इसी साल बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं. इस चुनावी वर्ष में, इफ्तार पार्टियों में कुछ ज्यादा ही राजनीतिक तड़का दिख रहा है. इनमें परोसी गई हर थाली वोटों की बोली है और हर जमावड़ा प्रतीकवाद का मंच. 23 मार्च को जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पटना में अपने आधिकारिक आवास 1, अणे मार्ग पर दावत-ए-इफ़्तार का आयोजन किया, तो यह न तो उस शाम बिहार की एकमात्र राजनीतिक इफ़्तार था और न ही सबसे ज़्यादा भीड़भाड़ वाला.
मुख्यमंत्री के बंगले से लगभग 225 किलोमीटर दूर, कांग्रेस नेता ललन यादव ने भागलपुर जिले में अपना भव्य इफ़्तार आयोजित किया, जिसके बारे में उनका दावा है कि इसमें हज़ारों की संख्या में लोग शामिल हुए थे और रिपोर्ट्स भी इसकी पुष्टि करती हैं. ललन यादव के लिए यह महज सांप्रदायिक सौहार्द की कवायद नहीं थी, यह आगामी विधानसभा चुनावों से पहले करीने से परोसा हुआ एक शक्ति प्रदर्शन था.
2020 के चुनावों में भागलपुर की सुल्तानगंज विधानसभा सीट से चुनाव लड़ते हुए, ललन यादव 61,000 से अधिक वोट हासिल कर भी जीत नहीं सके थे. हालांकि, इस बार चुनावी परिदृश्य बदल गया है. चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), जिसने 2020 में नीतीश की जनता दल (यूनाइटेड) के खिलाफ उम्मीदवार उतारे थे, अब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पाले में मजबूती से हैं. ललन यादव का तर्क है कि उस समय एलजेपी को 10,000 से अधिक वोट पार्टी के प्रति वोटर्स की वफादारी के लिए नहीं बल्कि नीतीश के विरोध में मिले थे. अब जब चिराग मुख्यमंत्री के साथ जुड़ गए हैं, तो ललन यादव को एक अवसर दिखाई दे रहा है - अगर नीतीश विरोधी भावना बनी रहती है, तो उन असंतुष्ट मतदाताओं को जेडी(यू) के साथ जाने देने के बजाय अपने खेमे में लाने से फायदा कांग्रेस नेता को हो सकता है.
इफ़्तार, रमज़ान के दौरान शाम में रोज़ा खोलने का प्रतीक है, जिसमें पारंपरिक रूप से चिंतन, सामुदायिक भाईचारा और एकजुटता दिखती है. फिर भी 2025 के बिहार के हाई वोल्टेज राजनीतिक माहौल में, इसकी एक अतिरिक्त रणनीतिक भूमिका है - चुनावी पैंतरेबाज़ी के लिए एक मंच उपलब्ध कराना. इस साल राज्य में चुनाव होने वाले हैं, इफ़्तार पार्टियों ने नया राजनीतिक महत्व हासिल कर लिया है. इनमें गठबंधन की पुष्टि की जाती है, संकेत भेजे जाते हैं और शिकायतें दर्ज की जाती हैं.
बिहार की आबादी में करीब 17 प्रतिशत मुसलमान हैं और वे चुनावी तौर पर काफी प्रभावशाली हैं. कई अहम निर्वाचन क्षेत्रों में वे अक्सर नतीजों को प्रभावित करते हैं. चूंकि पार्टियां उनके समर्थन के लिए होड़ करती हैं, इसलिए इफ्तार का निमंत्रण अब केवल साझा भोजन न रहकर, सत्ता पर दावा जताने का एक जरिया बन गया है.
नीतीश की इफ्तार पार्टी भी सुर्खियों में रही, जिसमें बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए. लोगों के चेहरे खिले हुए थे, प्लेटें भरी हुई थीं और कैमरे चमक रहे थे. लेकिन शाम की सबसे बड़ी तस्वीर यह नहीं थी कि कौन आया, बल्कि यह थी कि कौन नहीं आया. आधा दर्जन मुस्लिम संगठन, जो कभी नीतीश के भरोसेमंद सहयोगी थे, ने दावत का बहिष्कार किया. उनकी अनुपस्थिति को कई लोगों ने चुप्पी में लिपटी फटकार के रूप में देखा.
उनकी शिकायत? जेडी(यू) की ओर से विवादास्पद वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2024 का समर्थन. इफ़्तार का उद्देश्य एकता का प्रदर्शन करना था, लेकिन इसके बजाय इसने बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में दरारों को उजागर कर दिया. नीतीश की मेज़ से कुछ लोगों के गायब होने के बावजूद, मेहमानों की सूची में दिग्गज शामिल थे - राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान, बीजेपी नेता और उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी और अन्य राजनीतिक दिग्गज, सभी कैमरे के सामने मुस्कुराते हुए फिरनी परोस रहे थे.
फिर जवाबी खेल शुरू हुआ. बिहार की राजनीतिक बिसात के चतुर दिग्गज लालू प्रसाद यादव ने अगली शाम यानी 24 मार्च को अपनी इफ्तार दावत की घोषणा कर दी. यह कोई संयोग नहीं था. जिन लोगों ने नीतीश की सभा का बहिष्कार किया था, उनके लिए यह एक वैकल्पिक भोज तो था ही, साथ-साथ वफादारी को फिर से संगठित करने का निमंत्रण भी था. बिहार में, जहां राजनीतिक संकेत इस बात पर भी निर्भर करते हैं कि कौन कहां खाता है और किसके साथ खाना खाता है, यह एक ऐसा भोज था जिसमें अवज्ञा का भाव भी था.
मतलब साफ़ था - इस चुनावी मौसम में, रोज़ा खोलना भी मुस्लिम मतदाताओं पर किसका प्रभाव है, इसकी प्रतियोगिता बन गई है. इफ्तार, जो कभी एक गंभीर सांप्रदायिक मामला था, अब एक राजनीतिक जनमत संग्रह में बदल चुका है. और इस दिखावे की लड़ाई में, सवाल सिर्फ़ यह नहीं है कि सबसे अच्छे कबाब कौन परोसता है; बल्कि यह है कि सत्ता के लिए मेज़ कौन सजाता है.
अन्य राजनीतिक हस्तियां भी पीछे नहीं रहना चाहतीं, इसलिए वे भी इस दौड़ में शामिल हो गई हैं. चिराग ने खुद इफ्तार पार्टी का आयोजन किया है, जिसका उद्देश्य नए सिरे से गठबंधन को मजबूत करना है, जबकि नीतीश के मंत्री जमा खान ने भी एक भोज का आयोजन किया, जिसका उद्देश्य प्रभावशाली मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करना है. पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी, जो अब केंद्रीय मंत्री हैं, और उनके बेटे संतोष मांझी, जो नीतीश कैबिनेट के सदस्य हैं, ने भी अपनी-अपनी इफ्तार पार्टियां आयोजित की हैं, जिनमें से प्रत्येक ने चुनावी संकेत देने की कोशिश की.
बिहार में, जहां रोज़ा खोलना भी सत्ता पर जनमत संग्रह बन गया है, इफ़्तार डिनर अब सिर्फ़ चिंतन और एकजुटता के बारे में नहीं रह गए हैं. वे अब राजनीतिक अभिव्यक्ति का वास्तविक रंगमंच बन चुके हैं और हर दावत कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों में दिल, दिमाग और वोट की लड़ाई में एक सुनियोजित चाल है.