हैदराबाद अब केवल तेलंगाना की राजधानी होगी. तेलंगाना के स्थापना दिवस 2 जून से आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम 2014 की ओर से तय शर्तों के अनुसार अब यह शहर आंध्र प्रदेश की राजधानी नहीं रहा. आंध्र प्रदेश की राजधानी अमरावती होगी या कुछ और इस बात का फैसला 4 जून के नतीजों के बाद होगा.
हैदराबाद की बात करें तो आजादी के पहले से यह शहर विवादों के घेरे में रहा है. आजादी और आंध्र प्रदेश के गठन से गुजरता हुआ आखिरकार अब हैदराबाद बहुचर्चित तेलंगाना की राजधानी बना है. इस शहर का इतिहास जितना हिंसक है, उतना ही दिलचस्प. तो शुरू से शुरू करते हैं.
आजादी से ठीक पहले हैदराबाद स्टेट निजाम उस्मान अली खान के शासन में इंडिया के सबसे अमीर राज्यों में शुमार था. तेलंगाना क्षेत्र इसी स्टेट के अंतर्गत आता था. 1945 में इसी तेलंगाना क्षेत्र के किसानों ने कम्युनिस्टों की सहायता से जागीरदारी के खिलाफ जोरदार आंदोलन छेड़ा. उस वक्त कोई लोकतंत्र तो था नहीं और चूंकि हैदराबाद एक प्रिंसली स्टेट था तो सीधे-सीधे अंग्रेजों के आधिपत्य में भी नहीं आता था. नतीजतन निजाम ने बड़ी बेरहमी से इस आंदोलन को कुचल दिया और कई लोगों की जान गई. निजाम और उसकी रजाकार सेना इतनी खूंखार थी कि आजादी के बाद भी सरदार पटेल को 'ऑपरेशन पोलो' चलाना पड़ा, तब जाकर हैदराबाद का भारत में विलय हुआ.
आजादी के बाद हैदराबाद को मद्रास स्टेट के साथ रख दिया गया जिससे आंध्र और तेलंगाना क्षेत्र में आंदोलन भड़क उठा. सरकार की ओर से बनाई गई शुरूआती राज्य पुनर्गठन समितियों ने भाषाई आधार पर राज्यों के विभाजन को नकार दिया था. लेकिन 1952 में तेलुगु राज्य की मांग करते हुए 56 दिनों की भूख हड़ताल के बाद पोट्टी श्रीरामलु की मौत ने सब बदलकर रख दिया.
राज्यों के पुनर्गठन के लिए 1953 में फजल अली आयोग का गठन किया गया जिसने 1955 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की बात कही. फजल अली आयोग ने मराठी बोलने वाले मराठवाड़ा को बॉम्बे स्टेट और कन्नड़ बोलने वाले दक्षिण-पश्चिमी जिलों को मैसूर स्टेट में मिलाने की बात कही. तेलंगाना क्षेत्र, जिसमें हैदराबाद आता है, उसके बारे में फजल अली आयोग का कहना था कि कम से कम 5 सालों के लिए तेलंगाना को अलग राज्य बना देना चाहिए और अगर उसके बाद यह आंध्र में विलय करना चाहे तो इसकी इजाजत दी जानी चाहिए.
5 मार्च, 2014 के इंडिया टुडे मैगजीन के अंक में टीएस सुधीर ने लिखा, "अलग तेलंगाना राज्य की मांग की शुरुआत 1956 में आंध्र प्रदेश के गठन के बाद सीमांध्र के शासकों के हाथों भेदभाव की भावना से शुरू हुई. तटवर्ती आंध्र प्रदेश के उद्योगपति हावी रहे और वहीं के फिल्म निर्माताओं ने खूब मजाक (इस मांग का) भी उड़ाया. तेलुगु बनाम तेलुगु की इस लड़ाई में हैदराबाद की बलि हो रही है."
आंध्र प्रदेश के लिए आंदोलन करने वालों की मांग थी कि तेलंगाना क्षेत्र इसी राज्य में रहना चाहिए ताकि 'विशालांध्र' बनाया जा सके. आंदोलन और एक मौत के बाद सरकार ने किसी भी तरह की छेड़छाड़ करने की जगह आंदोलनकारियों की बात को ही सही ठहराते हुए राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 में तेलंगाना और आंध्र क्षेत्र को मिलाकर आंध्र प्रदेश बना दिया.
हालांकि आजादी के पहले से ही हैदराबाद में दो चीजें बरकरार थीं - पहली तो अलग तेलंगाना राज्य की मांग और दूसरी, मुल्की कानून. दरअसल, आजादी से पहले से ही निजाम ने तेलंगाना क्षेत्र के लोगों के लिए मुल्की कानून लागू कर दिया था जिसके तहत तेलंगाना क्षेत्र के मूल निवासियों या मुल्कियों की नौकरियों की सुरक्षा की बात कही गई थी. आजादी के बाद 1952 में हैदराबाद राज्य की सरकार में तेलंगाना क्षेत्र के लोगों ने मुल्की कानून के सख्ती से पालन के लिए आंदोलन किया जिसे मुल्की आंदोलन कहा गया.
इसी मुद्दे को लेकर जनवरी 1969 में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ. हालांकि सरकार ने तेलंगाना निवासियों के लिए आरक्षित पदों पर नियुक्त सभी गैर-तेलंगाना कर्मचारियों को स्थानांतरित करने का वादा करते हुए कार्रवाई की, लेकिन यह मुद्दा शांत नहीं हुआ. इन्हीं विरोध प्रदर्शनों ने तेलंगाना प्रजा समिति को जन्म दिया, जिसने नौकरियों में आरक्षण के साथ ही एक अलग तेलंगाना राज्य की भी मांग की.
संविधान में 32वें संशोधन के तहत सितंबर 1973 में इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने घोषणा की कि आंध्र प्रदेश को 6 क्षेत्रों में विभाजित किया जाएगा, जिसमें नौकरियों के लिए आरक्षण क्षेत्रों के आधार पर तय किया जाएगा. इसी के साथ असल मुल्की नियम अधिनियम को निरस्त कर दिया गया.
2001 में केसीआर ने फिर से इस मुद्दे को जिन्दा किया. तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के सदस्य के रूप में उन्होंने इस्तीफा दिया और अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी - तेलंगाना राष्ट्र समिति की स्थापना की. इस पार्टी का एकमात्र उद्देश्य हैदराबाद को राजधानी बनाकर तेलंगाना का एक नया राज्य बनाना था.
अलग तेलंगाना की लड़ाई की जड़ में असल मुद्दा हैदराबाद पर विवाद था. इससे करीब लाखों की आबादी वाले शहर में सबको बताना पड़ रहा था कि वे तेलंगाना वाले हैं या सीमांध्र के.
चुनावों में कुछ खास प्रदर्शन ना कर पाने वाले केसीआर को मौका तब मिला जब 2009 में तत्कालीन आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता वाईएसआर रेड्डी की मौत हुई. रेड्डी उस समय आंध्र प्रदेश के सबसे बड़े नेता थे और उनकी मौत के बाद खूब सियासी हल्ला मचा. 29 नवंबर, 2009 को केसीआर ने राज्य की मांग को लेकर आमरण अनशन शुरू किया. कांग्रेस 10 दिनों के भीतर झुक गई और अलग तेलंगाना राज्य का वादा किया.
आंदोलन इतना तीव्र हो चला था कि जनवरी, 2010 में टीआरएस के नेताओं ने तो यहां तक कह दिया था कि तटवर्ती आंध्र प्रदेश के जो लोग संक्रांति का उत्सव मनाने के लिए अपने गांव गए हैं, उन्हें स्थानीय निवासी वापस हैदराबाद में प्रवेश न करने दें.
टीएस सुधीर बताते हैं कि दिसंबर 2009 के बाद से तीनों क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषा एक जैसी सुनाई देने लगी थी - पैनी, कठोर और ठेस पहुंचाने वाली. जब एकीकृत आंध्र और तेलंगाना समर्थक एक-दूसरे को गाली देने पर आते तो एक राज्य की धारणा तार-तार हो जाती थी.
केसीआर के अनशन के लगभग साढ़े चार साल बाद 2 जून 2014 को तेलंगाना अस्तित्व में आया. हैदराबाद को दस सालों के लिए आंध्र और तेलंगाना दोनों की संयुक्त राजधानी के रूप में चुना गया.
टीएस सुधीर ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि तेलंगाना की जड़ में ज्यादा विवाद हैदराबाद को लेकर ही था. 2000 में बने तीन नए राज्यों (उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़) की तुलना में इस नए राज्य को राजधानी शहर हैदराबाद मिल रहा था और मूल राज्य को अपनी राजधानी नए सिरे से बनानी थी. लेकिन हैदराबाद की लड़ाई सिर्फ पुलों, इमारतों, उद्योगों और शहर में मौजूद शिक्षा और रोजगार के अवसरों की नहीं थी, इसका भावनाओं से गहरा ताल्लुक है.
सीमांध्र के लोगों का तर्क था कि उन्होंने अपनी पूंजी और मेहनत से हैदराबाद शहर खड़ा किया. तेलंगाना वालों का इसपर कहना था कि उनके संसाधन, जमीन और लोगों के पसीने को चूसकर ऐसा किया गया है. उनका मानना था कि तेलंगाना राज्य का गठन करके अतीत में हुई भूलों को सुधारने की तरफ कदम बढ़ाया गया है और अब उन्हें अपने शासन का मौका मिला है.
और अब आख़िरकार वो वक्त आ गया जिसका तेलंगाना और आंध्र प्रदेश, दोनों राज्यों की जनता को इंतजार था. 2 जून 2024 से हैदराबाद अब सिर्फ तेलंगाना की राजधानी होगी और आंध्र प्रदेश विधानसभा के 4 जून के नतीजों के बाद वहां की सरकार यह तय करेगी कि उनकी राजधानी अमरावती होगी, जैसा पहले से प्रस्तावित था.