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मंटो ऐसे जिया और ऐसे मरा

उर्दू के अजीम अफसानानिगार सआदत हसन मंटो ताउम्र व्यवस्था और समाज की रूढ़ियों से लड़ते रहे. कथा लेखिका इस्मत का यह महत्वपूर्ण संस्मरण उनकी शख्सियत, नजरिए, बेबाकी, और लेखन पर न.जरसानी करता है.

सआदत हसन मंटो
सआदत हसन मंटो
अपडेटेड 21 मई , 2012

एडीफी चैंबर की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए मुझे घबराहट-सी हो रही थी, जैसे कभी इम्तिहान के  हॉल में दाखिल होने से पहले हुआ करती थी. मुझे वैसे ही नए आदमियों से मिलते घबराहट हुआ करती थी, लेकिन यहां तो वह 'नया आदमी' मंटो था, जिससे मैं पहली बार मिलने जा रही थी. मेरी घबराहट वहशत की हदों को छूने लगी. मैंने शाहिद से कहा, ''चलो, वापस चलें शायद मंटो घर पर न हो,'' मगर शाहिद ने मेरी उम्मीदों पर पानी फेर दिया.

''वह शाम को घर ही पर रहता है क्योंकि  वह शाम को रोज पीता है.''
यह लीजिए, मरे पर सौ दुर्रे! एक तो मंटो, और वह भी पीता हुआ मंटो, मगर मैंने जी कड़ा कर लिया. ऐसा भी क्या? मुझे खा तो नहीं जाएगा! होने दो, जो उसकी जबान की नोक पर डंक है, मैं बुलबुला तो हूं नहीं जो फूंक मारी, तो बैठ जाऊंगी. चरचराती गर्द भरी सीढ़ियां तय करके हम मंजिल पर पहुंचे.

''आइए, आइए!'' बड़े खिले माथे से मंटो खड़ा हो गया. मंटो हमेशा कुरसी पर उकडूं बैठा करता था और बहुत छोटा-सा नजर आता था, लेकिन जब खड़ा होता था, तो खिंचकर उसका  कद खासा लंबा निकल आता था, और कई बार यों रेंगकर खड़ा होता था, तो बड़ा जहरीला लगता था. उसके  जिस्म पर खद्दर का कुर्ता-पाजामा और जवाहर-कट सदरी थी.

''अरे, मैं समझता था, आप निहायत काली दुबली, सूखी, मरियल-सी होंगी,'' उसने दांत निकालकर हंसते हुए कहा.
''और मैं समझती थी, आप निहायत दबंग किस्म के गलहीर चिंघाड़ते हुए पंजाबी होंगे.'' मैंने सोचा. रसीद देते चलो, कहीं यह एकदम न लपटे पर ले ले.Manto story

और दूसरे लम्हे हम दोनों पूरी तन्मयता से जुटकर बहस करने लगे कि जैसे-इतने अरसे एक-दूसरे से नावाकिफ रहकर हमने बड़ा घाटा उठाया हो, और उसे पूरा करना हो. दो-तीन बार बात उलझ गई, लेकिन जरा-सा तकल्लुफ बाकी था. इसलिए दूसरी मुलाकात के लिए उठा रखी. कई घंटे हमारे जबड़े मशीनों की तरह विभिन्न विषयों पर जुमले कतरते रहे और मैंने जल्द ही मालूम किया कि मेरी तरह मंटो भी बात काटने का आदी है. पूरी बात सुनने से पहले ही बोल उठता है और जो रहा-सहा तकल्लुफ था, वह भी गायब हो गया. बातों ने बहस और बहस ने बाकायदा नोक-झोंक की शक्ल अपना ली और सिर्फ चंद घंटों की जान-पहचान के बल-बूते पर हमने एक दूसरे को बहुत अदबी किस्म के  शब्दों में अहमक, झक्‍की, और कुज-बहस कह डाला.

घमासान के  बीच मैंने एक बार किनारे होकर गौर से देखा. मोटे-मोटे शीशों के  पीछे लपकती हुई बड़ी-बड़ी सियाह पुतलियों वाली आंखें, जिन्हें देखकर मुझे बसाख्ता मोर के  पंख याद आ गए. मोर के  पंख और आंखों का क्या जोड़? यह मुझे कभी नहीं मालूम हो सका, मगर जब भी मैंने उनकी आंखों को देखा मुझे मोर के पंख याद आ गए. शायद अहंकार और गुस्ताखी के साथ-साथ उनमें बसाख्ता प्रफुल्लता मुझे मोरों के पंखों की याद दिलाती थी. उन आंखों को देखकर मेरा दिल धक से रह गया. उन्हें तो मैंने कहीं देखा है. बहुत करीब से देखा है. कहकहे लगाते, संजीदगी से मुस्कुराते व्यंग्य के नश्तर बरसाते और फिर नजले की अवस्था में पथराते! पीते-पीते अचानक मंटो खांसने लगा. मेरा माथा ठनका. यह खांसी तो जानी-पहचानी सी थी. इसे तो मैंने बचपन से सुना था. मुझे कोफ्त होने लगी. न जाने किस बात पर मैंने कहा, ''यह बिल्कुल गलत है,'' और हम बाकायदा लड़ पड़े.

''आप कुज-बहसी कर रही हैं!''
''हिमाकत है यह!''
''धांधली है, इस्मत बहन!''
''आप मुझे बहन क्यों कह रहे हैं?'' मैंने चिढ़कर कहा.
''बस यूं ही. आम तौर पर औरतों को बहन कम कहता हूं. मैं अपनी बहन को भी बहन नहीं कहता.''
 ''तो फिर मुझे चिढ़ाने को कह रहे हैं?''manto story
''नहीं, तो, वह कैसे जाना आपने?''

''इसलिए कि मेरे भाई हमेशा जलाते, चिढ़ाते और मारते-पीटते रहे या पकड़कर पिटवाते रहे.'' मंटो जोर से हंसा, ''तब तो मैं जरूर आपको बहन ही कहूंगा.''

''तो इतना याद रखिए कि मेरे बारे में मेरे भाइयों के  खयालात भी कुछ खुशगवार नहीं हैं. आपको खांसी है. इसका इलाज क्यों नहीं कराते?''

''इलाज?'' डॉक्टर गधे होते हैं. तीन साल हुए डॉक्टरों ने कहा था, साल भर में मर जाओगे. तुम्हें टी.बी. है. साफ जाहिर है कि मैंने मरकर उनकी भविष्यवाणी को सच्चा साबित न होने दिया, और अब तो बस मैं डॉक्टरों को अहमक समझता हूं. उनसे तो मिसमरेजम और जादू करने वाले ज्‍यादा अक्लमंद होते हैं.''

''यही आप से पहले एक बुजुर्ग फरमाया करते थे!''
''कौन बुजुर्ग?''
''मेरे भाई अजीम बेग! नौ मन मिट्टी के  नीचे आराम फरमा रहे हैं.''

थोड़ी देर हम अजीम बेग के  फन पर बहस करते रहे. आए थे सिर्फ मुलाकात करने, लेकिन बातों में रात के  ग्यारह बज गए. शाहिद जो हमारी झड़पें अलग-थलग बैठे देख रहे थे, भूख से तंग आ चुके थे. मलाद पहुंचते-पहुंचते एक बज जाएगा, लिहाजा खाना खा ही लिया जाए. मंटो ने मुझसे अलमारी से प्लेटें और चमचे निकालने को कहा और खुद होटल से रोटी लेने चला गया.manto story

''जरा उस बरनी से आचार निकाल लीजिए.'' मंटो ने तेजी से मेज पर खाना लगाया और कुर्सी पर उकड़ूं बैठ गया. बगैर किसी से 'पहले आप कहे हम लोगों ने खाना शुरू कर दिया, जैसे बरसों से इसी तरह खाने के आदी हों. खाने के  बीच में गर्मागर्म बहस भी चलती रही. मंटो घूम-फिरकर मेरी कहानी लिहाफ  के बखिए उधेड़ने लगता, जो उन दिनों मेरी दुखती रग बनी हुई थी. मैंने बहुत टालना चाहा, मगर वह ढिठाई से अड़ा रहा, और उसका एक-एक तार घसीट डाला. उसे बड़ा धक्का लगा, यह सुनकर कि मुझे 'लिहाफ', लिखने पर अफसोस है. खूब जली-कटी सुना डाली और मुझे बहुत बुजदिल और कम-नजर कह डाला. मैं लिहाफ को अपना शाहकार मानने पर तैयार नहीं थी और मंटो आग्रहशील था. थोड़ी ही देर में लिहाफ से भी बढ़-चढ़कर हमने बहस कर डाली निहायत खुलकर, और मुझे ताज्‍जुब हुआ कि मंटो गंदी से गंदी और बेदा से बेहूदा बात धड़ से इस माकूलियत और भोलेपन से कह जाता है कि झिझक महसूस नहीं होती.

चलते समय उसने फिर अपनी बीवी 'सफिया' का जिक्र किया. इतनी देर हम बैठे रहे और मंटो को सफिया की याद ने कई बार सताया.manto story

'सफिया बहुत अच्छी लड़की है!''
''सफिया बहुत उम्दा सालन पकाती है!''
''आप उससे मिलकर बहुत खुश होंगी.''
''बहुत याद आ रही है, तो उसे बुला क्यों नहीं लेते?'' मैंने कहा.
''अरे...क्या समझती है, उसके बगैर... वह अपनी असलियत पर उतरने लगा.
''आपको सफिया से मुहब्बत है?'' मैंने राजदारी के  अंदाज में पूछा.

''मुहब्बत!'' वह चीख पड़ा, जैसे-मैंने उसे गाली दी हो. ''मुझे उससे कतई मुहब्बत नहीं,'' उसने कड़वा मुंह बनाकर बड़ी-बड़ी पुतलियां घुमाईं.

''मैं मुहब्बत का कायल नहीं.''

''आप ने कभी किसी से मुहब्बत नहीं की?''
''नहीं!''
''और आपके कभी गलसुए निकले. खसरा हुआ, मगर काली खांसी तो जरूर हुई होगी,'' वह हंस पड़ा.

''मुहब्बत से आपका मतलब क्या है. मुहब्बत तो एक बड़ी लंबी-चौड़ी चीज है. मुहब्बत मां से भी होती है. बहन और बेटी से भी...बीवी से भी मुहब्बत होती है. चप्पलों और बूट-जूते से भी मुहब्बत होती है. मेरे एक दोस्त को अपनी कुतिया से मुहब्बत है. हां, मुझे अपने बेटे से मुहब्बत थी,'' वह बेटे के खयाल पर उचककर कुर्सी पर ऊंचा हो गया. ''खुदा की कसम, इतना-सा पैरों चलता था. बड़ा शरीर था. घंटों चलता था, तो फर्श की दराजों में से मिट्टी निकालकर खा लिया करता था. मेरा कहना बड़ा मानता था!'' आम बापों की तरह मंटों ने अपने बेटे के  अजीबो-गरीब होने का यकीन दिलाना शुरू किया.

''आप यकीन कीजिए, छह-सात दिन का था कि मैं उसे अपने पास सुलाने लगा. मैं उसे खुद तेल मलकर नहलाता. तीन महीने का भी नहीं था कि ठठा मारकर हंसने लगा. बस सफिया को कुछ नहीं करना पड़ता था. दूध पिलाने के  सिवा उसका कोई काम न करती. रात को बस पड़ी सोई रहती. मैं चुपचाप बच्चे को दूध पिलवा लेता. बच्चे को दूध पिलवाने से पहले यूडी-क्लोन या स्प्रिट से साफ कर लेना चाहिए नहीं तो बच्चे के मुंह में दाने हो जाते हैं,'' वह बड़ी संजीदगी से बोला, और मैं हैरत से उसे देखती रही कि यह कैसा मरदुआ है, जो बच्चे पालने में प्रवीण है.

''मगर वह मर गया'', मंटों ने बनावटी खुशी चेहरे पर लाकर कहा.

''अच्छा हुआ जो वह मर गया. मुझे तो उसने आया बना डाला था. अगर वह जिंदा रहता, तो आज मैं उसके  पोतरे धोता होता. निकम्मा होकर रह जाता. मुझसे कोई काम  थोड़े होता. सचमुच इस्मत बहन मुझे उससे इश्क था.''

चलते-चलते उसने फिर कहा कि ''सफिया आने वाली है. बस, जी खुश हो जाएगा आपका उससे मिलकर.''

और सफिया से मिलकर मेरा जी खुश हो गया. मिनटों में हमारी इतनी घुट गई कि सिर जोड़कर गोपनीय बातें भी होने लगीं, जो सिर्फ औरतें ही कहती हैं, जो मर्दों के क ानों के  लिए नहीं होतीं.

मंटो को खुद-सताई की आदत थी, मगर आमतौर पर मेरे सामने अपने साथ मुझे भी घसीट लिया करता था, और उस वक्त मेरे अपने सिवा दुनिया में कि सी को अदीब न मानता. अगर कि सी की तारीफ क रो, तो सुलग उठता. मैं कहती, ''आप कोई आलोचक तो हैं नहीं, जो आपकी बात मानी जाए'' और वह आलोचकों को जली-कटी सुनाने लगता. एक सिरे से उनके वजूद को ही सिमे-कातिल समझता, खासतौर पर अदब के लिए.

''बकवास करते हैं ये लोग!'' वह जलकर कहता. जो यह कहते हैं, बस उसका उलटा करते जाओ. यही लोग, जो एतराज करते है, छुप-छुप कर मेरी कहानियां पढ़ते हैं और उनसे कुछ सीखने के  बजाए आनंदित होते हैं और फिर उस लुत्फ की याद पर शर्मिंदा होकर ऊल-जलूल लिखते हैं. वह कभी इतना चिढ़ जाता कि मैं उसे तसल्ली देने को कहती, जब आपको यकीन है कि यह उल-जलूल लिखते हैं तो आप उनका जवाब क्यों देने लगते हैं. अगर आलोचना से आपको मदद नहीं मिलती, तो न लीजिए, मगर आम राय को तो कलंकित न करें, मगर वह भन्नाता रहता.

एक दिन दफ्तर में गरमी से परेशान होकर मैंने सोचा, जाकर मंटो के यहां आराम कर लूं. फिर वापस मलाद जाऊं. दरवाजा हस्बे-मामूल खुला हुआ था. जाकर देखा, तो सफिया मुंह फुलाए लेटी है. मंटो हाथ में झाड़ू लिए सटासट पलंग के नीचे हाथ मार रहा है और नाक पर कुर्ते का दामन रखे झाड़ू चला रहा है.

''यह क्या कर रहे हैं?'' मैंने मेज के नीचे झंककर देखा और पूछा.

''क्रिकेट खेल रहा हूं!'' मंटो ने बड़ी-बड़ी मोरपंख जैसी पुतलियां घुमाकर जवाब दिया.
''यह लीजिए, हमने सोचा था, जरा आपके यहां आराम करेंगे, तो आप लोग रूठे बैठे हैं!'' मैंने वापस जाने की धमकी दी.
''अरे!'' सफिया उठ बैठी, ''आओ, आओ!''
''काहे का झगड़ा था?'' मैंने पूछा.
''कुछ नहीं.'' मैंने कहा-''खाना पकाना, गृहस्थी वगैरह मर्दों का काम नहीं. बस जैसे तुमसे उलझते हैं, मुझसे भी उलझ पड़े कि क्यों नहीं, मर्दों का काम है. मैं अभी झाड़ू दे सकता हूं.'' मैंने बहुत रोका, तो और लड़े. कहने लगे, ''ऐसा ही है, तो तलाक ले लो.'' सफिया ने बसूर कर कहा.

मंटो से झाड़ू छुड़ाने के लिए मैंने बनकर खांसना शुरू किया, ''सुबह ही सुबह म्युनिस्पलिटी के झाड़ू वाले ने सेहन साफ करने के बहाने धूल हलक में डाल दी. अब आप अरमान निकाल लीजिए. गरमी के मारे जान निकल रही है.''

जल्दी से झाड़ू छोड़ मंटो होटल से बर्फ लाने चला गया. सफिया हंडिया बघारने चली गई. बर्फ लाकर मंटो ने तौलिया दीवार पर मार-मारकर तोड़ी और प्लेट में भरकर सामने रख दी और उकडूं बैठ गया.
''और सुनाइए,'' उसने हस्बे-आदत कहा. हांडी के बघार से मुझे जोर से उबकाई आई.
''उफ्फोह! यह सफिया क्या जला रही है,'' मैंने नाक बंद करके कहा. मंटो ने चौंककर मुझे देखा. और छलांग मारकर झपटा. बावर्चीखाने में सफिया चीश्ती रही और उसने फिर लोटा भर पानी पतीली में झोंक दिया.

वापस आकर वह सहमा-सहमा-सा कुरसी पर बैठ गया और फिर कुछ झेंपकर हंस दिया.
मैं बेवकूफों की तरह देखती रही.
सफिया बड़बड़ाती आई, तो उसे जोर से डांटा. फिर बड़े शर्मीले अंदाज से बोला-''आपके पेट में बच्चा है?'' जैसे बच्चा मेरे नहीं, खुद उनके पेट में हो, मैंने फौरन ताड़ लिया. जब सफिया के पेट में बच्चा था, उसे भी बघारने से उबकाई आती थी.

''मंटो साहब, खुदा के लिए दाइयों जैसी बातें न करो,'' मैंने चिढ़कर कहा. वह जोर से हंसा, ''अरे, वाह! इसमें क्या बुराई है. अरे, आपको खट्टी-जैसी चीजें भाती होंगी. मैं अभी कैरियां लाता हूं.'' वह लपककर नीचे गया और कुर्ते के दामन में बच्चों की तरह कैरियां भरके ले आया. कैरियां छीलकर बड़ी नफासत से नमक-मिर्च लगाकर मुझे दीं और खुद उकडूं बैठा मुझे गौर से देखकर मुस्कराता रहा.

''सफिया! अरे सफिया!'' वह चिल्लाया. सफिया धुएं से अटी आंखें आंचल से पोंछती हुई आईं, ''क्या है मंटो साहब? कितना चिल्लाते हैं?''
''अरे बेवकूफ! इनका पैर भारी है,'' उसने सफिया की कमर में हाथ डालकर कहा.
''उफ! गंदगी भी इंतहा है. तभी तो आपको लोग फहशनिगार (अश्लीलबाज) कहते हैं.'' मेरे इस बिगड़ने पर मंटो खूब-खूब चहका और बड़ी-बूढ़ियों जैसे मशविरे देने लगा, ''पेट पर जैतून के तेल की मालिश से घड़ौंचे नहीं पड़ेंगे.''
''खोपरा खाने से बच्चा गोरा होगा.''
मुल्क में फसाद शुरू हो गए. मंटो उस वक्त फिल्मिस्तान में करीब-करीब स्थायी था. वह बड़ा खुश नजर आता था. प्रशंसा जो उसकी जिंदगी का सहारा थी, उसे मिलती थी कि उसकी फिल्म आठ दिन कामयाब न हुई. न जाने क्यों वह फिल्मिस्तान छोड़कर अशोक कुमार के साथ बंबई टाकीज चला गया. उसे अशोक कुमार बहुत पसंद था. मुकर्जी ने न जाने उसे क्या कह दिया था कि-वह उसके खिला.फ हो गया.

बंबई टाकीज में जाकर उसने मुझे भी कंपनी में एक साल के लिए सीनिरियो डिपार्टमेंट में काम दिलवा दिया और बहुत ही खुश हुआ, ''अब हम दोनों मिलकर कहानी लिखेंगे. तहलका मच जाएगा. मेरी और आपकी कहानी. अशोक कुमार हीरो. बस फिर देखिएगा!''

मंटो की एक कहानी विचाराधीन थी. अशोक कुमार को वह पसंद थी. उससे पहले उसे मजबूर की कहानी पसंद थी. फिर दिल से उतर गई और मंटो की कहानी पसंद आई. मेरे आने के बाद उसे मेरी कहानी जिद्दी पसंद आ गई. खैर, मंटो को नागवार न गुजरा. जब अशोक कुमार ने मुझसे मंटो की कहानी पर काम करने को कहा और मंटो को मेरी कहानी पर! नतीजा यह कि मंटो मुझसे और मैं मंटो से शाकी होने लगे. इधर कमाल अमरोही 'महल' की कहानी लेकर आ गए और अशोक कुमार को वह पसंद आ गई और हम दोनों की कहानी खटाई में पड़ गई. अब सिर्फ इज्‍जत का सवाल होता, तो और बात थी. वहां तो यह हाल हो गया कि हमारी कहानी नहीं बन रही है, तो हम किसी गिनती ही में नहीं थे. हमसे कह दिया गया था कि चैन से बैठो. तनख्वाह मिलती रहेगी, क्योंकि कांट्रेक्ट हो चुका था, लेकिन हमारी कहानी नहीं बनेगी, लिहाजा, मेरी और शाहिद की पूरी कोशिशें अपनी कहानी जिद्दी को बनवाने की तरफ लग गईं और बगैर अशोक कुमार के दूसरे दर्जे की तस्वीरों की कतार में जिद्दी बनाई जाने लगी.

मगर मंटो की कहानी रह गई! मंटो दिन भर अपने कमरे में बैठा अपनी कहानी की उधेड़बुन किया करता. कभी अंजाम को आगाज बनाकर लिखता. कभी आगाज को अंजाम बनाकर. कभी बीच से शुरू करके आगाज पर खत्म करता और मध्य को अंजाम बना देता. बावजूद हजारों ऑपरेशनों के कहानी की कोई कल अशोक को पसंद न आई, मगर मंटो यही कहता, ''आप गांगुली को नहीं समझतीं. मैं समझता हूं. वह मेरी कहानी में जरूर काम करेगा.''

''आपकी कहानी में उसका रोल रोमांटिक नहीं, बाप का है. वह कभी नहीं करेगा.'' और मंटो से फिर लड़ाई होने लगती, मगर अदबी जबान से. यहां अपनी फिक्र पड़ी थी, और वही हुआ कि जिद्दी और महल बन गईं. मंटो की कहानी रह गई. मंटो को इसकी उम्मीद न थी और उसे बड़ी जिल्लत महसूस हुई. वह सब कुछ झेल सकता था, बेकद्री नहीं झेल सकता था. उसके बीवी-बच्चे उसे पाकिस्तान बुलाने लगे. मंटो ने हमसे भी चलने को कहा. पाकिस्तान में भविष्य हसीन है. यहां से गए हुए लोगों को कोठियां मिलेंगी. वहां हम ही हम होंगे. बहुत जल्दी तरक्की कर जाएंगे. मेरे जवाब पर मंटो मुझ्से वाकई बद-दिल हो गया. इतनी लड़ाइयां और झ्गड़े मेरे उससे हुए, मगर यूं किसी संजीदा उसूल पर बहस नहीं हुई. और उस वक्त मुझे मालूम हुआ कि मंटो कितना बुजदिल है. और एक दिन वह बगैर सूचना दिए और मिले पाकिस्तान चला गया. मुझे बड़ी हतक महसूस हुई.

फिर जब उसका खत आया कि वह बहुत खुश है. बहुत उम्दा मकान मिला. लंबा-चौड़ा और खूबसूरत. कीमती सामान से सजा हुआ. हमें उसने फिर बुलाया. 'जिद्दी' खत्म हो गई थी और हमने 'आरजू' शुरू कर दी थी.  बुरे वक्त आए थे और चले गए थे. उसके फिर दो खत आए. उसने बुलाया था. एक सिनेमा अलाट करवाने की उम्मीद दिलाई थी. मुझे बड़ा दुख हुआ. उसकी मुहब्बत का पहले भी यकीन था, मगर अब तो और भी मान जाना पड़ा, मैंने उसके खत फाड़ दिए. इस बात से चिढ़कर कि वह मेरे उसूलों की कद्र क्यों नहीं करता. मैंने उसे जाने से नहीं रोका. फिर वह मुझे अपने रास्ते पर क्यों घसीट रहा है?

और आज मंटो के मरने के बाद मैं लिख रही हूं. मंटो ही नहीं अरसा हुआ, मेरे और मंटो के दरम्यान बहुत कुछ मर चुका था. आज सिर्फ एक कसक जिंदा है. यह पता नहीं चलता कि किस बात की कसक है? क्या इस बात का अफसोस है कि वह मर चुका है और मैं जिंदा हूं. यह मेरे सीने पर फिर कर्ज जैसा बोझ क्यों है? मुझे तो मंटो का कोई कर्जा याद नहीं, और उसका कर्जा भी क्या था? यही न कि उसने मुझे बहन कहा था, मगर बहनें भाइयों को दम तोड़ता देख कुछ कर नहीं पातीं. मरने वाले जख्म लगा जाते हैं, जो न दुखता है, न रिसता है. खामोश सुलगता रहता है.

तुम आजिज तो नहीं आ गईं अदीबों से? यूं ही खुद घिसटते हैं और अपनों को दलदल में घसीटते हैं...और फिर एक दिन अकेला छोड़कर चल देते हैं. बहन, यह अदीबों की आदत नहीं, हमारे देश के लाखों-करोड़ों इंसान इसी तरह जिंदगी में नाकामी और नामुरादी का शिकार होते हैं.

न जाने दिल क्यों कहता है कि मंटो की उस जवान मौत में मेरा भी हाथ है. मेरे दामन पर भी खून के नजर न आने वाले छींटे हैं, जो सिर्फ मेरा दिल देख सकता है. वह दुनिया, जिसने उसे मरने दिया, मेरी ही तो दुनिया है. आज उसे मरने दिया और कल यूं ही मुझे भी मर जाने की इजाजत होगी. और फिर लोग मातम करेंगे. मेरे बच्चों का बोझ उनके सीने पर चट्टान बन जाएगा. जलसे करेंगे. चंदे जमा करेंगे और उन जलसों में अति व्यस्तता के कारण कोई न आ सकेगा. वक्त गुजर जाएगा. सीने का बोझ आहिस्ता-आहिस्ता हलका हो जाएगा और वे सब कुछ भूल जाएंगे.

प्रस्तुतिः सुरजीत, (साभारः लाहौर से छपने वाले उर्दू त्रैमासिक नकूश (मंटो विशेषांक 1978, अंक 49-50) से अनूदित और संपादित अंश. मंटो की स्मृति में लिखा गया यह आलेख पहले भी प्रकाशित हो चुका है. फिर भी हम इसे छाप रहे हैं.

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