अप्रैल की 21 तारीख, इस दिन भोर होने से पहले जब चंद्रमा की धूसर रोशनी पेड़ों से छनकर नीचे धरती पर आ रही थी, झारखंड पुलिस और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) की एक संयुक्त टीम राज्य की लुगु पहाड़ियों की उलझी हुई झाड़ियों के बीच चुपचाप आगे बढ़ रही थी.
यह कोबरा कमांडो की एक संयुक्त टुकड़ी थी. खुफिया जानकारी मिली थी कि जंगल के भीतर माओवादी कैडर का एक बड़ा समूह मौजूद है. भोर होते ही जब सुरक्षा बलों ने एकदम से हमला किया, माओवादी अवाक् रह गए. उन्हें इस बारे में कोई भनक ही नहीं लग पाई थी.
जब तक सूरज पूरी तरह निकला, इस ऑपरेशन में आठ माओवादी मारे गए. इनमें से एक प्रयाग मांझी भी था, जिसे आंदोलन में विवेक दा के नाम से जाना जाता था. वो एक केंद्रीय समिति का सदस्य था जिसके सिर पर 1 करोड़ रुपये का इनाम था. इस छापेमारी का कोडनेम 'डकाबेड़ा' रखा गया था.
डकाबेड़ा की सटीकता कई महीनों की मुश्किल निगरानी और लोकल पुलिस और जंगली युद्धों में एक्सपर्ट कोबरा के बीच समन्वय का एक बेहतरीन उदाहरण है. अधिकारियों ने बताया कि "कार्रवाई योग्य खुफिया जानकारी" के आधार पर टीमें तड़के 05:30 बजे माओवादियों के इलाके में दाखिल हुईं. उनका उद्देश्य सीनियर माओवादी नेताओं को बेअसर करना और उन सभी हथियारों के भंडार को जब्त करना था, जिनसे विद्रोहियों के हथियारों की ताकत का पता चल सकता था.
इस ऑपरेशन की योजना बहुत ही सावधानी से बनाई गई थी. पुलिस को इस बात की सटीक जानकारी थी कि वे किसको निशाना बना रहे हैं और वे कहां छिपे हुए हैं. राज्य के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि माओवादियों के केंद्रीय समिति के सदस्य, जिस पर इतना बड़ा इनाम था, को एक ही ऑपरेशन में मार गिराया गया हो.
यह व्यापक उग्रवाद-विरोधी अभियान में विवेक दा की मृत्यु के रणनीतिक महत्व को बताता है. माओवादी पदानुक्रम में विवेक दा की कुख्याति पिछले दो वर्षों में सुरक्षा बलों के खिलाफ कई हाई-प्रोफाइल घात हमलों को अंजाम देने में उनकी कथित भूमिका से पैदा हुई थी. स्थानीय पुलिस अधिकारी उस पर छत्तीसगढ़ और झारखंड में एक दर्जन से अधिक कर्मियों की हत्या करने वाले हमलों की योजना बनाने का आरोप लगाते हैं. झारखंड पुलिस के अनुसार, उसके मारे जाने से पूर्वी भारत में उग्रवादी नेटवर्क की परिचालन एकजुटता को अहम झटका लगेगा.
बहरहाल, 21 अप्रैल की सुबह एक घंटे से ज्यादा समय तक गोलीबारी चलती रही, जिसके बाद माओवादियों को पीछे हटना पड़ा. जब गोलियों की आवाज कम हुई, तो सुरक्षाकर्मियों ने घटनास्थल की तलाशी ली और भारी मात्रा में हथियार बरामद किए. इनमें एक AK-सीरीज की असॉल्ट राइफल, एक सेल्फ-लोडिंग राइफल (SLR), तीन INSAS राइफल, एक सेमी-ऑटोमैटिक पिस्तौल और आठ देशी भरमार आग्नेयास्त्र शामिल थे.
अधिकारियों ने कहा कि इस तरह के हथियारों से पता चलता है कि विद्रोही लंबे समय तक गुरिल्ला अभियानों के लिए तैयार हैं और दूरदराज के जंगलों में हथियार खरीदने या बनाने की उनकी क्षमता है.
इस ऑपरेशन में सुरक्षा बलों में कोई हताहत नहीं हुआ. अधिकारियों के अनुसार, इस सफलता का बड़ा कारण माओवादियों के लिए सरप्राइज, कठिन प्रशिक्षण और हमले की योजना को सटीक तरीके से अंजाम देना था. पुलिस महानिरीक्षक अमोल विनुकांत होमकर ने एलान किया, "यह वामपंथी उग्रवाद (एलडब्ल्यूई) के खिलाफ एक निर्णायक प्रहार है. यह झारखंड के हर कोने में नक्सलवाद को समाप्त करने और कानून के शासन को बहाल करने के लिए हमारी अटूट प्रतिबद्धता को दर्शाता है."
यह मुठभेड़ राष्ट्रव्यापी अभियान का हिस्सा है जिसके तहत केंद्र सरकार मार्च 2026 तक नक्सलवाद को खत्म करने का लक्ष्य रखती है. 1 अप्रैल को 'एक्स' पर एक पोस्ट में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जानकारी दी कि वामपंथी उग्रवाद से सबसे अधिक प्रभावित जिलों की संख्या आधी होकर छह रह गई है. उन्होंने कहा कि "चिंताजनक जिले" नौ से घटकर छह हो गए हैं जबकि वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित अन्य जिले 17 से घटकर सिर्फ छह रह गए हैं. उन्होंने जोर देकर कहा कि यह संयुक्त सुरक्षा अभियानों और लक्षित विकास परियोजनाओं की सफलता को दर्शाता है.
फिर भी, विश्लेषक चेतावनी देते हैं कि सिर्फ सैन्य जीत से ही उग्रवाद खत्म नहीं होगा. माओवादियों ने लंबे समय से स्वदेशी और अन्य हाशिए पर पड़े समूहों के बीच भूमि अधिकार, विस्थापन और गरीबी से जुड़ी शिकायतों का फायदा उठाया है. उनकी गुरिल्ला रणनीति- घात लगाना, विस्फोटक उपकरण और हत्याएं- जंगल और खनिज समृद्ध इलाकों में एक शक्तिशाली खतरा बनी हुई हैं, जहां सरकार की उपस्थिति ऐतिहासिक रूप से कम रही है.
मारे गए उग्रवादियों के परिवारों के लिए, यह मुठभेड़ उस संघर्ष की याद दिलाती है जिसने दोनों पक्षों पर त्रासदी ला दी है. सरकार ने वर्षों से हथियार डालने वाले माओवादी कैडर के लिए पुनर्वास और आत्मसमर्पण योजनाएं पेश की हैं, जिनमें व्यावसायिक प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता शामिल है. फिर भी, कार्यकर्ताओं का तर्क है कि हिंसा के चक्र को तोड़ने के लिए ऐसी योजनाओं का विस्तार करना होगा और उन्हें भूमि और श्रम अधिकारों पर वास्तविक संवाद के साथ जोड़ना होगा.
बहरहाल, जैसे-जैसे सुरक्षा बल मुठभेड़ स्थल के आसपास और उसके भीतर तलाशी अभियान जारी रख रहे हैं, स्थानीय लोग राहत और आशंका के मिले-जुले भाव से देख रहे हैं. कई ग्रामीणों के लिए, सशस्त्र कैडर की मौजूदगी का मतलब जबरन वसूली, जबरन भर्ती और प्रतिशोध का निरंतर डर रहा है. विवेक दा जैसे प्रमुख नेताओं का खात्मा उग्रवादियों की हमलों को समन्वय करने और नए सदस्यों की भर्ती करने की क्षमता को बाधित कर सकता है.
लुगु हिल्स में हुई मुठभेड़, फिलहाल, भारत के वामपंथी उग्रवाद (एलडब्ल्यूई) के खिलाफ लंबे संघर्ष का एक महत्वपूर्ण अध्याय है. लेकिन एक वास्तविक ऐतिहासिक जीत के लिए न केवल उग्रवादी नेतृत्व के और सफाए की जरूरत होगी, बल्कि एक सामाजिक समझौते की स्थापना भी जरूरी होगी जो उन गहरी जड़ों वाली असमानताओं को दुरुस्त करे, जिन पर माओवादी लंबे समय से फलते-फूलते आए हैं. समर्थकों का कहना है कि केवल तभी झारखंड जैसे राज्यों में शांति और विकास का वादा पूरी तरह से साकार हो सकता है.