दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए पांच फरवरी को होने वाली वोटिंग से पहले एक बार फिर जातिगत सर्वे का मामला उछला है. वोटिंग से दो दिन पहले यानी 3 फरवरी को कांग्रेस नेता और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने देश भर में जातिगत जनगणना की मांग करते हुए तेलंगाना कास्ट सर्वे का हवाला दिया. उन्होंने इस सर्वे को जातिगत जनगणना के लिए एक प्रमुख उदाहरण करार दिया.
तेलंगाना कास्ट सर्वे से पता चला है कि राज्य की कुल आबादी में पिछड़े वर्ग के लोगों की संख्या (मुस्लिम पिछड़ा वर्ग को छोड़कर) 46 फीसद है. राहुल गांधी भले ही संसद में इस सर्वे का हवाला देकर खुश हो रहे हैं लेकिन अब यही सर्वे कांग्रेस के लिए अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने सरीखा साबित हो सकता है. वहीं चूंकि दिल्ली में चुनाव हैं तो एक सवाल यह भी है कि क्या कांग्रेस के लिए दिल्ली विधानसभा चुनावों में भी इसका उलटा असर दिख सकता है?
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के बजट अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान 3 फरवरी को राहुल गांधी ने जाति जनगणना का मुद्दा उठाया था. उन्होंने कहा था कि तेलंगाना में कास्ट सर्वे से पता चला है कि राज्य की करीब "90 फीसद आबादी दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यकों की है." और उन्हें पूरा विश्वास है कि पूरे देश में यही कहानी होगी, जिसमें ओबीसी की संख्या 50 फीसद से कम नहीं होगी.
राहुल ने आगे कहा, "एक नए प्रतिमान (पैराडाइम) की संरचना तभी बनाई जा सकती है जब कास्ट सेंसस को संसद में रखा जाएगा. एक बार जब जाति जनगणना संसद में पेश की जाएगी, तो हमें पता चल जाएगा कि देश की कितनी संपत्ति, शक्ति और संस्थाएं देश की 90 फीसद आबादी के पास हैं. कास्ट सेंसस ही यह पता लगाने का एकमात्र तरीका है कि देश की कितनी संपत्ति 90 फीसद आबादी के पास है."
तेलंगाना कास्ट सर्वे : कांग्रेस के लिए अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी?
तेलंगाना में हुआ कास्ट सर्वे कांग्रेस के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है क्योंकि राज्य में आगामी स्थानीय निकाय चुनावों में इसकी सिफारिशों को लागू करने की मांग की जा रही है. द हिंदू की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अगर पिछड़े वर्ग की इन मांगों पर ध्यान नहीं दिया गया तो इस वर्ग के नेताओं ने राज्य भर में बड़े पैमाने पर आंदोलन की धमकी दी है. इससे मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी की कांग्रेस सरकार पर दबाव बढ़ सकता है.
और यह मुद्दा केवल तेलंगाना तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पड़ोसी राज्य कर्नाटक में भी कांग्रेस को जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट से जूझना पड़ रहा है. कर्नाटक में साल 2018 में ही कास्ट सर्वे की रिपोर्ट तैयार की गई थी. लेकिन इस रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए या नहीं, इस मुद्दे पर पार्टी में मतभेद देखने को मिला है.
तेलंगाना के कास्ट सेंसस से पता चला है कि पिछड़ा वर्ग (मुस्लिम पिछड़ा वर्ग को छोड़कर) तेलंगाना की आबादी का 46.25 फीसद हिस्सा है. इस तरह यह तबका राज्य में सबसे बड़ा सामाजिक समूह बन गया है. पिछड़ी जातियों के बाद अनुसूचित जाति (एससी) की हिस्सेदारी 17.43 फीसद, अनुसूचित जनजाति (एसटी) की हिस्सेदारी 10.45 फीसद और मुस्लिम पिछड़ी जातियां तेलंगाना की आबादी का 10.08 फीसद हिस्सा हैं.
राहुल गांधी कहते रहे हैं कि "जितनी आबादी, उतना हक" यानी जनसंख्या के अनुपात में अधिकार. तेलंगाना कास्ट सर्वे में 46 फीसद पिछड़ा वर्ग का जो आंकड़ा सामने आया है वो अब आगामी स्थानीय चुनावों में आरक्षण बढ़ाने की मांग को तीखा करने का काम कर रहा है.
द हिंदू की एक रिपोर्ट के मुताबिक, राज्यसभा सांसद और नेशनल बीसी (बैकवर्ड क्लास) एसोसिएशन के अध्यक्ष आर कृष्णैया सहित पिछड़ा वर्ग के नेताओं ने तेलंगाना बीसी आयोग के पूर्व अध्यक्ष वकुलभरणम कृष्ण मोहन राव के साथ मिलकर तेलंगाना की कांग्रेस सरकार से आगामी स्थानीय निकाय चुनावों में पिछड़ा वर्ग के लिए 42 फीसद आरक्षण लागू करने की मांग की है. साथ ही, उन्होंने कहा कि अगर उनकी मांग पूरी नहीं हुई तो वे बड़े पैमाने पर आंदोलन करेंगे.
उन नेताओं ने चेतावनी दी है कि अगर पिछड़े वर्गों को नौकरियों और विधायी निकायों में उनका उचित हिस्सा नहीं दिया गया तो विद्रोह हो सकता है. टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बीसी निकायों ने यह भी आरोप लगाया है कि ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम क्षेत्र के कई घरों को सर्वेक्षण में शामिल नहीं किया गया. बीसी समुदाय के नेताओं के साथ-साथ के. चंद्रशेखर राव की अगुआई वाली भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) ने भी सर्वे के निष्कर्षों को लागू करने की मांग की है.
कर्नाटक कास्ट सेंसस को लेकर कांग्रेस में पहले से ही मतभेद
तेलंगाना का यह कदम ऐसे समय में उठाया गया है जब ऐसी खबरें सामने आई हैं कि कर्नाटक का जाति सर्वे पिछले सात सालों से धूल खा रहा है और कांग्रेस पार्टी में इसे सार्वजनिक करने पर मतभेद है.
सूत्रों ने पहले इंडिया टुडे टीवी के नागार्जुन द्वारकानाथ को बताया था कि कर्नाटक के उप मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार और कुछ उच्च जाति के मंत्रियों ने कांग्रेस आलाकमान को 16 जनवरी को कैबिनेट बैठक में जाति सर्वे रिपोर्ट पेश करने से रोकने के लिए मजबूर किया था.
160 करोड़ रुपये की लागत वाले इस सर्वे को मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 2014 में अपने पिछले कार्यकाल में मंजूरी दी थी. इसे इस साल जनवरी में कैबिनेट की बैठक में प्रस्तुत किया जाना था, लेकिन कांग्रेस आलाकमान के दखल के बाद इसे रोक दिया गया. इस तरह अंतिम समय में लिए गए यू-टर्न ने कर्नाटक जाति सर्वे पर कांग्रेस के भीतर आम सहमति की कमी को उजागर कर दिया, जिसे राहुल गांधी ने बार-बार पूरे देश का "एक्स-रे" बताया है.
दिल्ली में ओबीसी राजनीति कितनी प्रभावी?
दिल्ली में करीब 35 फीसद सवर्ण जातियों की आबादी है. इनमें 13 फीसद ब्राह्मण, राजपूत 8 फीसद, वैश्य 7 फीसद, पंजाबी खत्री 5 फीसद और अन्य सामान्य जातियां आती हैं. दिल्ली में अन्य पिछड़ी जातियों में जाट और गुर्जर जैसे मध्यवर्ती जातियों की संख्या भी अच्छी खासी है. ये दोनों जातियां राजनीतिक रूप से जागरूक भी हैं. और चुनाव लड़ने और लड़ाने की ताकत भी इन जातियों के पास खूब है.
दिल्ली में ओबीसी मतदाताओं का हिस्सा करीब 30 फीसद है. इनमें जाट और गुर्जर सबसे बड़े समूह हैं जो लगभग आधे ओबीसी मतदाताओं का हिस्सा हैं. उसके बाद यादव जैसी अन्य जातियां आती हैं. दलित दिल्ली की आबादी का 16 फीसद से अधिक बनाते हैं जबकि मुस्लिम लगभग 13 फीसद और सिख 3.5 फीसद हैं. इस तरह ओबीसी, दलित, मुसलमान और सिख मिलकर करीब 63 से 65 फीसद तक हो जाते हैं.
यानी कि दिल्ली में भी यूपी और बिहार और अन्य प्रदेशों की तरह दलित-पिछड़े, मुस्लिम आदि का एक पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) वोट बैंक तैयार किया जा सकता है. पर दिल्ली में ऐसा नहीं हो सका है. ऐसा क्यों?
आजतक की एक रिपोर्ट बताती है कि ऐसा नहीं है कि दिल्ली में शहरीकरण और साक्षरता के चलते जाति के आधार पर वोट नहीं पड़ते हैं. दिल्ली में भी जाट, गुर्जर, ब्राह्मण, पंजाबी, सिख, मुसलमान कार्ड खूब चलता है. पिछले चुनावों में चुने गए विधायकों और 5 फरवरी के विधानसभा चुनावों में प्रत्याशियों की जाति पर एक नजर डालने से पता चलता है कि जाति का प्रभाव अब भी है, हालांकि दिल्ली में राजनीति करने वाला कोई पिछड़ा नेतृत्व सामने नहीं आ सका.
और जब पार्टियां जाति-निरपेक्ष राजनीति करने का दावा करती हैं, तो प्रतिनिधित्व मुख्य रूप से उच्च जाति या प्रमुख जातियों का हो जाता है. अरविंद केजरीवाल वैश्य जाति से आते हैं. इसलिए अगर वे जाति की राजनीति करेंगे तो कभी सफल नहीं होंगे. शायद यही कारण रहा कि उन्होंने जाति निरपेक्ष राजनीति की शुरूआत की.
निवर्तमान दिल्ली विधानसभा में सभी विधायकों में से 50 फीसद उच्च जातियों से हैं. आप के सभी विधायकों में से 40 फीसद इन समुदायों से हैं, जबकि सात बीजेपी विधायकों में छह उच्च जातियों से हैं. आगामी विधानसभा चुनावों में भी यही हाल है. बीजेपी और उसके सहयोगियों द्वारा उतारे गए सभी उम्मीदवारों में से 45 फीसद उच्च जातियों से है.
48 फीसद पर 'आप' ने बीजेपी से भी अधिक उच्च जाति के उम्मीदवारों को टिकट दिया है. सिर्फ कांग्रेस ने ही 35 फीसद पर उच्च जातियों के प्रतिनिधित्व को उनकी जनसंख्या में हिस्सेदारी के अनुपात में रखा है.