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क्या केरल का 'प्राइवेट यूनिवर्सिटी बिल' प्राइवेट शिक्षा पर लेफ्ट के बदलते रुख का संकेत है?

फिलहाल केरल एकमात्र ऐसा राज्य है जहां निजी विश्वविद्यालय नहीं हैं

केरल विधानसभा में बोलते पी. विजयन/फाइल फोटो
केरल विधानसभा में बोलते पी. विजयन/फाइल फोटो
अपडेटेड 26 मार्च , 2025

केरल विधानसभा ने 25 मार्च 2025 "केरल स्टेट प्राइवेट यूनिवर्सिटी (स्थापना और विनियमन) बिल, 2025" को पारित किया. इस बिल के पारित होने से राज्य में निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना का रास्ता साफ हो गया है, जो सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाली वाम मोर्चा सरकार के लिए एक नीतिगत बदलाव का प्रतीक है.

यह बदलाव इसलिए भी अहम है क्योंकि वामपंथी दल लंबे समय से शिक्षा के निजीकरण और व्यावसायीकरण का खुलकर विरोध करते रहे हैं. इस बिल ने न केवल राज्य के शिक्षा क्षेत्र में एक नई बहस छेड़ दी है, बल्कि लेफ्ट की वैचारिक स्थिति पर भी सवाल उठाए हैं. फिलहाल केरल एकमात्र ऐसा राज्य है जहां निजी विश्वविद्यालय नहीं हैं.

बिल का उद्देश्य और मुख्य प्रावधान

केरल स्टेट प्राइवेट यूनिवर्सिटी बिल, 2025 का मसौदा पहली बार फरवरी 2025 में मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट बैठक में मंजूर किया गया था. इसके बाद इसे विधानसभा के मौजूदा सत्र में पेश किया गया और विपक्ष के हंगामे के बीच ध्वनिमत से पारित कर दिया गया. इस बिल का मुख्य उद्देश्य निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना और संचालन के लिए एक ढांचा तैयार करने के साथ ही यह सुनिश्चित करना है कि ये संस्थान गुणवत्ता मानकों को पूरा करें और राज्य के उच्च शिक्षा क्षेत्र में योगदान दें.

बिल के प्रमुख प्रावधानों की बात करें तो निजी विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए प्रायोजक एजेंसी को शिक्षा क्षेत्र में विश्वसनीय ट्रैक रिकॉर्ड रखना होगा. इसके अलावा, 25 करोड़ रुपये की जमा राशि और कम से कम 10 एकड़ जमीन की जरूरत होगी. ये दोनों केरल में निजी विश्वविद्यालय खोलने के लिए न्यूनतम अर्हता होगी.

इसके अलावा आरक्षण नीति की बात करें तो हर एक विषय में 40 फीसद सीटें केरल के स्थायी निवासियों के लिए आरक्षित होंगी और साथ ही, सभी वर्गों को राज्य की आरक्षण नीतियों के अनुसार लाभ मिलेगा.

विश्वविद्यालयों की स्थापना के लिए एक विशेषज्ञ समिति आवेदनों की समीक्षा करेगी, जिसमें सरकार द्वारा नामित शिक्षाविद, कुलपति, उच्च शिक्षा सचिव और अन्य प्रतिनिधि शामिल होंगे. इसके अलावा, एक गवर्निंग काउंसिल होगी, जिसमें 12 सदस्य होंगे, जिनमें से 3 सरकारी प्रतिनिधि होंगे. विश्वविद्यालयों में शिक्षण, शोध और नवाचार को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर उनकी मॉनिटरिंग की जाएगी.

केरल के उच्च शिक्षा मंत्री आर बिंदु ने बिल को पेश करते हुए कहा, "यह केरल के शिक्षा क्षेत्र के लिए एक क्रांतिकारी कदम है. हम निजी विश्वविद्यालयों के जरिए उच्च शिक्षा तक पहुंच बढ़ाना चाहते हैं, लेकिन यह भी सुनिश्चित करेंगे कि शैक्षणिक मानकों से कोई समझौता न हो."

विपक्ष ने क्यों किया हंगामा

प्राइवेट यूनिवर्सिटी बिल को लेकर केरल विधानसभा में तीखी बहस हुई. विपक्षी दल कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने इसे सैद्धांतिक रूप से खारिज तो नहीं किया, लेकिन कई आपत्तियां दर्ज कीं. विपक्ष के नेता वीडी सतीशन ने कहा, "हम निजी विश्वविद्यालयों के विचार का पूरी तरह विरोध नहीं करते, लेकिन सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इससे सरकारी विश्वविद्यालय प्रभावित न हों. निजी संस्थानों में ऊंची फीस और व्यावसायीकरण से गरीब छात्रों की पहुंच सीमित हो सकती है." सतीशन ने यह भी सुझाव दिया कि विश्वसनीय कॉर्पोरेट शिक्षा एजेंसियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, जो दशकों से राज्य में शिक्षा के क्षेत्र में योगदान दे रही हैं.

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रमेश चेन्निथला ने छात्रों के पलायन का मुद्दा उठाया. उन्होंने कहा, "केरल से हर साल बड़ी संख्या में छात्र उच्च शिक्षा के लिए राज्य से बाहर जा रहे हैं. क्या यह बिल इस समस्या का समाधान करेगा? सरकार को पहले सरकारी विश्वविद्यालयों को मजबूत करना चाहिए."

वहीं, विधानसभा में रिवॉल्यूशनरी मार्क्सिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की विधायक केके रमा ने बिल को पूरी तरह खारिज करते हुए इसे "शिक्षा का नग्न व्यवसायीकरण" करार दिया. उन्होंने कहा, "यह बिल शिक्षा को बाजार में बेचने की तैयारी है, जो गरीब और मध्यम वर्ग के छात्रों के लिए नुकसानदायक होगा."

लेफ्ट का बदलता रुख

केरल में वामपंथी सरकार का यह कदम कई मायनों में चौंकाने वाला है. सीपीआई (एम) और इसकी छात्र शाखा, एसएफआई ने हमेशा ही शिक्षा में निजी क्षेत्र की भागीदारी का कड़ा विरोध किया है. वामपंथियों ने 1980 के दशक में निजी पॉलिटेक्निक और 1990 के दशक में सहकारी क्षेत्र में एक मेडिकल कॉलेज की स्थापना का विरोध किया, 2000 के दशक की शुरुआत में स्व-वित्तपोषित इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों की अनुमति देने और 2014 में कुछ कॉलेजों को स्वायत्तता देने के तत्कालीन कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) सरकार के फैसलों का विरोध किया. उन्होंने आरोप लगाया कि निजी प्रबंधन को सरकारी नियंत्रण के बिना खुली छूट मिलेगी, जिसके परिणामस्वरूप शिक्षा का "व्यवसायीकरण" होगा.

पार्टी का पारंपरिक स्टैंड रहा है कि शिक्षा एक मौलिक अधिकार है, जिसे बाजार के हवाले नहीं किया जा सकता. लेकिन इस बिल के साथ लेफ्ट ने अपनी नीति में बड़ा बदलाव दिखाया है.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह बदलाव व्यावहारिकता और आर्थिक जरूरतों से प्रेरित है. केरल में उच्च शिक्षा की मांग तेजी से बढ़ रही है, लेकिन सरकारी संस्थानों की क्षमता सीमित है. इसके अलावा, राज्य से बड़ी संख्या में छात्र विदेश या अन्य राज्यों में पढ़ने जा रहे हैं, जिससे "ब्रेन ड्रेन" की समस्या पैदा हो रही है. निजी विश्वविद्यालयों को अनुमति देकर सरकार यह पलायन रोकना चाहती है और साथ ही शिक्षा क्षेत्र में निवेश को आकर्षित करना चाहती है.

आलोचकों को डर है कि यह कदम राज्य में शिक्षा को और महंगा बना सकता है. निजी संस्थानों में फीस स्ट्रक्चर और प्रवेश प्रक्रिया पर सरकार का सीमित नियंत्रण होने से गरीब और मध्यम वर्ग के छात्रों के लिए उच्च शिक्षा की राह मुश्किल हो सकती है. इसके अलावा, सरकारी विश्वविद्यालयों पर इसका नकारात्मक असर पड़ सकता है, क्योंकि प्रतिस्पर्धा बढ़ने से उनको संसाधनों की कमी से जूझना पड़ सकता है और उनका महत्व भी कम हो सकता है.

हालांकि केरल सरकार ने आश्वासन दिया है कि निजी विश्वविद्यालयों पर सख्त निगरानी रखी जाएगी. केरल के उच्च शिक्षा मंत्री आर बिंदु ने कहा, "हम यह सुनिश्चित करेंगे कि ये संस्थान जनहित में काम करें, न कि सिर्फ मुनाफे के लिए."

लेकिन बिल के लागू होने के बाद इसके असली प्रभाव को समझने के लिए अभी इंतजार करना होगा. यह बिल न केवल केरल के शिक्षा क्षेत्र के लिए, बल्कि लेफ्ट की राजनीतिक विचारधारा के लिए भी एक परीक्षा है. क्या यह कदम राज्य को उच्च शिक्षा का हब बनाएगा या शिक्षा को बाजार के हवाले कर देगा, यह आने वाला समय ही बताएगा. फिलहाल, यह साफ है कि केरल में प्राइवेट शिक्षा की ओर बढ़ते कदम ने नई संभावनाओं के साथ-साथ नई चुनौतियां भी खड़ी कर दी हैं.

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