दो अप्रैल, 2025 को लोकसभा में वक्फ बिल पर बहस जारी थी. जदयू सांसद ललन सिंह विपक्षी पार्टियों पर तंज कसते हुए कह रहे थे, “देश की जनता मोदी जी को पसंद करती है, इसलिए मोदी जी ने आपके पाप को, आपके चंगुल से, उस गिरोह से निकाल कर आम मुसलमानों की तरफ फेंक दिया है. यह आपको क्यों खराब लग रहा है ”
हालांकि ठीक उसी वक्त बिहार की राजधानी पटना में शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन अफजल अब्बास जो जदयू के सदस्य भी हैं, अपनी कुर्सी पर बैठे बेचैन हो रहे थे. पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा, “दिक्कत उनको नहीं, दिक्कत हमें होगी. आगे चुनाव है. मुसलमानों के बीच तो हमें ही भेजा जाएगा. इन हालात में हम राज्य के मुसलमानों के सवालों का सामना कैसे करेंगे.” उनकी यह बेचैनी जदयू के कई मुसलमान नेताओं के भीतर दिख रही है.
इसी वजह से मझोले दर्जे के कई मुसलमान नेता खबर लिखे जाने तक इस्तीफा दे चुके हैं. इनमें पूर्वी चंपारण के मोहम्मद कासिम अंसारी हैं, तो युवा जदयू के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष डॉ. तबरेज हसन और अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के प्रदेश सचिव शहनवाज मलिक भी हैं. विधान परिषद सदस्य गुलाम गौस और पूर्व राज्यसभा सांसद गुलाम रसूल बलियावी वक्फ संशोधन बिल पर पार्टी के स्टैंड से नाइत्तेफाकी दिखाते हुए सार्वजनिक रूप से अपनी नाराजगी जाहिर कर चुके हैं. गुलाम रसूल बलियावी ने तो इस बिल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने तक की घोषणा की है.
इस मुद्दे पर सबसे पहले जदयू छोड़ने वाले कासिम अंसारी ने अपने इस्तीफे में लिखा है, “वक्फ बिल संशोधन अधिनियम 2024 पर जदयू के स्टैंड से हम जैसे पार्टी के मुसलमान कार्यकर्ताओं को गहरा आघात लगा है. लोकसभा में ललन सिंह ने जिस अंदाज से इस बिल का समर्थन किया उससे भी हम मर्माहत हैं.” इंडिया टुडे से बातचीत में वे कहते हैं, “सरकार पसमांदा के नाम पर बंटवारा कर रही है, जबकि ऐसा कोई मसला है ही नहीं. मैं खुद पसमांदा बिरादरी से आता हूं. हम लोगों ने अपनी बात को हर प्लेटफॉर्म पर रखा, मगर ऐसा लगता है कि माननीय मुख्यमंत्री अब अपने विवेक से फैसले नहीं ले पा रहे. उनके इर्द-गिर्द कुछ लोग हैं जो भाजपा के चंगुल में चले गए हैं, वही फैसले ले रहे हैं.”
वहीं कोचाधामन से विधायक रहे जदयू नेता मुजाहिद आलम पर उनके समर्थक और मतदाता पार्टी से इस्तीफा देने का दबाव बना रहे हैं. वे कहते हैं, “मुसलमानों के भीतर गहरी नाराजगी है, हमारे लिए दबाव झेलना मुश्किल हो रहा है.” गुलाम गौस और गुलाम रसूल बलियावी जैसे बड़े मुसलमान नेताओं ने तो अब तक पार्टी से इस्तीफा नहीं दिया है, मगर वे सार्वजनिक मंच पर अपनी नाराजगी लगातार जता रहे हैं. पूर्व राज्यसभा सांसद और पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव गुलाम रसूल बलियावी ने सोशल मीडिया पर वीडियो जारी कर इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की घोषणा की है. वे एक मुस्लिम संगठन इदार-ए-शरीया के प्रमुख भी हैं.
वहीं विधान पार्षद गुलाम गौस कहते हैं, “यह बिल संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 25 और 26 के खिलाफ है. इस देश में कभी सीएए, कभी तीन तलाक, कभी मॉब लिंचिंग, कभी धारा 370 हटाने जैसे प्रयोगों से मुसलमानों को निशाने पर लिया जाता रहा है. अगर सरकार को पसमांदा मुसलमानों की इतनी चिंता है तो सच्चर कमीशन और रंगनाथ कमिटी की रिपोर्ट लागू क्यों नहीं करते.” इसके आगे उनका यह भी कहना है, “सरकार कृषि कानून की तरह इस बिल को भी जनहित में वापस ले ले और मुस्लिम समाज को आंदोलन की भट्ठी में न झोंके. राष्ट्रपति जी से भी अनुरोध है कि इसे वापस करें.”
जदयू के इन नेताओं के बयान से जाहिर है कि इस फैसले के बाद पार्टी के मुसलमान कार्यकर्ताओं में भारी नाराजगी और दुविधा का माहौल है. कासिम अंसारी कहते हैं, “आने वाले दिनों में मुसलमान बड़ी संख्या में अगर जदयू से इस्तीफा दें तो इसमें हैरत नहीं होनी चाहिए.”
अब तक नीतीश कुमार को मुसलमानों का साथ मिलता रहा है
यह सच है कि जदयू अपनी स्थापना के वक्त से ही उस एनडीए का हिस्सा रही है, जिसका नेतृत्व बीजेपी करती आई है. मगर साथ ही यह भी सच है कि नीतीश कुमार के प्रति बिहार के मुसलमानों के मन में सद्भावना रही है, कई इलाकों में वे जदयू को वोट देते और जिताते भी रहे हैं. एनडीए में रहते हुए भी नीतीश कुमार अब तक ऐसा संतुलन बना पाए हैं जिससे उन्हें मुसलमानों की नाराजगी कम झेलनी पड़ी. इसकी कई वजहें मानी जाती है.
नीतीश हमेशा कहते हैं कि वे क्राइम, करप्शन और कम्युनलिज्म से समझौता नहीं कर सकते. सांप्रदायिकता के मसले पर इसे वे साबित भी करते नजर आए. उन्होंने राज्य में दंगे होने से रोके और अगर कभी दंगे हो भी गए तो ज्यादातर मामलों में प्रशासन ने निष्पक्ष बर्ताव किया. इसे मुसलमान समुदाय नोटिस भी करता है और इसकी सराहना भी करता रहा है. वहीं बिहार में अपनी राजनीति की शुरुआत से ही वे मुसलमानों के बीच पिछड़ों, जिन्हें पसमांदा भी कहा जाता है, को आगे बढ़ाने का काम करते रहे हैं. उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की और कई योजनाएं लागू कीं. इसके साथ ही वक्फ बिल के मसले पर आज उनका रुख भले ही मुसलमानों को नाराज कर रहा है, मगर राज्य के आठ हजार से अधिक कब्रिस्तानों की घेराबंदी कर उन्होंने एक तरह से वक्फ की संपत्ति की सुरक्षा ही की है.
फरवरी, 2005 में जब बिहार में एनडीए चुनाव नहीं जीत पाया था तो नीतीश कुमार ने पिछड़ों के बीच अति पिछड़ा और मुसलमानों के बीच पसमांदा वर्ग को साथ लेने का निश्चय किया था. बिहार में एक अरसे से पसमांदा मुसलमानों के हक के लिए संघर्ष करने वाले अली अनवर कहते हैं, “2005 में हमने पसमांदा के मसले पर पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में बड़ा सम्मेलन किया था तो उस वक्त के तीन बड़े नेता लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार को आमंत्रित किया था. तबीयत खराब होने के कारण रामविलास पासवान आ नहीं पाए. लालूजी आए, मगर वे हमारे मुद्दे को आगे नहीं बढ़ा सके. तब नीतीश कुमार ने संसद में पसमांदा के सवाल को उठाया.”
अनवर अली आगे यह भी बताते हैं कि उस वक्त नीतीश एनडीए के साथ थे. उनका संसद में भी विरोध हुआ, भाजपा संसदीय दल के नेता विजय कुमार मलहोत्रा से उनकी तू-तू, मैं-मैं हो गई. भाजपा नेताओं ने उन्हें भी तुष्टिकरण करने वाला नेता बताया. अगले हफ्ते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पत्रिका पांचजन्य ने भी नीतीश के खिलाफ स्टोरी छापी. मगर वे पसमांदा के मुद्दे पर मजबूती से खड़े रहे और इस तबके ने भी उनका भरपूर साथ दिया.
अक्तूबर, 2005 के चुनाव के वक्त नीतीश कुमार ने अली अनवर को हेलीकॉप्टर से पूरे बिहार घुमाया. अली अनवर कहते हैं, “इसकी वजह से उस चुनाव में नीतीश जी को भाजपा के साथ रहने के बावजूद मुसलमानों का दस फीसदी वोट मिल गया था, जो उनके जीत की बड़ी वजह बनी. नीतीश ने वादा भी निभाया, उन्होंने पसमांदा मुसलमानों को अतिपिछड़ा श्रेणी में शामिल कर आरक्षण दिया.” नीतीश कुमार ने पांच मुस्लिम नेताओं को राज्यसभा भेजा. इनमें चार- अली अनवर, एजाज अली, साबिर अली और कहकशां परवीन पसमांदा समुदाय से आते हैं. पांचवे गुलाम रसूल बलियावी उच्च वर्ग के मुसलमान हैं.
2005 से 2014 तक भाजपा के साथ रहने के बावजूद नीतीश अपनी शर्तों पर काम करते रहे. उन्होंने सरकार चलाने के लिए एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम तैयार करवाया था, जिसमें मुसलमानों से जुड़े संवेदनशील मुद्दों से परहेज करने की बात थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में जब नरेंद्र मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया तो वे एनडीए से अलग हो गये और वह चुनाव जदयू ने अकेले लड़ा. हारने पर उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया. 2015 में उन्होंने विधानसभा का चुनाव राजद के साथ लड़ा और जीते. इन सबकी वजह यह थी कि उन्हें लगता था भाजपा में नरेंद्र मोदी के आगे बढ़ने से वे मुसलमानों के हित की रक्षा नहीं कर पाएंगे.
अली अनवर कहते हैं, “वे अलग नीतीश कुमार थे इसलिए हमलोग भी उनके साथ थे. 2005 में उन्होंने हमें कहा था, हम कम्युनल आदमी नहीं हैं. हमारा साथ दीजिए, हम इस (भाजपा) की वैशाखी से मुक्त होना चाहते हैं. 2010 में वे कुछ हद तक मजबूत हुए भी. मगर 2017 में जब वे फिर से भाजपा और नरेंद्र मोदी की शरण में चले गए तो मैंने पार्टी छोड़ दी. ” जदयू से अलग होने के बाद अली अनवर काफी दिनों तक स्वतंत्र रूप से पसमांदा के मुद्दों पर संघर्ष करते रहे और अब इस साल उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया है.
मुसलमानों के नीतीश कुमार से मोहभंग की शुरुआत
2017 के बाद जब नीतीश कुमार सांप्रदायिकता के मुद्दे पर बेबस नजर आने लगे तो मुसलमान भी उनसे छिटकने लगे. 2020 के विधानसभा चुनाव में जदयू ने 11 मुसलमानों को टिकट दिया था, मगर सभी चुनाव हार गए. तब बसपा से जीते जमा खान को पार्टी में शामिल कराकर उन्होंने मंत्री बनाया. वे बिहार मंत्रिमंडल के इकलौते मुस्लिम सदस्य हैं.
इस बीच पार्टी में यह भी कहा जाने लगा कि जब मुसलमान नीतीश कुमार और जदयू को वोट ही नहीं करते तो वे क्यों मुसलमानों की परवाह करें. 25 नवंबर, 2024 को जदयू नेता ललन सिंह ने कहा, “अल्पसंख्यक समुदाय के लोग नीतीश कुमार को वोट नहीं देते, फिर भी नीतीश कुमार सबकी भलाई का काम करते हैं.” वहीं लोकसभा चुनाव के बाद सीतामढ़ी सीट से जीते जदयू नेता देवेश चंद्र ठाकुर ने कहा था कि इस चुनाव में यादव और मुसलमानों ने उन्हें वोट नहीं किया इसलिए वे उनका काम नहीं करेंगे.
विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के निदेशक और बिहार की राजनीति पर 'पोस्ट मंडल पॉलिटिक्स इन बिहार' के नाम से किताब लिखने वाले संजय कुमार मुसलमानों के जदयू से जुड़ने और दूर होने की बात पर कहते हैं, “यह भ्रम है कि नीतीश कुमार को मुस्लिम मतदाताओं का वोट मिलता रहा है. जदयू को मुसलमानों का वोट तभी मिला जब उसने राजद के साथ चुनाव लड़ा. यह अलग बात है कि मुसलमानों के बीच नीतीश कुमार को लेकर वैसी नाराजगी नहीं है, जैसी भाजपा को लेकर है. मगर वोट देते वक्त वे जदयू से भी परहेज करते हैं.”
इस आधार पर कई जानकार यह भी कहते हैं कि नीतीश कुमार और जदयू अब यह मानकर चल रहे हैं कि अगर मुसलमान उन्हें वोट नहीं करते तो वे उनकी परवाह क्यों करें? मगर जदयू और नीतीश कुमार के रुख में ऐसी बात नजर नहीं आती. फरवरी, 2025 के आखिर में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भागलपुर आए थे तब नीतीश कुमार ने उनकी सभा में आरोप लगाया था कि पहले की सरकारें मुसलमानों से वोट लेती रहीं मगर दंगों को रोक नहीं पाईं. जबकि उनके शासन काल में कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ. बाद के दिनों में भी नीतीश कुमार और उनकी पार्टी अपनी सरकार में मुसलमानों के लिए किये गए कामों गिनाते रहे हैं. खास तौर पर वे कब्रिस्तानों की घेराबंदी का जिक्र जरूर करते हैं.
जदयू के कार्यकारी अध्यक्ष संजय कुमार झा ने हाल ही में एक्स पर लिखा है, “वक्फ बिल के पास होने से पसमांदा मुस्लिम समाज में खुशी की लहर है. यह विधेयक गरीब और अतिपिछड़े मुसलमानों के व्यापक हित में है, जिनकी आबादी करीब दो तिहाई है. हमारे नेता नीतीश कुमार जी का 'न्याय के साथ विकास' का पिछले दो दशकों का शानदार ट्रैक रिकार्ड है. उन्होंने प्रदेश में हजारों कब्रिस्तानों की घेराबंदी कराई है. उनके शासनकाल में बिहार में एक दिन भी कर्फ्यू लगाने की नौबत नहीं आई...”
हालांकि इन स्पष्टीकरणों के बावजूद क्या मुसलमान समुदाय अब भी नीतीश के प्रति नरमी दिखाएगा, यह बड़ा सवाल है. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के पूर्व प्रोफेसर पुष्पेंद्र कहते हैं, “नीतीश कुमार दोनों धड़ों के बीच एक बफर का काम करते थे. मगर हाल के दिनों में इस स्थिति में बड़ा बदलाव आया है. लोगों को हैरत हो रही है कि वे इस हद तक चले जाएंगे कि वे वक्फ बोर्ड के मसले पर भी चुप्पी साध लेंगे. अब बिहार में भाजपा और जदयू में कोई खास फर्क नहीं है. एक तरह से यह स्वीकारोक्ति है कि नीतीश कुमार अब खुद को एनडीए में जूनियर पार्टनर मान चुके हैं. अब तक नीतीश कुमार के पक्ष में अति पिछड़ा के साथ पसमांदा वोटरों का भी एक हिस्सा रहता था. अब अगर वह हट जाता है तो वे और कमजोर होंगे. पिछले चुनाव में जो काम चिराग पासवान की पार्टी ने किया, वह इस बार वक्फ के जरिये बीजेपी करने जा रही है.”