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बाल ठाकरे की राजनीतिक प्रयोगशाला औरंगाबाद से कैसे गायब हुई शिवसेना (यूबीटी)?

एक जमाने में बाल ठाकरे ने अपने चुनावी प्रयोगों से औरंगाबाद यानी छत्रपति संभाजीनगर को शिवसेना का अभेद्य गढ़ बना दिया था लेकिन अब उनके बेटे उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली शिवसेना (यूबीटी) आपसी गुटबाजी का शिकार बन सफाए के कगार पर है

उद्धव ठाकरे (फाइल फोटो)
उद्धव ठाकरे (फाइल फोटो)
अपडेटेड 17 अप्रैल , 2025

शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) के लिए मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं. कभी औरंगाबाद (छत्रपति संभाजीनगर) में अजेय मानी जाने वाली पार्टी अब अपने ही घर में घमासान से जूझ रही है.

वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद चंद्रकांत खैरे और राज्य विधान परिषद में विपक्ष के नेता अंबादास दानवे के बीच खुली जंग छिड़ गई है. यह टकराव उस पार्टी के लिए तगड़ा झटका है, जो पहले ही नेताओं के पाला बदलने और चुनावी हार के बोझ तले दबी है.

खैरे और दानवे के बीच तल्खी कोई नई बात नहीं लेकिन इस बार मामला तब गरमाया, जब 13 अप्रैल को छत्रपति संभाजीनगर में हुए एक पार्टी कार्यक्रम में खैरे को कथित तौर पर न्योता नहीं भेजा गया. खैरे ने इसका ठीकरा दानवे पर फोड़ा और 2019 व 2024 के लोकसभा चुनाव में अपनी हार का जिम्मेदार भी उन्हें ठहराया. उनका आरोप है कि दानवे ने विपक्षी शिवसेना के संदीपन भुमरे, जो 2024 में औरंगाबाद से जीते, के साथ गुपचुप सौदा किया. खैरे ने यह भी तंज कसा कि विपक्ष के नेता होने के बावजूद दानवे महायुति सरकार के खिलाफ नरम रुख रखते हैं.

दानवे ने सफाई दी कि उन्होंने न्योते में खैरे को ‘मार्गदर्शक’ के तौर पर उल्लेख किया था, लेकिन खैरे उस दिन अपनी जाति से जुड़े एक कार्यक्रम के लिए नागपुर चले गए. दानवे ने पूछा, "अगर वह नहीं आए, तो मैं क्या करूं?" और साथ ही पलटवार करते हुए कहा कि खैरे पहले भी उनकी आलोचना कर चुके हैं.

खैरे ने दानवे के दावे को खारिज किया और कहा कि उन्हें कोई न्योता मिला ही नहीं. उन्होंने दानवे पर घमंड का आरोप लगाया. खैरे ने तल्खी से कहा, "मैंने शिवसेना को बढ़ाया, वह बाद में आए और अब झगड़ा पैदा कर रहे हैं." उन्होंने चेतावनी दी कि वह पार्टी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे से दानवे की शिकायत करेंगे और कई नेताओं व कार्यकर्ताओं के पार्टी छोड़ने का जिम्मेदार भी उन्हें ठहराया.

15 अप्रैल को खैरे ने उद्धव से मुलाकात की और बाद में कहा कि वह और दानवे मिलकर काम करेंगे. लेकिन नेतृत्व की नाराजगी को दबाने की कोशिशों के बावजूद यह सुलह अभी नाजुक दिख रही है.

शिवसेना (यूबीटी) का अपने पुराने गढ़ छत्रपति संभाजीनगर के सियासी नक्शे से लगभग सफाया हो चुका है. बीजेपी और उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने यहां की सभी छह सीटों पर कब्जा जमा लिया.

औरंगाबाद में शिवसेना की जड़ें

1980 के दशक के आखिर से बालासाहेब की शिवसेना ने औरंगाबाद और व्यापक मराठवाडा क्षेत्र में ऐतिहासिक और जातिगत टकरावों को भुनाकर अपनी पैठ बनाई. 1985 में बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) चुनाव में जीत के बाद, शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने देश और राज्य में बढ़ते सांप्रदायिक तनाव के बीच खुद को ‘हिंदू हृदय सम्राट’ के रूप में स्थापित किया. 1987 में उन्होंने मुंबई की विले पार्ले विधानसभा उपचुनाव में हिंदुत्व के लिए खुलकर वोट मांगे, जिसमें डॉ. रमेश प्रभु जीते.

अगले साल, ठाकरे ने सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील मराठवाडा का दौरा किया. 1988 में औरंगाबाद के नगर निगम चुनाव में शिवसेना ने 60 में से 27 सीटें जीतीं. खैरे उन्हीं जीती हुई सीटों में से एक से पार्षद बने थे. 1989 में लोकसभा चुनाव में शिवसेना ने चार सीटें जीतीं, जिनमें मराठवाडा से दो उम्मीदवार शामिल थे - मोरेश्वर सावे (औरंगाबाद) और अशोक देशमुख (परभणी). मराठवाडा तब से शिवसेना का गढ़ रहा है.

1988 में ठाकरे ने औरंगाबाद के मराठवाडा सांस्कृतिक मंडल मैदान में एक सभा को संबोधित किया और मांग की कि शहर का नाम छत्रपति संभाजी महाराज के नाम पर रखा जाए, जिन्हें 1689 में औरंगजेब की सेना ने मार दिया था. इस मुगल बादशाह की मृत्यु 1707 में हुई, इसका मकबरा शहर के पास खुल्ताबाद में है. औरंगजेब के नाम पर ही शहर का नाम औरंगाबाद पड़ा. उद्धव के नेतृत्व वाली महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार का आखिरी बड़ा फैसला था औरंगाबाद का नाम संभाजीनगर करना. लेकिन एकनाथ शिंदे सरकार ने इसे बढ़ाकर ‘छत्रपति संभाजीनगर’ कर दिया.

सांप्रदायिक तनाव और सियासत

बालासाहेब की शिवसेना ने मराठवाडा में हिंदू-मुस्लिम तनाव को भुनाया. यह क्षेत्र कभी हैदराबाद के निजाम के अधीन था. आजादी से पहले के सालों में निजाम समर्थित निजी मिलिशिया रजाकारों ने हिंदुओं के खिलाफ आतंक मचाया. 1948 में भारतीय सेना की ओर से हैदराबाद की मुक्ति के बाद मुस्लिमों के खिलाफ बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा हुई. पंडित सुंदरलाल की अगुआई वाली एक मिश्रित समिति ने अनुमान लगाया कि इस हिंसा में 30,000 से 40,000 लोग मारे गए. इस हिंसा की पीढ़ीगत यादें मराठवाडा में हिंदू और मुस्लिम दक्षिणपंथी सियासत को हवा देती रही हैं.

1980 के दशक तक मुंबई और आसपास तक सीमित शिवसेना ने मराठवाडा में जड़ें जमाईं. 1980 के दशक के आखिर से शिवसेना की बढ़त का कारण था अल्पसंख्यकों के खिलाफ उसकी उकसावे वाली बयानबाजी और दोनों समुदायों के बीच तनाव. मराठवाडा में शिवसेना का नारा था—'खान हवा कि बाण हवा?' यानी 'खान चाहिए या शिवसेना का धनुष-बाण?'

इसी तरह, शिवसेना ने ‘नामांतर आंदोलन’ (1978-1994) का विरोध किया, जो औरंगाबाद विश्वविद्यालय का नाम डॉ. बी.आर. आंबेडकर के नाम पर करने की मांग करता था. इससे पार्टी बौद्ध दलितों और आंबेडकरवादियों के खिलाफ नजर आने लगी. इस कदम ने मराठा और ओबीसी समुदायों में शिवसेना की पैठ बढ़ाई. लेकिन अब यह पुराना टकराव उलट गया है, क्योंकि मुस्लिम और दलित एमवीए और शिवसेना (यूबीटी) के साथ आ गए हैं.

खैरे और दानवे: दो अलग ध्रुव

शिवसेना 1989 से औरंगाबाद लोकसभा सीट जीतती रही, सिवाय 1998 में जब कांग्रेस जीती. खैरे, जो 1999 से 2019 तक चार बार सांसद रहे, महाराष्ट्र में शिवसेना-बीजेपी सरकार में मंत्री भी थे. लेकिन 2019 में उन्हें ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के इम्तियाज जलील ने हराया. शिवसेना के इस बागी नेता ने मराठा वोटों को बांटकर खैरे की राह मुश्किल की. 2024 में खैरे तीसरे स्थान पर खिसक गए, जब संदीपनराव भुमरे (शिंदे शिवसेना) और जलील से उन्हें हार मिली. खैरे, जो बुरुड समुदाय से हिंदू दलित हैं, मराठा वोटों के बंटवारे से प्रभावित हुए.

दूसरी तरफ, दानवे की जड़ें संघ परिवार में हैं. औरंगाबाद में उनकी मजबूत पकड़ है. वे एकनाथराव दानवे के चार बेटों में से एक हैं, जो महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम में काम करते थे. दानवे ने युवावस्था में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), बीजेपी और भारतीय जनता युवा मोर्चा (बीजेवाईएम) के साथ काम किया. दानवे परिवार फुलंब्री तालुका के जटेगांव से है, लेकिन बाद में यह औरंगाबाद शहर के बाहरी इलाके कर्णपुरा में बस गया.

1998 में बीजेपी में गुटबाजी के चलते दानवे को जयसिंगराव गायकवाड पाटिल का गुस्सा झेलना पड़ा, जो प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे के करीबी थे. दानवे पहले गायकवाड पाटिल के साथ थे, फिर बीजेपी के दिग्गज हरिभाऊ बागड़े के करीब आए, जो बाद में महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर और अब राजस्थान के गवर्नर हैं. आखिरकार, दानवे को बीजेपी से निकाल दिया गया. छह महीने इंतजार के बाद भी जब उन्हें वापस नहीं लिया गया, तो उन्होंने शिवसेना का दामन थाम लिया.

2000 में दानवे ने औरंगाबाद नगर निगम चुनाव शिवसेना के टिकट पर अजबनगर से जीता. उन्हें सदन का नेता बनाया गया, लेकिन पार्टी के भीतर टकराव के चलते इस्तीफा देना पड़ा. फिर भी, वे पार्टी में बने रहे और जिला प्रमुख बने. उन्होंने औरंगाबाद-जालना विधान परिषद सीट से कांग्रेस के बाबूराव कुलकर्णी को हराया. मराठा समुदाय से आने वाले दानवे को 2019 और 2024 के लोकसभा चुनाव में पार्टी उम्मीदवारी का दावेदार माना गया, लेकिन खैरे ने बाजी मार ली. 2022 में एकनाथ शिंदे की बगावत के बाद दानवे को विधान परिषद में विपक्ष का नेता बनाया गया.

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