सविता टोप्पो 4 मार्च से स्कूल नहीं जा रही है. जब स्कूल ने उससे लगातार अनुपस्थित रहने का कारण पूछा तो 11वीं क्लास में पढ़ने वाली सविता ने बेबाकी से जवाब दिया कि फिलहाल वह अपनी जमीन बचाने के लिए जंग कर रही है. वह नगड़ी और आसपास के 35 गांव के हजारों लोगों के साथ 227.71 एकड़ कृषि योग्य जमीन को बचाने को लेकर आंदोलन कर रही है.
इस जमीन को तीन हिस्सों में बांटकर आइआइएम (76 एकड़), आइआइआइटी (75 एकड़) और विधि विश्वविद्यालय (67 एकड़) स्थापित करने की योजना है. रांची के कांके में स्थित नगड़ी में पश्चिम बंगाल के सिंगुर जैसे हालात बन गए हैं.
जब इंडिया टुडे की टीम बुधवार 4 जुलाई की दोपहर को हालात का जायजा लेने पहुंची तो उस वक्त पुलिस और ग्रामीणों के बीच भिड़ंत हो रही थी. दोनों तरफ से ईंट, पत्थर और लाठियां बरस रही थीं. सैकड़ों लोगों की गुस्साई भीड़ ने मिनटों में हफ्ते भर पहले बनाई गई चारदीवारी के एक बड़े हिस्से को ढहा दिया. इस गर्मागर्मी वाले माहौल के बीच रांची के एसपी (ग्रामीण) असीम विक्रांत मिंज का सिर रोड़ेबाजी में जैसे ही फटा, गुस्साई पुलिस ने दर्जनों प्रदर्शनकारियों की हड्डियां चटखा दीं.
सविता तकरीबन 100 हमउम्र लड़कियों का नेतृत्व कर रही थी. वह कहती है, ''हम हरगिज अपनी जमीन नहीं देंगे. मेरे पिता किसान हैं. मेरे दो छोटे-छोटे भाई हैं. वे लोग कहां जाएंगे.'' सविता के लिए यह आंदोलन भले ही एक रोमांचकारी आनंद का कारण हो लेकिन बाकी सब सहमे हुए हैं. वह अपनी जमीन को बचाने की आखिरी कानूनी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट में हार चुके हैं.
ग्रामीणों की एसएलपी को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि अधिग्रहण का यह मामला काफी पुराना है और याचिकाकर्ता ने अपील करने में काफी देर कर दी. रांची जिला प्रशासन ने तत्कालीन बिहार सरकार के आदेश से 1957-58 के दौरान तकरीबन 153 भूमि मालिकों से यह जमीन बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के सीड्स फार्म की स्थापना के लिए अधिग्रहीत की थी. सिर्फ 25 रैयतों ने पैसे हासिल किए. आज भी रांची के ट्रेजरी में उन लोगों के नाम से 1,33,732 रु. जमा हैं जिन्होंने अपनी जमीन देने से इनकार कर दिया था. उस समय भी प्रशासन को जमीन पर कब्जा जमाने में काफी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था. तब से लेकर ग्रामीण इस जमीन को जोत रहे थे.
जब 2010 में आइआइएम और विधि विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए इस जमीन को चुना गया तो एकाएक भूमि अधिग्रहण का मामला तूल पकड़ने लगा. रांची के उपायुक्त विनय कुमार चौबे कहते हैं, ''हम स्थिति पर लगातार नजर बनाए हुए हैं. यह कहना गलत है कि सरकार किसी से जमीन छीन रही है.
1957-58 में कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करते हुए इस जमीन का अधिग्रहण किया गया था. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद किसी के मन में संशय नहीं रहना चाहिए. अगर यह अधिग्रहण गलत होता तो कोर्ट ने इसे निरस्त कर दिया होता.''
इक्का-दुक्का लोग ही हैं जो अपनी जमीन देने के लिए तैयार दिखते हैं लेकिन 1957-58 की दर पर तो कतई नहीं. किसान शंकर ओरांव कहते हैं, ''सरकार कहती है कि ट्रेजरी में रखे पैसे ले लो. मैं हाकिमों से कहता हूं कि वे इन पैसों से दो दिन अपना घर चला कर दिखाएं.'' 1957-58 में अधिग्रहण के दौरान एक डिसमिल जमीन की कीमत सरकारी तौर पर 27 रु. थी. इस हिसाब से उन्हें पुरानी दर पर 227 एकड़ के लिए महज 1,55,147 रु. मिलेंगे जबकि आज के हिसाब से मुआवजे के तौर पर यह राशि कई सौ करोड़ के आंकड़े को पार करती है. वे इसी तर्क को लेकर कोर्ट गए थे.
नेताओं पर से उनका विश्वास पूरी तरह से उठ चुका है. हालांकि लोगों में एक उम्मीद अब भी बाकी है-बिहार भूमि सुधार ऐक्ट-1950. यह कहता है कि जिस उद्देश्य से भूमि का अधिग्रहण किया गया हो अगर अधिग्रहण से 50 साल के भीतर उस भूमि का इस्तेमाल उस उद्देश्य के लिए न किया जाए तो वह भूमि असली मालिकों को वापस चली जाएगी. यही एक उम्मीद है, लेकिन यह लड़ाई लंबी चलने वाली है.