पिछले साल अक्टूबर में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अपने संगठनात्मक चुनाव का श्रीगणेश किया था. इसके पांच महीने बाद 16 मार्च को प्रदेश में बीजेपी संगठन ने 98 जिलों में से 70 जिलाध्यक्षों की घोषणा कर दी.
पार्टी संविधान के अनुसार, जिला और शहर इकाई प्रमुखों की आधी संख्या की नियुक्ति के बाद ही प्रदेश अध्यक्ष का चयन किया जाना चाहिए. हालांकि 28 जिलाध्यक्षों की घोषणा अभी भी बाकी है लेकिन 71 प्रतिशत जिलाध्यक्षों की घोषणा ने प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव का रास्ता साफ कर दिया था.
तब यह माना जा रहा था कि नवरात्र में पार्टी अपने नए प्रदेश अध्यक्ष की घोषणा कर देगी लेकिन नवरात्र की समाप्ति के दो हफ्ते से ज्यादा बीतने के बाद भी यूपी में नए प्रदेश अध्यक्ष को लेकर केवल अटकलबाजी ही चल रही है.
साल 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले किसान आंदोलन की तपिश झेल रही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) जाट वोटों को लेकर मुतमईन थी. लेकिन जब मार्च में नतीजे आए तो पता चला कि पश्चिमी यूपी में बीजेपी समर्थक वोटबैंक के दरकने की शुरुआत हो चुकी है. साल 2022 के विधानसभा चुनाव में पहली बार 17 जाट विधायक चुने गए. इनमें 10 बीजेपी और 7 सपा-रालोद के थे. जबकि साल 2017 के विधानसभा चुनाव में कुल 14 जाट विधायक चुने गए थे और इनमें 13 बीजेपी और एक रालोद का था.
इस तरह विधानसभा में जाट विधायकों की संख्या बढ़ी बावजूद इसके बीजेपी की हिस्सेदारी घट गई. इसके बाद बीजेपी संगठन डैमेज कंट्रोल में जुटा. विधानसभा चुनाव के करीब छह महीने के बाद 25 अगस्त, 2022 को पिछले 31 सालों से संगठन और सरकार में किसी न किसी प्रकार की भूमिका में रहने वाले भूपेंद्र चौधरी को उत्तर प्रदेश बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. उन्होंने प्रभावशाली कुर्मी समुदाय के नेता स्वतंत्र देव सिंह की जगह ली थी.
यह पहली बार था जब बीजेपी ने यूपी प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी किसी जाट नेता को सौंपी थी. लक्ष्य साफ था कि पश्चिमी यूपी में दरकते जाट वोट बैंक को मजबूती के साथ खड़ा करना. हालांकि इसके बावजूद भी जाट मतदाता बीजेपी के लिए चुनौती बने रहे. साल 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले बीजेपी ने जयंत चौधरी की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के साथ गठबंधन किया. लोकसभा चुनाव में रालोद का प्रदर्शन तो सौ फीसदी जीत का रहा, जब पार्टी ने अपनी दोनों लोकसभा सीटों बागपत और बिजनौर लोकसभा सीट पर जीत हासिल की. हालांकि बीजेपी अपने पिछले चुनावी प्रदर्शन को नहीं दोहरा सकी.
इंडिया गठबंधन से उछाले गए संविधान के मुद्दे और प्रत्याशियों के गलत चयन ने यूपी में बीजेपी की लोकसभा सीटें 62 से घटाकर 33 पर ला दीं. इसके बाद से ही प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी को बदले जाने की अटकलें लगाई जाने लगी थीं. पिछले साल नवंबर में यूपी की 9 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में 7 पर जीत और इस साल जनवरी में मिल्कीपुर (सुरक्षित) विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में जीत ने भूपेंद्र चौधरी को राहत दी है.
हालांकि राजनीतिक विश्लेषक विधानसभा उपचुनाव में बीजेपी को मिली जीत को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का करिश्मा करार दे रहे हैं लेकिन पार्टी में भूपेंद्र चौधरी समर्थक विधानसभा चुनाव में मिली जीत को बीजेपी संगठन की मेहनत बता रहे हैं. इसके बाद से यूपी बीजेपी के नेताओं का एक गुट भूपेंद्र चौधरी के ही प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष की कुर्सी पर बने रहने के दावे कर रहा है.
उधर प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी (सपा) द्वारा पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक (पीडीए) के मुद्दे को आगे बढ़ाने के साथ, बीजेपी पर अपने राज्य प्रमुख के रूप में पिछड़े या दलित नेता को चुनने का दबाव है. यूपी बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, “यूपी बीजेपी का अध्यक्ष पिछड़ा होगा या दलित यह इस बात से भी तय होगा कि नए चुने जाने वाले राष्ट्रीय अध्यक्ष की जाति क्या है?”
हालांकि यूपी बीजेपी के वरिष्ठ नेता मानते हैं कि नए प्रदेश अध्यक्ष के रूप में पिछड़ी जाति के नेता की नियुक्ति की संभावना सबसे ज्यादा है. बीजेपी इससे पहले दोनों विधानसभा चुनाव पिछड़े प्रदेश अध्यक्ष की अगुआई में जीती है. पहला चुनाव 2017 में केशव प्रसाद मौर्य के नेतृत्व में जीता था वहीं, दूसरा चुनाव 2022 में स्वतंत्र देव सिंह की अगुआई में जीता था.
इस बार भी बीजेपी की कोशिश ऐसे व्यक्ति को कमान देने की है, जिसकी अगुवाई में अगला चुनाव जीता जा सके. इसके लिए कई नेताओं के नामों पर मंथन हो रहा है. कुर्मी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले और योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री स्वतंत्र देव सिंह का नाम भी चर्चा में है लेकिन मोदी युग में बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष को ‘रिपीट’ न करने की परिपाटी के चलते किसी नए ओबीसी नेता को जिम्मेदारी सौंपे जाने की संभावना ज्यादा बलवती है.
जो अन्य ओबीसी नेता जो इस दौड़ में हैं, उनमें योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री धर्मपाल सिंह, केंद्रीय राज्य मंत्री बी. एल. वर्मा और राज्यसभा सांसद बाबूराम निषाद शामिल हैं. धर्मपाल और वर्मा दोनों लोध ओबीसी समुदाय से आते हैं, जो राज्य के बुंदेलखंड और रोहिलखंड क्षेत्रों में प्रभावशाली है. पारंपरिक बीजेपी मतदाताओं के रूप में देखे जाने वाले लोधों के बारे में कहा जाता है कि वे पूर्व सीएम कल्याण सिंह के कारण पार्टी के करीब आए, जो राज्य में पार्टी के सबसे बड़े ओबीसी नेता थे. धर्मपाल सिंह की बढ़ती उम्र और प्रदेश बीजेपी के संगठन मंत्री का नाम भी धर्मपाल सिंह होना कहीं न कहीं दुविधा भी पैदा कर रहा है. वहीं कैबिनेट मंत्री धर्मपाल सिंह के करीबी नेता बताते हैं कि प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद धर्मपाल सिंह के नाम में “लोध” जोड़ा जा सकता है जैसे की प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए स्वतंत्र देव सिंह के नाम में “पटेल” भी लिखा दिखाई पड़ता था.
साल 2024 के लोकसभा चुनाव में पूर्वी यूपी में बीजेपी को सपा के पीडीए नारे से काफी चोट पहुंची थी. पूर्वी उत्तर प्रदेश की 24 सीटों में से सपा ने 14 सीटें जीतीं, जबकि बीजेपी और उसकी सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) ने मिलकर 10 सीटें जीतीं थी. इसलिए पूर्वी यूपी से किसी पिछड़ी जाति के नेता को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की अटकलों ने भी जोर पकड़ा है. इस लिहाज से सबसे आगे सातवीं बार लोकसभा का चुनाव जीतने वाले महाराजगंज से सांसद पंकज चौधरी के नाम सबसे आगे है.
पूर्वी यूपी में प्रभावी कुर्मी जाति के पंकज चौधरी केंद्र की मोदी सरकार में वित्त राज्य मंत्री हैं. गोरखपुर से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का होना और उसके बगल के जिले महाराजगंज से प्रदेश अध्यक्ष की तैनाती प्रदेश के बीजेपी संगठन के भीतर एक असंतुलन भी पैदा कर सकती है. जबकि चौधरी के पक्ष में लोग साल 2019 के लोकसभा चुनाव का उदाहरण देते हैं जब चंदौली से तत्कालीन सांसद महेंद्र नाथ पांडेय यूपी बीजेपी के अध्यक्ष थे.
उधर बीजेपी के सामने सबसे बड़ी कठिनाई दलित जाति से प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव को लेकर है. पार्टी पूर्व सांसदों राम शंकर कठेरिया, विनोद सोनकर और नीलम सोनकर और पूर्व एमएलसी विद्या सागर सोनकर जैसे दलित चेहरों पर भी विचार कर रही है. इन नेताओं में राम शंकर कठेरिया का नाम सबसे आगे हैं. 60 सालीय कठेरिया, जो आगरा में डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर भी हैं, कम उम्र में ही आरएसएस से जुड़ गए थे. वे आगरा लोकसभा सीट से दो बार सांसद चुने गए 2019 के चुनाव में बीजेपी ने उन्हें इटावा से मैदान में उतारा और वहां से तीसरी बार सांसद बने.
साल 2024 के लोकसभा चुनाव में कठेरिया को शिकस्त मिली. दलित उपजाति धानुक समुदाय से आने वाले राम शंकर कठेरिया को 2014 में बीजेपी का राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया गया था. उन्होंने नवंबर 2014 से जुलाई 2016 तक मानव संसाधन विकास जंत्रालय में केंद्रीय राज्य मंत्री के रूप में कार्य किया. वे राष्ट्रीय अनुसूचित जाति- जनजाति आयोग के अध्यक्ष भी रहे हैं.
हालांकि, कुछ हलकों में राज्यसभा सांसद दिनेश शर्मा और पूर्व सांसद हरीश द्विवेदी के नाम भी चर्चा में हैं, जो दोनों ब्राह्मण हैं, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए पार्टी द्वारा इन नेताओं को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी सौंपे जाने की संभावना न के बराबर है.