राहुल गांधी ने 7 अप्रैल को पटना में जब 50 फीसदी आरक्षण की 'नकली दीवार' ढहाने का अपना संकल्प दोहराया, तो उनका उद्देश्य न केवल सामाजिक गलियारों में अपनी बात को पहुंचाना था, बल्कि एक नैरेटिव गढ़ना भी था, जो चुनावी राज्य बिहार में कुछ प्रभाव पैदा कर सके.
जाहिर है कि इसके पीछे बिहार के वंचित और हाशिए पर पड़े लोगों की बहुसंख्यक आबादी है जिसमें ओबीसी, अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी), मुस्लिम और दलित शामिल हैं. इस दौरान राहुल ने कहा, "मैंने लोकसभा में प्रधानमंत्री से कहा था कि अगर आप 50 फीसदी आरक्षण की नकली दीवार को नहीं हटाएंगे तो हम इसे गिरा देंगे."
बिहार के बेगूसराय में 'पलायन रोको, नौकरी दो' यात्रा के जोश के बीच, पलायन रोकने और रोजगार सृजन की गंभीर अपीलों से भरी यात्रा में, राहुल की मौजूदगी बयानबाजी और दृढ़ संकल्प दोनों में दमदार थी. बाद में पटना में आयोजित 'संविधान बचाओ' सभा में, जो पिछले कुछ महीनों में बिहार में उनका तीसरा दौरा था, उन्होंने एक बार फिर 50 फीसदी आरक्षण सीमा को हटाने की मांग की. इससे पता चलता है कि कांग्रेस ने आरक्षण को पार्टी का मुख्य एजेंडा बना लिया है.
कांग्रेस के इस मुद्दे को आगे बढ़ाने की टाइमिंग काफी सटीक है. बिहार के मतदाताओं में 18-29 आयु वर्ग के युवा मतदाता 22.14 फीसदी हैं, जिनकी कुल संख्या 2.8 करोड़ से ज़्यादा है. आर्थिक स्थिरता और तरक्की की चाहत रखने वाले इस जनसांख्यिकीय समूह ने अक्सर चुनावी नतीजों को प्रभावित किया है. 2020 में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव के 10 लाख सरकारी नौकरियां पैदा करने के अतिमहत्वाकांक्षी वादे ने इस वर्ग को काफ़ी प्रभावित किया था, जिससे उनकी पार्टी के विधानसभा चुनाव प्रदर्शन में बड़ी चमक दिखी.
कांग्रेस ने भी बिहार के युवाओं की आकांक्षाओं को संबोधित करके इसे पहचाना है. चुनाव नजदीक आने के साथ ही इस निर्णायक जनसांख्यिकी के लिए प्रतिस्पर्धा तेज हो रही है, जिससे मतदाता की भावना को आकार देने में रोजगार एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है.
युवा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष ललन कुमार कहते हैं, "युवा हमेशा से कांग्रेस के फोकस के केंद्र में रहे हैं. बिहार जैसे राज्य में, जहां पलायन एक वास्तविक चुनौती है, राहुल गांधी का रोजगार और वंचित वर्गों के सशक्तिकरण का संदेश स्पष्ट रूप से युवा-केंद्रित है."
यह साफ दिखाई दे रहा है कि आने वाले विधानसभा चुनावों के साथ बिहार कांग्रेस की वरीयता में ऊपर आ गया है. फिलहाल कांग्रेस के पास राज्य से केवल तीन लोकसभा सांसद और 19 विधायक हैं लेकिन वह एक सुनियोजित चुनावी वापसी की उम्मीद कर रही है. कांग्रेस वंचित वर्गों के पक्ष में सिर्फ़ बातें ही नहीं कर रही, पार्टी ने कुछ काम करके भी दिखाया है. पिछले महीने कांग्रेस ने सवर्ण नेता अखिलेश प्रसाद सिंह को हटाकर दलित नेता राजेश कुमार को बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त किया. यह फ़ैसला चुनाव से महज़ सात महीने पहले लिया गया.
राजेश कुमार रविदास समुदाय से आते हैं, जो बिहार की 19.65 फीसदी अनुसूचित जाति की आबादी का 5.25 फीसदी है. वे पार्टी की तरफ से ओबीसी और ईबीसी के साथ-साथ दलितों को सशक्त बनाने पर नए सिरे से जोर देने का प्रतीक हैं. यह ऐसा एजेंडा है जिसका राहुल गांधी बढ़चढ़कर समर्थन कर रहे हैं.
इस राजनीतिक ड्रामा में आरक्षण सबसे प्रमुख मुद्दा है लेकिन विवादों से भी भरा हुआ है. इसके केंद्र में बिहार सरकार का नवंबर 2023 का फरमान है, जिसमें अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और ओबीसी के लिए सार्वजनिक रोजगार और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण को 50 फीसदी से बढ़ाकर 65 फीसदी करने का आदेश दिया गया था. यह कदम तब उठाया गया था जब राजद और कांग्रेस दोनों ही नीतीश कुमार की सरकार का हिस्सा थे.
हालांकि, जनवरी 2024 में राजनीतिक परिदृश्य तब बदल गया जब नीतीश ने अचानक राजद, कांग्रेस और वाम दलों से नाता तोड़ लिया और बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के साथ जाने का विकल्प चुना. लेकिन इसके बाद जून 2024 में पटना हाई कोर्ट ने 65 फीसदी का कोटा रद्द कर दिया. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया, जिससे आरक्षण की नई नीति अधर में लटक गई और नीतीश सरकार को गंभीर झटका लगा.
तो इस तनावपूर्ण घटनाक्रम के हवाले से आरक्षण की बाधा ख़त्म करने के लिए राहुल का जोरदार आह्वान उनके सहयोगी और राजद के प्रमुख तेजस्वी की ओर से पेश किए जा रहे नैरेटिव से मेल खाता दिखता है. तेजस्वी यादव संविधान की नौवीं अनुसूची में इस आरक्षण की नीति को ना डालने की वजह से बीजेपी की केंद्र सरकार और नीतीश सरकार, दोनों की आलोचना करते हैं. उनका मानना है कि ऐसा करने से इस नीति को अदालती दखल से बचाया जा सकता है. नौंवी अनुसूची के कानूनों पर पहले न्यायायिक समीक्षा नहीं होती थी हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि 1973 के बाद से कोई भी कानून जो नौंवी अनुसूची में डाला गया है, उसकी कानूनी समीक्षा की जा सकती है.
ऐसे राज्य में, जहां प्राइवेट सेक्टर की नौकरियां कम होने की वजह से सरकारी नौकरियों की अहमियत बेइंतिहा बढ़ जाती है, राहुल की टिप्पणी संख्याबल में भारी पड़ने वाले दलितों, ओबीसी और ईबीसी को उत्साहित करने के लिए तैयार की गई लगती है. उन्होंने कांग्रेस द्वारा हाल ही में किए गए उपायों का भी जिक्र किया, जिनमें बिहार में जिला कांग्रेस समितियों का पुनर्गठन शामिल है. कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल के स्पष्ट निर्देशों के अनुरूप इस कदम से पार्टी को उम्मीद है कि बिहार में उसकी बिगड़ चुकी सेहत को फिर से ठीक किया जा सकता है.
कांग्रेस ने कभी बिहार में ऊंची जातियों, दलितों और मुसलमानों के बीच सामाजिक गठबंधन बनाकर शासन किया था. बाद में नीतीश और लालू प्रसाद यादव जैसे क्षेत्रीय दिग्गजों के वर्चस्व ने उसके पारंपरिक वोट-बैंक पर कब्ज़ा कर लिया और कांग्रेस को अलग-थलग कर दिया. दलित और मुसलमान राजद और जनता दल (यूनाइटेड) में चले गए, जबकि ऊंची जातियों के ज़्यादातर मतदाता बीजेपी के साथ चले गए. हाल के वर्षों में, कांग्रेस को लालू यादव के यादव (14 फीसदी) और मुस्लिम (17 फीसदी) समर्थन के अपेक्षाकृत छोटे वोटबैंक के सहारे चुनाव लड़ते देखा गया है.
अब चुनावी मौसम में, यह कहानी नए सिरे से गढ़ी जाने के लिए तैयार है. बिहार में एकजुट विपक्ष के लिए राहुल का आह्वान, कन्हैया कुमार जैसे नेताओं के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने और युवाओं और वंचित जातियों तक पहुंचने का उनका फैसला, पार्टी को राजद की छाया से परे पेश करने की महत्वाकांक्षा का संकेत देता है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस बीजेपी के लिए मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में खड़ी है लेकिन बिहार में लंबे समय से राजनीतिक रूप से सबसे निचले पायदान पर है.
कांग्रेस के अंदरूनी सूत्र मानते हैं कि पार्टी बिहार में विश्वसनीय नेतृत्व की कमी से जूझ रही है. एक स्थानीय कांग्रेस नेता कहते हैं, "हमारे पास कोई ऐसा नेता नहीं है जो नीतीश कुमार, लालू प्रसाद, चिराग पासवान या यहां तक कि सम्राट चौधरी (बीजेपी) के कद की बराबरी कर सके. इसलिए कांग्रेस को इससे आगे देखना चाहिए. पार्टी के पास खोने के लिए कुछ नहीं है; अब समय आ गया है कि वह राज्य में संगठन को फिर से खड़ा करने के लिए युवा नेताओं को आगे लाए."
इस बदलते परिदृश्य में, राहुल का आह्वान और रणनीतिक दांव एक नए अध्याय की शुरुआत कर सकते हैं, जिसमें कांग्रेस न केवल अपना अस्तित्व बचाए रखना चाहती है, बल्कि बिहार के अशांत राजनीतिक रंगमंच में अपना खोया हुआ प्रभाव वापस पाना चाहती है. हालांकि, यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल.