बिहार की सियासत में इन दिनों एक बड़ा सवाल सबके जेहन में है: क्या नीतीश कुमार को 2025 के विधानसभा चुनाव में फिर से मुख्यमंत्री बनाया जाएगा? भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को इस समय एक अहम फैसला करना है- या तो नीतीश का खुलकर समर्थन करके गठबंधन में स्थिरता का संदेश दे, या फिर कोई नया चेहरा सामने लाकर बिहार की सियासत में अपनी बढ़त को पक्का करे.
"कमल के निशान पर बटन दबाएंगे क्या? बीजेपी की सरकार बनाएंगे क्या? एनडीए की सरकार बनाएंगे क्या? मोदी जी के हाथ मजबूत करेंगे क्या? जंगल राज को हराएंगे क्या?" 30 मार्च को गोपालगंज में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपने 20 मिनट के संयमित भाषण के आखिरी हिस्से में ये तीखे सवाल दागे.
भीड़ ने जोरदार "हां" के साथ जवाब दिया. लेकिन एक सवाल, जिसकी उम्मीद जनता दल (यूनाइटेड) के कई नेताओं को थी, वह गायब रहा: "नीतीश जी को फिर से सीएम बनाएंगे क्या?"
शाह ने यह सवाल नहीं पूछा और इस चुप्पी ने नीतीश के समर्थकों के मन में सवालों का तूफान खड़ा कर दिया. शायद गठबंधन के कुछ सहयोगियों की भावनाओं को दरकिनार करते हुए, गृह मंत्री ने अपने भाषण को आगे बढ़ाया और लोगों से "भारत माता की जय" और "वंदे मातरम" के नारे लगवाए. आखिर में "राम-राम" कहकर उन्होंने बात खत्म की.
नीतीश को भावी मुख्यमंत्री के रूप में समर्थन देने की बात को खुले तौर पर न कहने की यह चूक बिहार विधानसभा चुनाव से पहले खासी चर्चा बटोर रही है. बीजेपी इस समय बिहार विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन वह नीतीश के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने को तैयार है. फिर भी, बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने यह साफ नहीं किया कि अगर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) बहुमत हासिल करता है, तो नीतीश को ही मुख्यमंत्री बनाया जाएगा.
शाह अकेले नहीं हैं, जिन्होंने नीतीश के समर्थन में खुलकर कुछ नहीं कहा. फरवरी में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार आए, तो उन्होंने नीतीश को प्यार से "लाडला सीएम" कहा. लेकिन इस चुनावी राज्य की उलझी सियासत में, जो बातें नहीं कही जातीं, वे कही गई बातों से कहीं ज्यादा मायने रखती हैं. नीतीश के मुख्यमंत्री बनने की संभावना को लेकर खुसर-पुसर अब धीरे-धीरे खुली चर्चा में बदल रही है.
जनता दल (यूनाइटेड) इस सियासी खेल को बखूबी समझता है. फरवरी में नीतीश की कैबिनेट विस्तार से पहले, जिसमें केवल बीजेपी नेताओं को जगह मिली, नीतीश के आम तौर पर चुप रहने वाले बेटे निशांत कुमार ने असामान्य रूप से सार्वजनिक बयान दिया. उन्होंने एनडीए से अपील की कि नीतीश को आधिकारिक तौर पर मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए. यह कोई साधारण टिप्पणी नहीं थी; यह एक सोची-समझी चाल थी, जिसका मकसद बीजेपी पर दबाव डालना था—एक ऐसा दबाव, जिसे बीजेपी शायद नजरअंदाज करना चाहती है.
लेकिन सवाल यह है कि बीजेपी नीतीश को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने में क्यों हिचक रही है? इस चुप्पी के पीछे बिहार के मतदाताओं की नब्ज को टटोलने की एक गहरी रणनीति दिखती है. नीतीश की अपनी एक वफादार वोटर जमात है, लेकिन उनकी लोकप्रियता में उतार-चढ़ाव कोई नई बात नहीं. सरकार चलाने की चुनौतियां और बदलते सियासी नैरेटिव ने उनकी छवि को कई बार प्रभावित किया है.
बीजेपी, जो बिहार में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है, यह नहीं चाहती कि उसे हमेशा एनडीए में छोटे भाई की भूमिका निभानी पड़े. साथ ही, वह अपने पुराने सहयोगी को नाराज करने का जोखिम भी नहीं लेना चाहती. नीतीश का अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी), पिछड़ा वर्ग और कुछ महादलितों में मजबूत समर्थन है, जो बिहार के करीब 15 फीसदी मतदाताओं का हिस्सा हैं. बीजेपी इस वोट बैंक को महत्व देती है, लेकिन वह दूसरे नंबर पर रहने को तैयार नहीं. नीतीश को खुले तौर पर मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने से बीजेपी के कुछ समर्थकों का जोश ठंडा पड़ सकता है, और पार्टी इसे अच्छी तरह समझती है.
राष्ट्रीय स्तर पर अपनी धमक और कई राज्यों में शानदार प्रदर्शन के बावजूद, बिहार बीजेपी के लिए अभी भी एक कठिन मैदान है. इतिहास गवाह है कि बीजेपी यहां किंगमेकर की भूमिका में ज्यादा रही है, न कि किंग की. गठबंधन के सहारे ही उसने यहां सत्ता का स्वाद चखा है. नीतीश की अगुआई में जेडी(यू) कभी बीजेपी का साथी रहा, तो कभी उसका प्रतिद्वंद्वी. यह बिहार की सियासत की तरलता को दिखाता है.
2020 में यह कमजोरी साफ दिखी, जब बीजेपी ने 110 में से 74 सीटें जीतीं, लेकिन नीतीश को मुख्यमंत्री बनाया. भले ही जेडी(यू) ने 115 में से सिर्फ 43 सीटें हासिल की थीं. पांच साल बाद, हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली में जीत के बाद, बीजेपी अब बिहार में 84 विधायकों के साथ सबसे बड़ी पार्टी है.
खास बात यह है कि बीजेपी बिहार में अपनी सियासी जमीन और चौड़ी करना चाहती है. नीतीश की कैबिनेट में अब बीजेपी के 21 मंत्री हैं, जबकि जेडी(यू) के सिर्फ 13. बीजेपी की मंशा साफ है—वह तेजी से बढ़ना चाहती है, अपनी ताकत दिखाना चाहती है, और यह जाहिर करना चाहती है कि अब वही खेल की कमान संभालेगी.
शाह का बिहार दौरा भी चुनाव की रणनीति का हिस्सा दिखा. 29 मार्च को पटना में एक आंतरिक बैठक में उन्होंने पार्टी नेताओं से अगले छह महीने तक बूथ मैनेजमेंट पर ध्यान देने को कहा. राज्य बीजेपी नेतृत्व के साथ बातचीत में उन्होंने ‘महाराष्ट्र मॉडल’ अपनाने की सलाह दी, यानी उन बूथों पर ध्यान देना, जो परंपरागत रूप से बीजेपी को वोट नहीं देते. शाह के मुताबिक, सटीक बूथ मैनेजमेंट और कल्याणकारी योजनाओं (लाभार्थी स्कीम्स) का बेहतर इस्तेमाल बीजेपी की जीत का आधार रहा है.
फिर भी, बीजेपी सतर्क है. नीतीश ने भले ही बार-बार एनडीए के प्रति अपनी वफादारी जताई हो, लेकिन सियासत में शब्दों से ज्यादा कर्म मायने रखते हैं. बीजेपी, जो हमेशा सावधानी बरतती है, बिहार की सियासत के अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव को अच्छी तरह समझती है.
इस मोड़ पर बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व एक बड़े फैसले के सामने है: क्या वह नीतीश का खुलकर समर्थन करे, जिससे स्थिरता और निरंतरता का संदेश जाए, या फिर कोई नया चेहरा लाए, जिससे उसकी अपनी ताकत और बदलाव की चाहत जाहिर हो? दोनों रास्तों में जोखिम और फायदे हैं. संभव है कि पार्टी का फैसला जमीनी फीडबैक और आंतरिक मूल्यांकन पर की बुनियाद पर करे.
जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, बीजेपी की रणनीति में संतुलन जरूरी होगा. उसे अपने सहयोगियों की उम्मीदों, कार्यकर्ताओं की आकांक्षाओं और मतदाताओं की भावनाओं को साधना होगा. मुख्यमंत्री उम्मीदवार का चयन सिर्फ लोकप्रियता का सवाल नहीं है; यह सियासी गणित को तौलने और गठबंधन की संभावित गतिशीलता को भांपने की कवायद है.