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खाकी पहनने वालों को क्यों भा रही खादी?

यूपी में छठवें चरण के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले 1993 बैच के रिटायर आईपीएस अफसर प्रेम प्रकाश ने ज्वाइन की भाजपा. वे चुनाव के दौरान भाजपा ज्वाइन करने वाले दूसरे दलित आईपीएस अफसर हैं

 पूर्व आईपीएस अफसर प्रेम प्रकाश को भाजपा जॉइन करवाते पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भूपेन्द्र चौधरी और उप मुख्यमंत्री बृजेश पाठक
पूर्व आईपीएस अफसर प्रेम प्रकाश (काली टोपी में) को भाजपा जॉइन करवाते पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भूपेन्द्र चौधरी और उप मुख्यमंत्री बृजेश पाठक
अपडेटेड 22 मई , 2024

उत्तर प्रदेश में छठवें चरण के लोकसभा चुनाव से पहले खाकी पहनने वाले एक और अधिकारी ने खादी पहन ली. इनका नाम है प्रेम प्रकाश, जो कि 1993 बैच के सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं. कभी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के करीबी रहे प्रेम प्रकाश ने 21 मई को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सदस्यता ले ली. 

प्रेम प्रकाश को प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी और उप मुख्यमंत्री बृजेश पाठक ने पार्टी की सदस्यता दिलवाई. 'एनकाउंटर स्पेशलिस्ट' के तौर पर पहचान बनाने वाले प्रेम प्रकाश वही पुलिस अफसर हैं जो तीन साल पहले 'माफिया' मुख्तार अंसारी को पंजाब की रोपड़ जेल से यूपी की बांदा जेल लेकर आए थे.

दलित जाति से ताल्लुक रखने वाले प्रेम प्रकाश के आने से बसपा के कोर वोटबैंक में भाजपा के सेंध लगाने की रणनीति के तौर पर भी देखा जा रहा है. 

इससे पहले 8 अप्रैल को यूपी के पूर्व पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) विजय कुमार भी अपनी पत्नी समेत भाजपा में शामिल हो चुके हैं. नौकरशाही में विजय कुमार को बड़ा दलित चेहरा माना जाता था और वे भी पूर्व सीएम मायावती के करीबी अधिकारियों में शुमार थे. वर्ष 1988 बैच के आईपीएस अफसर रहे विजय कुमार को 31 मई 2023 को यूपी का डीजीपी बनाया गया था. 

करीब आठ महीने तक बतौर डीजीपी अपनी सेवाएं देने के बाद 31 जनवरी 2024 को विजय कुमार रिटायर हुए. मायावती के करीबी दलित पुलिस अफसरों के भाजपा में आने की शुरुआत 1977 बैच के आईपीएस अधिकारी और पूर्व डीजीपी बृजलाल से हुई. वर्ष 2014 में रिटायरमेंट के बाद बृजलाल ने भाजपा ज्वाइन कर राजनीति की राह पकड़ी थी. 

उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रह चुके बृजलाल ने भाजपा का दामन थामने के बाद सियासी गलियारे में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और राज्यसभा तक का सफर तय किया. मायावती के करीबी अफसरों के भाजपा में शामिल होने को राजनीतिक विश्लेषक एक रणनीति के रूप में देख रहे हैं. 

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर विनम्र सेन सिंह बताते हैं, "बसपा के राजनीतिक रूप से लगातार कमजोर होते जाने से पार्टी के ज्यादातर वरिष्ठ नेताओं ने दूसरे दलों को अपना ठिकाना बना लिया है. वहीं मायावती के करीबी दलित अधिकारियों ने भी बसपा के समर्थक मतदाताओं के बीच अपनी एक जगह बनाई थी. अब बसपा से छिटक रहे दलित मतदाताओं का समर्थन पाने के लिए विपक्षी दल खासकर भाजपा दलित अधिकारियों का सहारा ले रही है."

पिछले तीन दशकों में, राज्य के राजनीतिक परिदृश्य पर पुलिस अधिकारियों के उभरने का चलन तेजी से बढ़ा है. उतार-चढ़ाव से भरी अपनी यात्रा में, इन अधिकारियों ने कानून व्यवस्था से जुड़े अपने जमीनी अनुभव को साथ लेकर राजनीतिक की राह पर चलना शुरू किया है. यह शुरुआत पूर्व आईपीएस अधिकारी देवेन्द्र बहादुर राय से होती है, जिनका एसएसपी के रूप में कार्यकाल 1992 में फैजाबाद के बाबरी मस्जिद विध्वंस के आसपास की उथल-पुथल वाली घटनाओं का साक्षी रहा है. 

राय ने बाद में राजनीति में कदम रखा और 1996 और 1998 में भाजपा उम्मीदवार के रूप में सुलतानपुर सीट से लोकसभा चुनाव जीता. इस सीट से लगातार दो बार चुनाव जीतने वाले राय इकलौते नेता हैं. 1994 में डीआईजी की पोस्ट से रिटायर होने वाले अहमद हसन भी राजनीति की राह पकड़ने वाले पुलिस अफसरों में शुमार हैं. 

पूर्वांचल में समाजवादी पार्टी का मुस्ल‍िम चेहरा रहे अहमद हसन को सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव से करीबी का फायदा मिला था. वर्ष 1996 में अहमद हसन को सपा ने विधान परिषद सदस्य (एमएलसी) नियुक्त किया था. पुलिस बल से राजनीतिक मंच तक छलांग लगाने वालों में आगरा से भाजपा सांसद सत्यपाल सिंह बघेल भी शामिल थे. 

बघेल एक दरोगा थे, जिन्होंने 1996 में पुलिस सेवा छोड़ दी और चार बार सांसद बने. बघेल की राजनीतिक निष्ठा बदलती रही. उन्होंने बसपा और सपा में रहने के बाद आखिर में भाजपा ज्वाइन कर ली. इसी तरह  1972-बैच के आईपीएस अधिकारी, एस. आर. दारापुरी ने 2003 में यूपी में आईजी की पोस्ट से रिटायर होने के बाद राजनीति में कदम रखा और अपना खुद का राजनीतिक संगठन बनाया.

दारापुरी ने 2004 में लखनऊ से और फिर 2014 में रॉबर्ट्सगंज लोकसभा सीट से अपनी किस्मत आजमाई लेकिन दोनों ही बार हार का सामना करना पड़ा. वर्ष 2004 में, 1991 बैच के अधिकारी और स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) में डिप्टी एसपी शैलेन्द्र सिंह ने माफिया से नेता बने मुख्तार अंसारी की गिरफ्तारी पर तत्कालीन सपा सरकार से मतभेद के बाद अपनी नौकरी छोड़ दी थी. 

उन्होंने 2004 का लोकसभा चुनाव वाराणसी से एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में लड़ा लेकिन हार गए. बाद में वे कांग्रेस में शामिल हो गए और 2009 का लोकसभा चुनाव चंदौली से और 2012 का विधानसभा चुनाव चंदौली की सैयदराजा सीट से लड़ा लेकिन असफल रहे. वे अब भाजपा में शामिल हो गए हैं. 

पुलिस अधिकारियों के राजनीति में आने का क्रम 1980 बैच के आईपीएस अधिकारी और मुंबई के पूर्व पुलिस कमीश्नर सत्यपाल सिंह ने भी आगे बढ़ाया. सत्यपाल सिंह उन अधिकारियों में शामिल हैं जिन्होंने वीआरएस लेकर अपनी राजनीतिक हसरतें पूरी कीं. सत्यपाल सिंह ने वर्ष 2014 में स्वैच्छ‍िक सेवानिवृत्त‍ि (वीआरएस) का विकल्प चुना और 2014 और 2019 में दो बार बागपत से भाजपा उम्मीदवार के रूप में लोकसभा चुनाव जीता और नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री के रूप में भी काम किया. 

1996 बैच के पीपीएस अधिकारी और डिप्टी एसपी राजेश्वर सिंह को भी राजनीति की दुनिया रास आई. डिप्टी एसपी राजेश्वर सिंह पहले ईडी में प्रतिनियुक्ति पर तैनात हुए और बाद में ज्वाइंट डायरेक्टर के तौर पर भी काम करते हुए वीआरएस ले लिया. साल 2002 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने लखनऊ की सरोजनी नगर विधानसभा सीट से जीत दर्ज की. 

इसी तरह 1994 बैच के आईपीएस अधिकारी असीम अरुण ने कानपुर के पहले पुलिस कमिश्नर के रूप में काम करते हुए वीआरएस लिया था. अरुण को भाजपा ने कन्नौज सदर सीट से मैदान में उतारा और उन्होंने प्रभावशाली ढंग से जीत हासिल की.

विक्रम सेन सिंह बताते हैं, "राजनीति में शामिल होने के बाद जिन अधिकारियों को राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व का साथ मिला उनका राजनीतिक और चुनावी सफर तो शानदार रहा लेकिन ऐसे भी कई अधिकारी हैं जिन्हें राजनीति में आने के बाद सफलता के लिए संघर्ष करना पड़ा है."

ऐसे अधिकारियों में आईपीएस अधिकारी कुश सौरभ शामिल हैं, जिन्होंने 2019 में कांग्रेस के टिकट पर बांसगांव (सुरक्षित) लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के लिए वीआरएस लिया था लेकिन चुनाव आयोग ने उनका नामांकन रद्द कर दिया था. सौरभ 1986 में प्रांतीय पुलिस सेवा (पीपीएस) में चयनित हुए थे और 2009 में उन्हें आईपीएस के पद पर पदोन्नत किया गया था. 

एक अन्य अधिकारी ज्ञान सिंह, जो 2013 में होमगार्ड में डीआईजी के पद से रिटायर हुए, 2015 में भाजपा में शामिल हो गए. पूर्व डीजी (होमगार्ड), सूर्य कुमार शुक्ला, जो 2018 में रिटायर हुए, भाजपा में शामिल हो गए और सेवा में रहते हुए, अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण में मदद करने के लिए सुर्खियों में आए. रिटायर आईपीएस अधिकारी और यूपी के पूर्व डीजीपी सुलखान सिंह ने भी बुंदेलखंड लोकतांत्रिक पार्टी (बीएलपी) के गठन के साथ राजनीति में प्रवेश किया है.

1991 बैच के आईपीएस अधिकारी, दावा शेरपा, जो वर्तमान में एडीजी (सीबी-सीआईडी) हैं, की कहानी तो सबसे दिलचस्प है. दावा शेरपा वर्ष 2008 से 2012 तक सेवा से अनुपस्थित थे. उन्होंने कथित तौर पर अक्टूबर 2008 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन किया था, लेकिन गृह विभाग से अनुमति नहीं मिली क्योंकि उन्होंने इसका लाभ उठाने के लिए सेवा में 30 साल पूरे नहीं किए थे. 

इसके बाद दावा शेरपा औपचारिक रूप से भाजपा में शामिल हो गए. उन्होंने 2009 में दार्जिलिंग लोकसभा सीट के लिए भी दावेदारी पेश की थी. राजनीति में बात न बनने पर वर्ष 2012 में यूपी लौट आए. उनकी सेवाएं नियमित कर दी गईं और 2013 में उन्हें डीआईजी के रूप में पदोन्नति दी गई. वर्ष 2024 का लोकसभा चुनाव भी पूर्व पुलिस अधिकारियों की चुनावी राजनीति में प्रवेश का गवाह बना है.

बसपा ने कौशांबी लोकसभा सीट से रिटायर पुलिस अधिकारी शुभ नारायण गौतम को मैदान में उतारा है. फिलहाल वे अपने परिवार के साथ प्रयागराज के गोविंदपुर इलाके में रहते हैं. शुभ नारायण ने 1982 में दारोगा के रूप में राज्य पुलिस सेवा ज्वाइन की थी. उन्हें प्रयागराज और लखनऊ सहित कई जिलों में एक सर्कल अधिकारी के रूप में तैनात किया गया था. 2019 में रिटायरमेंट के बाद वे बामसेफ में शामिल हो गए थे. 

पूर्व आइपीएस अधिकारी और पूर्व सांसद मित्रसेन यादव के बेटे अरविंद सेन इस बार लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर फैजाबाद सीट से किस्मत आजमा रहे हैं. जैसे-जैसे राजनीति आगे बढ़ रही है इसमें शामिल होने के लिए अधिकारियों की दावेदारी भी उसी अनुपात में सामने आ रही है. 

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