पश्चिम बंगाल में अगले एक साल के दौरान हिंदुओं के 300 से ज्यादा धार्मिक आयोजन होने वाले हैं. इन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना के सौ साल पूरे होने का जश्न बताया जा रहा है. लेकिन सियासी जानकार इनमें भगवा खेमे की उस रणनीति को देख रहे हैं, जो वोटरों को धार्मिक आधार पर बांट सकती है.
2026 में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले बंगाल का सियासी पारा पहले ही गरम होने लगा है. इन आयोजनों को और वजनदार बनाता है कुछ बड़े हिंदू धार्मिक नेताओं की भागीदारी, जिनमें से कई विवादों में आते रहे हैं. मध्य प्रदेश के बागेश्वर धाम के प्रमुख धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री का नाम इनमें सबसे आगे है, जिनके प्रवचनों पर बहुसंख्यकवादी रंग चढ़ने के आरोप लगते रहे हैं.
बीजेपी सूत्रों के मुताबिक, शास्त्री जल्द ही बशीरहाट लोकसभा क्षेत्र का दौरा कर सकते हैं. बशीरहाट, जहां मुस्लिम आबादी का दबदबा है और तृणमूल कांग्रेस (TMC) सातों विधानसभा सीटों पर काबिज है, 2024 के लोकसभा चुनाव में चर्चा में रहा. यहां संदेशखाली में टीएमसी के एक दबंग नेता और उसके गुट की कथित गुंडागर्दी ने सियासी तूफान खड़ा किया था.
एक और बड़ा नाम है जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य (गिरीधर मिश्र) का है. नेत्रहीन संत रामभद्राचार्य राम जन्मभूमि के कानूनी लड़ाई में अपनी भूमिका के लिए जाने जाते हैं. सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील इलाकों में उनकी मौजूदगी का प्रतीकात्मक महत्व कम नहीं.
इसके अलावा, भारत सेवाश्रम संघ के कार्तिक महाराज (स्वामी प्रदीप्तानंद) भी इन आयोजनों में शिरकत करेंगे. हिंदुत्व से जुड़े इस आध्यात्मिक संगठन के कार्तिक महाराज का मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और TMC से छत्तीस का आंकड़ा जगजाहिर है. हाल ही में उन्हें पद्म श्री से नवाजा गया है.
बीजेपी नेता इस अभियान के पैमाने और मकसद पर चुप्पी साधे हैं, लेकिन RSS और इसके सहयोगी विश्व हिंदू परिषद (VHP) के सूत्रों ने पुष्टि की है कि तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं. इन आयोजनों को ‘हिंदू जागरण उत्सव’ का नाम दिया गया है. छोटी स्थानीय सभाओं से लेकर बड़े समागम तक, इनका मकसद कथित तौर पर बंगाल में धार्मिक भावनाओं को एकजुट करना है, जहां अस्मिता की सियासत ने गहरी जड़ें जमा ली हैं.
वीएचपी के पूर्वी क्षेत्र सचिव अमिया सरकार कहते हैं, "मुर्शिदाबाद घटना (वक्फ कानून विरोध) के बाद हिंदू एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं." उन्होंने दावा किया कि VHP सीधे आयोजन नहीं कर रही, लेकिन कई हिंदू धार्मिक नेता उनके संपर्क में हैं. उन्होंने कहा, "उत्तर बंगाल के नागा साधु हमारे साथ हैं. वे एक धार्मिक आयोजन के लिए समर्थन चाहते हैं."
बड़ी मुस्लिम आबादी वाले मुर्शिदाबाद में छिटपुट हिंसा और सियासी बयानबाजी ने हिंदू-मुस्लिम एकता की विरासत को चुनौती दी है. ऐसे में इतने बड़े पैमाने पर धार्मिक आयोजनों का समय सिर्फ भक्ति से प्रेरित नहीं माना जा रहा.
आरएसएस के दक्षिण बंगाल चैप्टर के प्रचार प्रमुख बिप्लब रॉय ने पुष्टि की कि बंगाल में शताब्दी समारोह सितंबर में महालया से शुरू होंगे, जबकि देश के बाकी हिस्सों में ये विजयादशमी से शुरू होंगे. बता दें कि 1925 में RSS की स्थापना विजयादशमी के दिन ही हुई थी. बिप्लब रॉय ने कहा, "ऐसे आयोजन पूरे भारत में होंगे, लेकिन बंगाल में हम महालया से शुरुआत करेंगे."
इन धार्मिक समागमों को सांस्कृतिक पुनर्जागरण या आध्यात्मिक उत्सव के तौर पर पेश किया जा रहा है, लेकिन बंगाल का माहौल कुछ और कहानी कहता है. यहां उत्तर भारत की तरह खुली सांप्रदायिक खाई दिखने लगी है और हिंदू-मुस्लिम टकराव के मौके बढ़ रहे हैं.
2026 के विधानसभा चुनाव से पहले RSS की शताब्दी का जश्न इसलिए खासा ताकतवर है, क्योंकि इसके पीछे हिंदू वोटरों को एकजुट करने की मंशा साफ झलकती है. बीजेपी अपने पारंपरिक गढ़ों से बाहर पैर पसारने की कोशिश में है. वहीं, TMC—2021 के विधानसभा और पिछले साल के लोकसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन के बावजूद—सत्ता विरोधी लहर और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोपों से जूझ रही है. ऐसे में अस्मिता (पढ़ें धर्म) आधारित सियासत का मंच तैयार है.
आलोचकों का कहना है कि RSS और इसके सहयोगी सिर्फ शताब्दी नहीं मना रहे, बल्कि हिंदू वोट बैंक को 'जगाने" की मनोवैज्ञानिक मुहिम चला रहे हैं. धार्मिक आयोजनों, संतों के प्रवचनों और आध्यात्मिक प्रतीकों के जरिए यह रणनीति संवैधानिक पाबंदियों को चकमा देते हुए लेकिन सांप्रदायिक तनाव की आग में पंखा झलने का काम करती है.
एक स्वतंत्र राजनीतिक विश्लेषक नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, "RSS शताब्दी के बहाने हिंदुत्व को अगले साल के चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाने की तैयारी में है. यह सब साफ दिख रहा है."
भले ही ऐसे आयोजन पूरे भारत में हो रहे हों, बंगाल में इनका असर खासा जटिल है. यहां चुनावी फायदा सिर्फ हिंदू वोटरों को एकजुट करने से नहीं, बल्कि विपक्ष के धर्मनिरपेक्ष मंच को तोड़ने से भी मिलेगा. जब धार्मिक आयोजन सियासी इंजीनियरिंग का हथियार बनते हैं, तो भक्ति और बंटवारे की रेखा धुंधली हो जाती है.
जैसे-जैसे बंगाल एक और हाई-वोल्टेज सियासी दौर में कदम रख रहा है, असली इम्तिहान यह होगा कि क्या सिविल सोसाइटी, विपक्षी दल और धर्मनिरपेक्ष संस्थाएं इस धार्मिक हथियारबंदी का मुकाबला कर पाएंगी, या भगवा लबादे में लिपटा प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता का नया दौर शुरू होने वाला है.