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तमिलनाडु : नई शिक्षा नीति के विरोध में कितनी जायज हैं स्टालिन सरकार की दलीलें?

तमिलनाडु के सीएम एम.के. स्टालिन ने कहा है कि राज्य सरकार नई शिक्षा नीति (एनईपी) को किसी भी हाल में लागू नहीं करेगी, भले ही केंद्र सरकार इसके लिए 10 हजार करोड़ रुपये ही क्यों न दे!

तमिलनाडु के सीएम एम के स्टालिन/फाइल फोटो
तमिलनाडु के सीएम एम के स्टालिन/फाइल फोटो
अपडेटेड 3 मार्च , 2025

तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार और केंद्र की मोदी सरकार के बीच टकराव कोई नई बात नहीं है. उदाहरण के लिए 2020 में आई नई शिक्षा नीति (एनईपी) को ही लीजिए, स्टालिन सरकार राज्य में इसे लागू करने का लगातार विरोध करती रही है.

ताजा घटनाक्रम में स्टालिन ने एनईपी के खिलाफ अपने विरोध को मजबूती से जताते हुए कहा कि राज्य सरकार नई शिक्षा नीति को किसी भी हाल में लागू नहीं करेगी, भले ही केंद्र सरकार इसकी फंडिंग के तौर पर 10 हजार करोड़ रुपये की बड़ी राशि ही क्यों न दे.

स्टालिन के इस विरोध की जड़ में कथित तौर पर राज्य के लोगों पर हिंदी भाषा को थोपना, राज्य में लंबे समय से चल रहे शिक्षा मॉडल में बाधा पैदा करना जैसी चिंताएं शामिल हैं. इसके अलावा द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) सरकार इसे 'कोऑपरेटिव फेडरेलिज्म' या सहकारी संघवाद की भावना के खिलाफ भी देखती है.

सहकारी संघवाद, असल में देश के शासन में केंद्र और राज्यों के बीच आपसी सहयोग और सामंजस्य का तरीका है. इसमें केंद्र और राज्य सरकारें अपनी समस्याओं को हल करने के लिए मिलकर काम करती हैं.

बहरहाल, एनईपी के तहत जो 'त्रि-भाषा फॉर्मूला' की बात कही गई है, आसान शब्दों में इसका मतलब यह है कि बच्चों को तीन भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए. पहली भाषा आमतौर पर छात्रों की मातृभाषा या राज्य की क्षेत्रीय भाषा होगी. इसके अलावा यह भाषाई फॉर्मूला अंग्रेजी के साथ-साथ एक और भाषा भी सीखने की सिफारिश करता है. हालांकि, डीएमके सरकार इसे राज्य में पिछले दरवाजे से हिंदी को लागू करने के एक गुप्त प्रयास के रूप में देखती है.

वहीं, केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने इन दावों का पुरजोर खंडन करते हुए कहा कि एनईपी-2020 भाषाई स्वतंत्रता की अनुमति देता है और हिंदी को थोपती नहीं है. स्टालिन को लिखे पत्र में प्रधान ने कहा, "किसी भी राज्य या समुदाय पर कोई भाषा थोपने का सवाल ही नहीं उठता. एनईपी-2020 भाषाई स्वतंत्रता के सिद्धांत को कायम रखती है और यह सुनिश्चित करती है कि छात्र अपनी पसंद की भाषा में सीखना जारी रखें." उन्होंने तर्क दिया कि एनईपी का बहुभाषी दृष्टिकोण शिक्षा तक पहुंच को सीमित करने के बजाय व्यापक बनाएगा.

हालांकि, इन आश्वासनों के बावजूद तमिलनाडु के राजनेता इसके विरोध में डटे हुए हैं. उप मुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन ने दोहराया है, "तमिलनाडु हमेशा से तीन-भाषा नीति के खिलाफ रहा है. हम इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे. केंद्र एनईपी का इस्तेमाल हिंदी के लिए पिछले दरवाजे से प्रवेश के रूप में करना चाहता है."

उदयनिधि के अलावा राज्य के शिक्षा मंत्री अंबिल महेश पोय्यामोझी ने भी चिंता जताई कि एनईपी को स्वीकार करने से तमिल को धीरे-धीरे दरकिनार किया जा सकता है और पाठ्यपुस्तकों में तमिल इतिहास के चित्रण में गड़बड़ियां आ सकती हैं. उन्होंने चेतावनी दी कि अगर एनईपी को प्रस्तावित तरीके से लागू किया गया तो समय के साथ तमिलनाडु की भाषाई और सांस्कृतिक पहचान खत्म हो सकती है.

हिंदी थोपे जाने के खिलाफ तमिलनाडु के विरोध की जड़ें 1938 और 1965 के हिंदी विरोधी आंदोलनों में हैं, जिनमें राज्य की शिक्षा व्यवस्था में हिंदी को अनिवार्य भाषा बनाने के प्रयासों के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए थे. तब इन आंदोलनों के एवज में दो भाषा नीति (तमिल और अंग्रेजी) को संस्थागत रूप दिया गया, ताकि यह तय किया जा सके कि तमिल छात्रों को हिंदी सीखने के लिए मजबूर न किया जाए. डीएमके लंबे समय से यह तर्क देती रही है कि इस नीति ने ही तमिलनाडु के छात्रों को तीसरी भाषा के अतिरिक्त बोझ के बिना वैश्विक अवसरों में उत्कृष्टता हासिल करने में सक्षम बनाया है.

बहरहाल, स्टालिन और केंद्र सरकार के बीच तनाव को और बढ़ाने का काम किया है केंद्र सरकार के एक फैसले ने. केंद्र ने 'समग्र शिक्षा योजना' के तहत राज्य को दी जाने वाली 2,152 करोड़ रुपये की फंडिंग रोकी हुई है. यह योजना केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित एक पहल है जो स्कूली शिक्षा के लिए फंडिंग करती है. इस पर स्टालिन सरकार ने इसे राज्य की स्वायत्तता का उल्लंघन करार देते हुए आरोप लगाया कि केंद्र इस वित्तीय दबाव का इस्तेमाल तमिलनाडु को एनईपी-2020 को अपनाने के लिए मजबूर करने के रूप में कर रहा है.

स्टालिन ने इस मामले को सहकारी संघवाद के घोर उल्लंघन के रूप में पेश किया. उन्होंने आरोप लगाया, "क्या यह ब्लैकमेल कि, फंड जारी करना त्रि-भाषी नीति को मानने पर निर्भर है, राजनीति नहीं है? क्या एनईपी के नाम पर हिंदी थोपना राजनीति नहीं है? केंद्र अपने वैचारिक एजेंडे के लिए तमिलनाडु के छात्रों को बंधक बनाने का प्रयास कर रहा है."

स्टालिन ने तर्क दिया कि एजुकेशन फंड के वितरण को नीति अनुपालन (नीतियों को लागू करना) से जोड़ना तमिलनाडु की अपने शैक्षिक ढांचे को स्वायत्त रूप से आकार देने की क्षमता को कमजोर करता है, उन्होंने कहा कि ऐसी स्थितियां संघीय शासन के लिए एक खतरनाक मिसाल कायम करती हैं.

हालांकि, शिक्षा मंत्री प्रधान ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि तमिलनाडु द्वारा एनईपी को अपनाने से इनकार करना छात्रों को इसके संभावित लाभों से वंचित कर रहा है. उन्होंने कहा, "राजनीतिक वजहों से एनईपी-2020 का लगातार विरोध तमिलनाडु के छात्रों, शिक्षकों और शैक्षणिक संस्थानों को इस नीति द्वारा प्रदान किए जाने वाले अपार अवसरों और संसाधनों से वंचित करता है."

उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि एनईपी का उद्देश्य देश भर में शैक्षिक मानकों को ऊपर उठाना है न कि भाषा संबंधी प्राथमिकताएं थोपना. उन्होंने राज्य सरकार से राजनीतिक विरोध के बजाय छात्रों के दीर्घकालिक हितों पर विचार करने का अनुरोध किया.

लेकिन इसके बरक्स स्टालिन ने अपना रुख और कड़ा कर दिया है, जिससे यह साफ हो गया है कि एनईपी के खिलाफ तमिलनाडु का विरोध फाइनेंशियल वजहों से कहीं आगे तक फैला हुआ है. स्टालिन ने हाल ही में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में अपनी सरकार के वैचारिक प्रतिरोध को जताते हुए कहा, "केंद्र का कहना है कि अगर राज्य एनईपी लागू करता है तो तमिलनाडु को 2,000 करोड़ रुपये मिलेंगे. मैं कहना चाहता हूं कि अगर केंद्र 10,000 करोड़ रुपये भी दे तो भी हम एनईपी पर सहमत नहीं होंगे. मैं एनईपी को अनुमति नहीं दूंगा और न ही तमिलनाडु को 2,000 साल पीछे धकेलने का पाप करूंगा."

भाषा विवाद से परे, स्टालिन और उनकी पार्टी एनईपी में प्रस्तावित कई ढांचागत बदलावों का भी कड़ा विरोध करती है. इनमें ग्रेजुएशन लेवल पर दाखिले के लिए कॉमन एंट्रेंस एग्जाम की शुरुआत भी शामिल है, जिसके बारे में तमिलनाडु सरकार का मानना ​​है कि इससे वंचित तबके के छात्रों को बहुत नुकसान होगा, जिनकी पहुंच महंगे कोचिंग संस्थानों तक नहीं है.

एनईपी में स्कूल लेवल पर क्लास 3, 5 और 8 सहित कई स्तरों पर स्टैंडर्ड टेस्टिंग पर जोर दिया गया है जो एक और विवादास्पद मुद्दा है. राज्य को डर है कि इससे शैक्षणिक असमानता बढ़ सकती है और खासकर ग्रामीण इलाकों में ड्रॉपआउट रेट बढ़ सकती है.

इसके अलावा क्लास 6 से वोकेशनल ट्रेनिंग (व्यावसायिक प्रशिक्षण) के लिए जोर देने की आलोचना की गई है क्योंकि इससे छात्रों को हायर एजुकेशन के रास्ते से भटकने, करियर मोबिलिटी को सीमित करने की संभावना उपजती है. एक चिंता यह भी है कि इससे 'सामाजिक-आर्थिक स्तरीकरण' और मजबूत हो सकता है, यानी समाज के भीतर धन, आय और सामाजिक स्थिति का मौजूदा असमान वितरण सक्रिय रूप से और गहरा हो सकता है.

तमिलनाडु सरकार का कहना है कि उसके मौजूदा शिक्षा मॉडल ने उच्च साक्षरता दर से लेकर सभी उद्योगों में सफल पेशेवरों को जन्म दिया है, इसलिए उसे एनईपी के रूप में केंद्र द्वारा निर्देशित ढांचागत बदलाव की जरूरत नहीं है. यही वजह है कि एनईपी का विरोध सिर्फ वित्तीय प्रोत्साहनों के बारे में नहीं है, बल्कि उस व्यवस्था की स्वायत्तता को बनाए रखने के बारे में है, जिसके बारे में तमिलनाडु का मानना ​​है कि उसने पहले ही राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर अपनी प्रभावशीलता साबित कर दी है.

वहीं, केंद्र सरकार का कहना है कि एनईपी एक प्रगतिशील सुधार है जिसका उद्देश्य भारत की शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक बनाना है. प्रधान ने कहा है कि एनईपी राज्यों को अपनी जरूरतों के मुताबिक नीतियों को तैयार करने के लिए लचीलापन प्रदान करता है. उन्होंने बताया है कि एनईपी कठोर नहीं है, बल्कि एक ढांचा प्रदान करती है जिसे राज्य अपनी क्षेत्रीय जरूरतों के आधार पर उसमें बदलाव कर सकते हैं.

शिक्षा मंत्री की दलील है, "कई गैर-बीजेपी राज्यों ने राजनीतिक मतभेदों के बावजूद एनईपी को लागू किया है. तमिलनाडु का विरोध राजनीतिक है, शैक्षिक नहीं." उन्होंने विस्तार से बताया कि एनईपी का उद्देश्य छात्रों को एक बहु-विषयक शिक्षा से लैस करना है जो वैश्विक मानकों के अनुरूप हो, जो बुनियादी ज्ञान और कौशल-आधारित शिक्षा के बीच संतुलन तय करता है.

प्रधान ने भाषा थोपे जाने के दावों का खंडन करते हुए कहा कि नीति हिंदी को अनिवार्य नहीं बनाती है, बल्कि क्षेत्रीय भाषाओं और अंग्रेजी के साथ-साथ किसी भी भारतीय भाषा के अध्ययन को बढ़ावा देती है. उन्होंने जोर देकर कहा, "हम भारत की भाषाई विविधता का सम्मान करते हैं और एनईपी यह तय करती है कि किसी भी राज्य को ऐसी भाषा अपनाने के लिए मजबूर न किया जाए जिसे वह शामिल नहीं करना चाहता."

प्रधान का यह भी कहना है कि एनईपी छात्रों को उभरते हुए जॉब मार्केट के लिए तैयार करने के लिए अनुभवात्मक शिक्षा, योग्यता-आधारित मूल्यांकन और डिजिटल साक्षरता सहित नए शैक्षणिक दृष्टिकोण पेश करती है. उनके मुताबिक, नीति को अपनाने में तमिलनाडु की अनिच्छा छात्रों को इन अवसरों से वंचित कर रही है.

तमिलनाडु बीजेपी प्रमुख के. अन्नामलाई ने भी डीएमके के रुख पर सवाल उठाए. उन्होंने पूछा, "निजी स्कूल, जिनमें डीएमके नेताओं के बच्चे और नाती-नातिन पढ़ते हैं, वे स्कूल त्रि-भाषी नीति का पालन करते हैं. लेकिन क्या सरकारी स्कूल के छात्रों को भी समान अवसर नहीं मिलने चाहिए?" उन्होंने इस विरोधाभास पर जोर देते हुए कहा कि डीएमके एक तरफ एनईपी का विरोध कर रही है, दूसरी तरफ कुलीन निजी स्कूलों में त्रि-भाषी नीति को अनुमति दे रही है.

एनईपी के खिलाफ तमिलनाडु सरकार के तर्क ऐतिहासिक रूप से भाषा को थोपे जाने और केंद्र के अतिक्रमण के डर में गहराई से निहित हैं. राज्य के अनूठे शिक्षा मॉडल ने प्रभावशाली साक्षरता दर और वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी छात्र तैयार किए हैं. एनईपी के तहत संभावित ड्रॉपआउट दरों के बारे में इसकी चिंताएं लाजिम हैं, खासकर इसके छात्र आबादी की सामाजिक-आर्थिक विविधता को देखते हुए. इसके अलावा, तमिलनाडु सरकार का तर्क है कि एनईपी की कॉमन एंट्रेंस एग्जाम और स्टैंडर्ड टेस्टिंग ग्रामीण इलाकों और हाशिए के समुदायों के छात्रों को नुकसान पहुंचा सकते हैं, जिनके पास उन्नत कोचिंग सुविधाओं तक पहुंच नहीं है.

बहरहाल, असली मुद्दा एनईपी को लागू करने और राजनीतिक विश्वास का है. तमिलनाडु को डर है कि एक बार एनईपी को अपना लिया गया तो केंद्र सरकार इस तरह से क्रियान्वयन को निर्देशित करेगी जिससे राज्य की स्वायत्तता खत्म हो जाएगी. दूसरी ओर, केंद्र की बीजेपी सरकार तमिलनाडु के विरोध को राजनीति से प्रेरित मानती है, जिसका उद्देश्य डीएमके के हिंदी विरोधी और राज्य स्वायत्तता समर्थक नैरेटिव को जीवित बनाए रखना है.

चूंकि कोई भी पक्ष पीछे हटने को तैयार नहीं है, इसलिए गतिरोध जारी रहने की संभावना है. डीएमके ने पहले ही एनईपी के खिलाफ राज्यव्यापी विरोध प्रदर्शन की घोषणा कर दी है, जबकि बीजेपी इसे लागू करने के लिए अपने प्रयासों को दोगुना कर रही है. इस गतिरोध का भारत में संघीय संबंधों पर बड़ा प्रभाव पड़ रहा है, क्योंकि केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य भी एनईपी के कुछ पहलुओं का विरोध कर रहे हैं.

इसका एक संभावित हल यह हो सकता है कि तमिलनाडु एनईपी के कुछ खास प्रावधानों को छोड़कर उसे लागू करे और केंद्र सरकार के फंड का लाभ उठाए. हालांकि, राजनीतिक दांव-पेंच को देखते हुए निकट भविष्य में ऐसा हल असंभव मालूम होता है. फिलहाल, तमिलनाडु की शिक्षा व्यवस्था राज्य की स्वायत्तता बनाम केंद्रीय शासन के बीच एक बड़े युद्ध का अखाड़ा बनी हुई है, जिसमें छात्र 'क्रॉसफायर' यानी जवाबी गोलीबारी में फंसे हुए हैं.

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