग्लादेश युद्ध के बाद इंदिरा गांधी को दुर्गा के रूप में दिखाना हो.

सत्तर और अस्सी के दशक में जैसे-जैसे आधुनिक भारतीय कला की स्वीकार्यता बढ़ी, हुसैन अपनी कृतियों के दाम लगातार बढ़ाते गए और मीडिया का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने अपने रंगीन व्यक्तित्व और हरकतों के जरिए अपने प्रति लोगों की जिज्ञासा बढ़ाई. वे अक्सर कहा करते थे, ''ड्रामे के बगैर ये जिंदगी भी कोई जिंदगी है.'' उनके प्रतिद्वंद्वियों-विरोधियों ने इसे बाजारीकरण कहते हुए शोर मचाया और दोस्त भी चकित भाव से उन्हें देखते रह गए.

लेकिन हुसैन ने जोर देकर कहा कि ''किसी पेंटिंग की भौतिक कीमत खरीदार की आंखों में होती है.'' और खरीदार झुंडों में आते हैं. हैदराबाद के व्यवसायी बद्री विशाल पित्ती, जिनके लिए उन्होंने 150 चित्र बनाए, से लेकर बोस्टन के हैंडबैग कारोबारी चेस्टर हरविट्ज तक, जिन्होंने 1970 के दशक में हुसैन का रचा कुछ भी खरीद डाला. दो दशक बाद कोलकाता के उद्योगपति जी.एस. श्रीवास्तव ने हुसैन की 124 पेंटिंग्स 100 करोड़ रु. में खरीदने का सौदा किया; यह सब कोई कला के प्रति प्यार के लिए नहीं बल्कि बेहतर निवेश की संभावना के मद्देनजर किया गया.

भारतीय कला का भाव लगातार ऊपर चढ़ रहा था और ब्रांड हुसैन अब हुसैन इन्कॉर्पोरव्शन बन चुका था. भारत से उनके आखिरी बार रवाना होने के बाद .कतर के शेख मो.जा उनके आखिरी संरक्षक थे.

इतनी दौलत और शोहरत के बावजूद इन चीजों से वे कतई प्रभावित नहीं हुए. उन्हें ढाबे में भी खाने में उतना ही आनंद आता, जितना कि पांच तारा होटल में. 1974 में हिंदी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध के प्रति समर्पण दर्शाते हुए उन्होंने जूते-चप्पल पहनना छोड़ दिया. दुनिया की किसी भी बड़ी से बड़ी या खास सभाओं में वे नंगे पांव ही जाते.

पर कोई भी आख्यान अपने आप में समग्र पूर्णता लिए हुए नहीं होता. हुसैन के खाते में विवाद और आलोचनाएं उनके हिस्से से कहीं ज्‍यादा आई हैं. हालांकि इतना तो तय है कि हुसैन की कला और उनके व्यक्तित्व के प्रति और लोगों की और भी जिज्ञासा बढ़ेगी. भारत देश की ओर से उन्हें सबसे अच्छी श्रद्धांजलि शायद यही होगी कि वह इस उप-महाद्वीप के सबसे प्रतिभावान पुत्र के जीवन और उसकी कला को समर्पित करते हुए एक अदद संग्रहालय की स्थापना करवाए.

 

एम.एफ. हुसैन से मैं पहली बार 1948 में बॉम्बे आर्ट सोसाइटी में मिला था. शेट्यू विंडसर होटल में हुसैन मेरे कमरे में आए और मुझ्से एक किताब ली-क्लाइव बेल की आर्ट.  हालांकि उन्होंने वह किताब गुमा दी लेकिन मुझे बदले में एक पेंटिंग मिल गई, मां-बच्चे की वह पेंटिंग निश्चित ही अधिक मूल्यवान थी. मेरव् पास मौजूद उनकी नौ कलाकृतियों में से एक यह भी है और इन्हें मैं अपने से कभी जुदा नहीं करूंगा. हम बहुत करीबी दोस्त थे. उन्होंने और एस.एच. रजा ने ग्रिंडलेज बैंक छोड़ने के लिए मुझे प्रेरित किया. मैं 86 साल का हूं. ढेरों यादें मेरे पास हैं. कलाकार इस मायने में खुशनसीब होते हैं कि वे अपने से जुड़ा एक ऐसा हिस्सा पीछे छोड़ जाते हैं जिसे कृतज्ञ समाज सहेज कर रखता है.''
-कृष्ण खन्ना, कलाकार

 एम.एफ. हुसैन एक करीबी दोस्त और मार्गदर्शक थे, जिन्होंने नए कलाकारों की एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया है. वे भारत के महानतम कलाकारों में से एक हैं. उनका सोच बहुत अच्छा था और उनका काम महत्वपूर्ण मील का पत्थर है. हुसैन का योगदान बहुत बड़ा है, न केवल उनके काम के लिहाज से बल्कि इसलिए भी क्योंकि वे कला को आम व्यक्ति के जीवन तक ले आए. देश छोड़ने के लिए उन्हें इस तरह

मजबूर कर देना कला जगत के साथ बहुत बड़ा अन्याय है.''
-सुबोध गुप्ता, कलाकार

 ''यादें तो बहुत हैं. बतौर छात्र मैंने हुसैन और रजा के साथ कई प्रदर्शनियां की हैं. एक अच्छे शिष्य की तरह मैं उन्हें कैनवास जमाने में मदद करता था और हम दुनिया भर के विषयों पर चर्चा किया करते थे. हुसैन के बारव् में एक बात जो मुझे सबसे अच्छे से याद है वह यह कि वे बहुत ही अधीर व्यक्ति थे. उन्हें जो करना होता था वे वही करते थे, उन्हें कोई रोक नहीं सकता था. एक बार की बात है, उन्हें लंदन जाना था और मैं उन्हें हवाईअड्डे पर छोड़ने गया था. उनका सामान भी अंदर भेजा जा चुका था लेकिन फिर भी उन्होंने विलंबित उड़ान का इंतजार नहीं किया. इसके बदले वे न्यूयॉर्क चल दिए. आवेशी, जिद्दी, स्नेही और अतुल्य कलाकार. मुझे धक्का पहुंचा है क्योंकि वे सेहतमंद और प्रसन्न थे. मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि वे एक दिन इस तरह अचानक चले जाएंगे.''
-अकबर पद्मसी, कलाकार

हुसैन की मृत्यु से कला समुदाय में एक बहुत बड़ा शून्य आ जाएगा. वे एक चलते-फिरते विज्ञापन थे, कला समुदाय के जीवित इश्तहार. उनके बारव् में एक बात मुझे हमेशा से बहुत चकित करती है और वह है जीवन के प्रति उनका जोश और उत्साह भरा नजरिया. अपने देश को छोड़ने के लिए मजबूर कर दिए जाने के बावजूद वे दुनिया भर में लगातार भारतीय कला को बढ़ावा देते रहे. जोश से भरी उनकी कला के लिए उन्हें हमेशा याद रखूंगा.''
-अरुण वढेरा, दीर्घा संचालक

''मैं चित्रकारी शुरू करूं तो आप अपने हाथों से आसमान को थाम लीजिए क्योंकि अपने कैनवस के विस्तार का खुद मुझे भी कुछ पता नहीं.''
-एम.एफ. हुसैन

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