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बिहार : छठ के पहले ‘मालिक जी’ का रुतबा पाने वाले डोम जाति के लोग बाद में क्या कुछ झेलते हैं?

वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले तबके शूद्रों में भी आखिर में आने वाली जाति डोम के लोगों की अहमियत छठ के दौरान काफी बढ़ जाती है. इस जाति के लोग जो सूप और दोड़ा (टोकरी) बनाते हैं, दरअसल उन्हीं से छठ की पूजा होती है. लेकिन इस दौरान भेदभाव महसूस न करने वाले इन लोगों के लिए साल के बाकी दिन इस तरह नहीं बीतते

छठ पूजा के लिए सूप बनातीं राजापुर गांव की रेणु और अरुणा
अपडेटेड 4 नवंबर , 2024

सारण जिले के राजापुर गांव में अरुणा देवी अपने घर में छठ के लिए सूप और दौड़ा बीनती मिलती हैं. वे कहने लगती हैं, "छठ ही ऐसा परब है कि सब छूआछूत बंद हो जाता है. बारहों बरन (सभी वर्ण) का लोग हम लोगों के इहां आता है, बैठकर चाय पीयेगा, मल्लिक जी, मल्लिक जी कहेगा. बोलेगा हमरा काम पहले कर दीजिये मालिक. राजपूत-भूमिहार सब आता है, हम लोगों के दुआर."

अरुणा देवी डोम जाति से संबंध रखती हैं. राजापुर गांव में इस जाति के सिर्फ दो घर हैं और इन्हीं दो घरों पर पूरे गांव के लोगों के लिए छठ के सूप और दौड़ा (टोकरी) तैयार करने की जिम्मेदारी है. इस इलाके में हर घर में छठ होता है और हर घर में कम से कम पांच सूप और दो दौड़ा की खपत हो ही जाती है. इसलिए आजकल इन दोनों परिवारों का महत्व बढ़ा हुआ है. जिस डोम जाति को अछूत माना जाता रहा है, लोग साल भर कम ही आते हैं. इन दिनों उनके दरवाजे पर लोगों का आना-जाना काफी बढ़ गया है.

छठ को बिहार में महापर्व की संज्ञा दी गई है. एक तरफ जहां इस पर्व में गीत से लेकर प्रसाद तक में स्थानीयता को प्रधानता दी जाती है, वहीं कुम्हार, ठठेरा और ढोल बजाने वाली जातियों तक की अलग-अलग जिम्मेदारियां होती हैं. कुम्हार मिट्टी के दीये और बर्तन बनाता है, ठठेरा पीपल के बर्तन और ढोल बजाने वाले हाल-हाल तक ढोल बजाकर सुबह और शाम के अर्ध्य की सूचना देते रहे हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका डोम जाति की होती है, जो बांस से सूप और दौड़ा बुनते हैं. 

डोम जाति पर किताब डोम जाति-समग्र सामाजिक संस्कृति  लिखने वाले अश्विनी कुमार आलोक कहते हैं, "डोम जाति के लोग हिंदू धर्म में सबसे नीचे के तबके में माने जाते हैं. इनके छुए हुए पानी-अन्न को त्यज्य माना जाता है मगर इनके बनाये सूप से न सिर्फ लोगों की गृहस्थी चलती है, बल्कि छठ समेत कई अनुष्ठान इनके बनाये सूप और दौड़ा से संपन्न होते हैं. लोग सिर्फ पानी से धोकर इनका इस्तेमाल कर लेते हैं."

खगड़िया में डोम जाति के साथ काम करने वाले संजीव डोम जिन्होंने इस जाति के साथ खुद को एकाकार करने के लिए अपना टाइटल बदल लिया है, कहते हैं, "छठ से पहले जिस डोम जाति के साथ भेदभाव होता है, छठ में लोग इनसे सटकर इनसे मनुहार करते हैं, ऐ राजा हमको सूप पहले दे दीजिये. इस दौरान इनके प्रति लोगों का व्यवहार ऐसा बदल जाता है कि हम सोचते हैं, छठ महापर्व साल में कई-कई बार आये."

मढ़ौरा के डोमपट्टी में सूप बनाते डोम जाति के कारीगर
मढ़ौरा के डोमपट्टी में सूप बनाते डोम जाति के कारीगर

सिर्फ सूप ही नहीं छठ के गीतों में भी डोम जाति का जिक्र और बखान खूब मिलता है. जैसे कुछ गीत हैं- दउरवा लावे गईनी ए दीनानाथ डोमवा के दुआर... ( यानी हे दीनानाथ दौड़ा लाने के लिए हम डोमवा के दरवाजे पर गये).  इन्हें गीतों में भैया कहकर भी पुकारा जाता है, जैसे- सुपवा दउरवा दीहें डोम भइया (डोम भैया, सूप और दौड़ा दीजिये). डोम भइया, सूप दीहू, छठी मइया आइहें, अंगनवा (डोम भैया, सूप दीजिये, छठी मैया अंगने में आएगी).

यह नाता सिर्फ सूप के लेन-देन तक नहीं. एक गीत में तो घाट पर डोम की बेटी को सूप लिये खड़ा बताया गया है. वह गीत है- डोमिन बेटी सूप नेने ठाढ़ छै, उग ह सुरूज देव, अरघ के बेर ( डोम की बेटी सूप लिये खड़ी है, सूर्यदेव आप उगिये, अर्घ का वक्त हो गया है). छठ पर्व का बखान करने वाले लोग कहते हैं कि यह ऐसा पर्व है कि इसमें छुआछूत भी बिल्कुल खत्म हो जाता है मगर क्या डोम लोगों के साथ ऐसा सचमुच होता है?

क्या घाटों पर भी मंजूर है डोम का साथ?

राजापुर में जब अरुणा देवी यह दावा कर रही होती हैं कि इस पर्व में हम लोगों के साथ कोई छुआछूत नहीं होता, तभी उनकी देवरानी डेजी देवी कहती हैं, "कुछ लोग अभी भी छुआछूत करते ही हैं." हालांकि काफी जोर देने पर भी वे इस बात को साफ-साफ नहीं बतातीं कि ऐसे कौन लोग हैं, जो छठ में भी डोम जाति के साथ छुआछूत करते हैं.

इसका थोड़ा संकेत सारण जिले के ही मढौरा कस्बे में मिलता है. वहां डबरा नदी के किनारे डोम जाति के 40-50 घरों की बस्ती है. उस बस्ती में भी लोग सूप और दौड़ा बीनने और बेचने में व्यस्त दिखते हैं. बस्ती से बाहर नदी के किनारे बने छठ घाट पर जब हम पहुंचते हैं तो वहां जादोलाल बांसफोड़ मिलते हैं, जो घाट पर छठी मैया की पिंडी बनवा रहे हैं. वे गर्व से बताते हैं कि यह डोम जाति के लोगों का अपना छठ घाट है. 

"क्या इस घाट पर दूसरे लोग नहीं आते?" उनका जवाब होता है, "नहीं यह सिर्फ हमही लोगों का घाट है." "आप लोग अगर दूसरे घाट पर छठ करने जायें तो दिक्कत होगी?" "नहीं कोई दिक्कत नहीं, लेकिन हम लोग कुछ समझ-बूझकर अपना अलग घाट बना लिये हैं, जानबे करते हैं, थोड़ा रहता है." बहुत जोर देने पर वे आगे हैं, "कहीं और जाएं तो कोई टोक सकता है इसलिए हम लोग खुद परहेज कर लिये हैं. अपना घाट है, यहां कोई कुछ कहेगा नहीं."

संजीव डोम भी इस बात को स्वीकार करते हैं, "खगड़िया में भी गंगा के किनारे डोम जाति के व्रती थोड़ा अलग ही खड़े रहते हैं. पहले तो वे गंगा की मुख्यधारा में स्नान भी नहीं करते थे. 2006 के आसपास हम लोगों ने इसके लिए संघर्ष किया और उन्हें गंगा में स्नान करने का अधिकार दिलाया."

पटना में सूप और दउरा बेचतीं अनीता
पटना में सूप और दउरा बेचतीं अनीता

ग्रामीण इलाकों में हर जगह यह सुनने को मिलता है कि डोम जाति के लोगों के घाट अलग हैं. अगर एक ही घाट है तो उसमें भी डोम जाति के लोग अलग खड़े होते हैं. हालांकि शहरों में यह शिकायत नहीं के बराबर है. पटना में कंकडबाग में सूप बनाकर बेचने वाली अनीत कहती हैं, "हम लोग गायघाट पर जाते हैं, वहां कोई पूछने वाला नहीं है कि आप कौन जात हैं लेकिन समस्तीपुर के ताजपुर में जहां मेरा गांव है, वहां छुआछूत होबे करता है. वहां हमलोगों का अलग घाट है."

वे कहती हैं, "लेकिन ऐसा होना नहीं चाहिए. सूरज देब तो सबके हैं. छठी मैया सबकी है. मुसलमान तक छठ बरत करता है. इसमें तो छुआछूत नहीं होना चाहिए. हम लोगों से तो खासकर नहीं होना चाहिए. हम लोगों का ही सूप लेकर तो आप लोग छठ करते हैं."
और छठ के बाद?

क्या छठ पर्व में डोम जाति के प्रति जो सहृदयता पैदा होती है, वह छठ के बाद भी बची रहती है? यह बड़ा सवाल है. राजापुर में सूप बनाने वाले विनोद कुमार कहते हैं, "होटलों में तो आज भी खूब छुआछूत होती है. चाय के लिए हम लोगों को अलग से कप देंगे. खाना होटल की थाली में नहीं बल्कि थर्मोकोल के प्लेट में देते हैं." उनके ही घर में डेजी देवी यही बात कहती हैं कि होटलों में छुआछूत बची हुई है. 

मढौरा के जादोलाल कहते हैं, "हमारे बगल के मंदिर में छुआछूत खत्म हो गई. पुजारी जी कहते हैं, अब पुराना वाला बात रहा नहीं, खूब आओ, जाओ, पूजा करो. हम लोगों का बच्चा भी अब मंदिर जाता है. लेकिन होटल में, खाने के ठेला पर, चाय की गुमटी में छुआछूत बचा हुआ है. हम होटल वाले की भी गलती नहीं मानते. कस्टमर बोलता होगा, उन लोगों को. बेचारा बिजनेस चला रहा है, क्या करेगा?"

मढौरा में डोम जाति के छठ घाट पर खड़े जादोलाल बांसफोड़
मढौरा में डोम जाति के छठ घाट पर खड़े जादोलाल बांसफोड़

भाजपा के अनुसूचित जाति मोर्चा से जुड़े कृष्ण कुमार आंबेडकर बिहार में डोम जाति के गिने-चुने नेताओं में से एक हैं, जो राजद और जदयू में भी रह चुके हैं. वे कहते हैं, "छठ में तो लोग इस डर से छुआछूत नहीं करते कि सूर्य नारायण नाराज हो जायेंगे और सजा दे देंगे. क्योंकि उनके नजर में सभी मनुष्य़ बराबर हैं. लेकिन ऐसा केवल छठ भर है. उस दौरान हम लोगों को बैठाकर प्रसाद भी खिलाया जाता है. लेकिन इसके बाद छुआछूत की जो परंपरा सदियों से इस देश में चली आ रही है, वह कायम रहती है." 

आंबेडकर आगे यह भी बताते हैं, "बाथरूम की सफाई के लिए जब डोम जाति का स्वीपर जाता है, तो एक तो लोग काम भी करवाते हैं. लेकिन कहते हैं कोई और चीज वह न छुएं. अगर गलती से छुआ गया तो टोकने लगते हैं. कुर्सी पर बैठने नहीं देते. स्वेच्छा से अगर कुछ खाने दिया भी तो वे हाथ में न देकर ऊपर से गिरा देते हैं. ताकि स्पर्श न हो."

हालांकि डोम जाति में भी आपसी छुआछूत खूब है. राजापुर की अरुणा देवी बड़े गौरव से कहती हैं, "हम लोग बांसफोड़ हैं, मगहिया डोम नहीं. मगहिया डोम से लोग ज्यादा छुआछूत करते हैं. हम लोगों के साथ उतना छुआछूत नहीं. मगहिया डोम के घर तो हम लोग भी खाना-खाने नहीं जाते." छठ के लिए सूप और दौड़ा बनाने का काम बांसफोड़ उपजाति के डोम ही करते हैं, मगहिया डोम सूप और दौड़ा बनाना नहीं जानते. जाति आधारित गणना के मुताबिक बिहार में धनगड़, बांसफोड़, धारीकर, धरकर और डोमरा भी डोम जाति में आते हैं. इनकी आबादी 2.63 लाख है, जो राज्य की कुल आबादी का 0.20 फीसदी है.  

राजनीतिक छुआछूत के भी शिकार हैं डोम

कृष्ण कुमार आंबेडकर का दावा है कि बिहार में डोम राजनीतिक छुआछूत के भी शिकार हैं इसलिए आजादी के बाद से आज तक बिहार में डोम जाति का कोई आदमी न विधायक बना है, न विधान पार्षद, न एमपी, मंत्री-मुख्यमंत्री तो बहुत दूर की बात है. कृष्ण कुमार के मुताबिक कोई भी पार्टी डोम जाति के लोगों को चुनाव का टिकट नहीं देती है. 1985 में एक बार भाजपा ने फुलवारी शरीफ से डोम जाति के तूफानी राम को टिकट दिया था, 2020 में भी राजद ने एक डोम जाति के व्यक्ति को टिकट दिया, मगर टिकट वापस ले लिया गया और उसकी हत्या कर दी गई. मगर उसके बाद एक भी डोम को टिकट नहीं मिला.  

कृष्ण कुमार इसी बातचीत में एक और विडंबना की तरफ इशारा करते हैं, "हर पार्टी बाबा साहेब आंबेडकर की पूजा करती है, पीएम और सीएम भी पूजा करते हैं. लेकिन लोग उनकी डोम जाति के किसी नेता को आगे नहीं बढ़ाते. उसको कार्यकर्ता बनाकर झंडा फहरवाते हैं. पार्टी में भी प्रतिनिधित्व नहीं मिलता. हम लोगों से धोबी और नाई जाति के लोगों की संख्या कम है, मगर उनको टिकट मिल जाता है, हम लोगों को नहीं मिलता. यह मानसिकता है. बिहार में 24 दलित जातियां हैं, उनमें सिर्फ पांच जातियों के लोग ही राजनीति में हैं. यहां विधानसभा की 38 सीटें आरक्षित हैं, इनमें 13 पर पासवान जाति, 10 पर चमार जाति, 8-9 पर मुशहर का, दो पर धोबी और दो पर पासी जाति का कब्जा है, बाकी की कहानी खत्म है. यहां परिवारवाद भी बहुत घुसा हुआ है."

भाजपा नेता कृष्ण कुमार आंबेडकर डोम जाति के गिने चुने राजनेताओं में से एक हैं
भाजपा नेता कृष्ण कुमार आंबेडकर डोम जाति के गिने चुने राजनेताओं में से एक हैं

जाति आधारित गणना में डोम जाति का पिछड़ापन

जाति आधारित गणना के मुताबिक राज्य में डोम जाति के 53.10 फीसदी परिवार छह हजार से भी कम मासिक आय में जीवन गुजारते हैं. सिर्फ 25 फीसदी परिवार ही दस हजार रुपये मासिक से अधिक कमाते हैं. आरक्षण के बावजूद कुल आबादी के सिर्फ 1.24 फीसदी डोम को सरकारी नौकरी मिली है. सिर्फ 33 फीसदी लोगों के पास पक्का मकान है. पूरी जाति में सिर्फ 259 लोग एमए पास हैं, 59 इंजीनियरिंग पास और सिर्फ 13 डॉक्टर हैं.  

बिहार के सबसे बड़े पर्व छठ में जिस डोम जाति को इतनी प्रधानता मिलती है, उसका यह पिछड़ापन जानकार लोगों को समझ से परे लगता है. बिहारी लोक संस्कृति के अध्येता और छठ पर्व पर विशेष काम करने वाले निराला बिदेसिया कहते हैं, "डोम जाति का महत्व बिहार में सिर्फ इतना ही नहीं है. राज्य की पहली दलित कविता और पहली ज्ञात भोजपुरी कविता डोम जाति के ही हीरा डोम ने लिखी थी. अछूत की शिकायत, जो 1914 में सरस्वती जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपी थी. जब हम बनारस के डोम से बिहार के डोम की तुलना करते हैं तो दुख होता है. बनारस में डोम जाति के लोगों ने एक तरह का सम्मान और अधिकार हासिल किया है, यहां इतनी महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के बावजूद डोम वैसा सम्मान हासिल नहीं कर पाये."

आखिर में हीरा डोम रचित कविता ‘अछूत की शिकायत’ के दो अंश पढ़ें.

खम्भवा के फारि पहलाद के बँचवले जाँ,
ग्राह के मुँह से गजराज के बचवले.
धोतीं जुरजोधना कै भइआ छोरत रहै,
परगट होके तहाँ कपड़ा बढ़वले.

मरले रवनवाँ कै पलले भभिखना के,
कानी अँगुरी पै धैके पथरा उठवले.
कहँवा सुतल बाटे सुनत न वाटे अब,
डोम जानि हमनी के छुए से डेरइले.      

अर्थ- जिन्होंने खम्भे को फाड़कर प्रह्लाद को बचाया, ग्राह के मुख से गजराज को बचाया, दुर्योधन का भाई दुःशासन जब द्रौपदी का चीर हरण कर रहा था, तब प्रकट होकर चीर को बढ़ाया, रावण का संहार किया और विभीषण का पालन किया तथा कानी उंगली पर पहाड़ उठाया. वह भगवान कहां सोया हुआ है, हमारी बात नहीं सुन रहा है, क्या हमें डोम जानकर छूने से डर रहा है?

हड़वा मसुइया कै देहियाँ है हमनी कै,
ओकारै कै देहियाँ बभनओं कै बानीं.
ओकरा कै घरे घरे पुजवा होखत बाजे,
सगरै इलकवा भइलैं जिजमानी.

हमनी के इनरा के निगिचे न जाइलेजाँ,
पाँके में से भरि-भरि पिअतानी पानी.
पनहीं से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमनी के एतनी काही के हलकानी
.

अर्थ- हम लोगों का शरीर भी हाड़-मांस का बना हुआ है. ऐसा ही शरीर ब्राह्मण का भी है. उसकी पूजा घर-घर में हो रही है, सारे क्षेत्र में उसकी यजमानी चल रही है. हम लोगों को कुएं के पास भी नहीं जाने दिया जाता है और पांक में से ही पानी भरकर हम पीते हैं. जूते से पीट-पीटकर हमारे हाथ-पैर तोड़ दिए जाते हैं. हम लोगों पर इतनी परेशानी व अत्याचार क्यों? (यह अनुवाद दलित देवो भव पुस्तक, लेखक- किशोर कुणाल से उद्धृत है.)

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