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भारत के शहरी इलाकों में कम वोटिंग के लिए जिम्मेदार 'अर्बन वोटर एपेथी' आखिर है क्या?

लोकसभा चुनाव-2019 में देशभर में जिन 50 सीटों पर सबसे कम मतदान दर्ज हुआ था, उनमें से 17 सीटें महानगरों या बड़े शहरों की थीं

प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर
अपडेटेड 26 अप्रैल , 2024

अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का एक मशहूर कथन है, "बैलेट, बुलेट से ज्यादा ताकतवर होता है." उनके इस कथन में वोटिंग की अहमियत साफ दिखती है. लेकिन बीते कुछ सालों में बेंगलोर, हैदराबाद जैसे भारत के कुछ प्रमुख शहरों की बात करें तो यहां के मतदाताओं में वोटिंग को लेकर एक अरुचि नजर आई है. वोटिंग के लिए घरों से कम लोग निकले हैं.  

ऐसे में इन शहरों में कम वोटिंग प्रतिशत को लेकर चिंता स्वाभाविक है. सामान्य समझ कहती है कि एक ऐसे शहर में जहां हर तरह की सुविधाएं मौजूद हों, लोगों की जीवनशैली का स्तर अच्छा हो. वहां के लोगों की इस बात में दिलचस्पी होनी चाहिए कि उनके भविष्य की बागडोर किसके हाथों में जा रही है. लेकिन ऐसा नहीं है. विशेषज्ञ इन जगहों पर कम मतदान के पीछे 'वोटर एपेथी' को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं.

वोटर एपेथी से मतलब उस स्थिति से है जब वोटर राजनीतिक गतिविधियों से दूरी बनाने लगते हैं, उनमें एक अरुचि पैदा हो जाती है. उन्हें लगता है कि उनकी वोटिंग से कुछ बदलने वाला नहीं है. इससे वोटिंग प्रक्रिया में उनकी दिलचस्पी कम होने लगती है. इसके अलावा आलस, जागरूकता की कमी जैसे कुछ अन्य फैक्टर भी हैं जो उन्हें मतदान करने के लिए जाने से रोकते हैं. बड़े शहरों में ये ट्रेंड ज्यादा है.

भारत के केंद्रीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) के डेटा के मुताबिक 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में देशभर में जिन 50 सीटों पर सबसे कम वोटिंग प्रतिशत दर्ज हुआ, उनमें से 17 सीटें महानगरों या बड़े शहरों की थीं. इनमें हैदराबाद में 44.84 फीसद, पुणे में 49.89,  मुंबई साउथ में 51 फीसद तो बेंगलोर साउथ में 53.70 फीसद मतदान दर्ज किए गए थे. कानपुर, प्रयागराज, लखनऊ और नागपुर जैसे शहरों का भी हाल कुछ अच्छा नहीं था. इन सभी शहरों में 55 फीसद से कम वोटिंग हुई.

इन बड़े शहरों में कम मतदान के पीछे वोटर एपेथी के अलावा भी अन्य वजहें भी हैं. दिल्ली स्थित संस्था 'यंग इंडिया फाउंडेशन' के संस्थापक सुधांशु कौशिक कहते हैं, "हैदराबाद, पुणे और बेंगलोर जैसे शहरों में कम वोटिंग के पीछे एक प्रमुख वजह यह है कि वहां छात्रों और युवा पेशेवरों के रूप में जो एक बड़ी आबादी है, उनका वोटर के रूप में नाम ही दर्ज नहीं है."

वहीं, सीएसडीएस (सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज) में लोकनीति के को-डायरेक्टर संजय कुमार इसके पीछे एक अलग मत पेश करते हैं. वे कहते हैं, "असंगठित क्षेत्रों में जो लोग काम करते हैं उन्हें वोट देने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है क्योंकि उन्हें इसके लिए छुट्टी नहीं मिल पाती. और वे अपनी दिहाड़ी छोड़कर वोट डालने नहीं जा सकते."

बहरहाल, 18वीं लोकसभा के लिए हो रहे 2024 के इस चुनाव में भी मतदाताओं की अरुचि सामने आई. बीते 19 अप्रैल को 102 लोकसभा सीटों पर मत डाले गए. यह चुनाव का पहला और सबसे बड़ा चरण था. लेकिन 2019 लोकसभा चुनाव से इसकी तुलना करें तो इन सभी सीटों पर चार फीसद कम वोटिंग हुई. पहले चरण के लिए योग्य मतदाताओं की संख्या करीब 16 करोड़ थी लेकिन 65.50 फीसद वोटरों ने ही मतदान किया.

लेकिन इससे भी ज्यादा चिंता की बात ये है कि इस बार के लोकसभा चुनावों में जितने भी योग्य मतदाता पहली बार वोट डालने वाले थे, उनमें से 40 फीसद से भी कम वोटरों ने मतदान के लिए अपना पंजीकरण कराया है. सबसे बुरा हाल बिहार का है जहां 18-19 साल के करीब 54 लाख योग्य मतदाता हैं लेकिन उनमें से महज 9.3 लाख वोटरों ने ही पंजीकरण कराया है. यानी 17 फीसद के करीब. इस मामले में उत्तर प्रदेश का हाल भी ठीक नहीं कहा जा सकता जहां महज 23 फीसद फर्स्ट टाइम वोटरों ने रजिस्ट्रेशन कराया है.

हालांकि छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश कुछ ऐसे राज्य हैं जहां युवा वोटरों ने चुनावी प्रक्रिया में दिलचस्पी दिखाई है. छत्तीसगढ़ में 54 फीसद, तेलंगाना में 67 फीसद जबकि आंध्र में करीब 50 फीसद फर्स्ट टाइम वोटर्स ने रजिस्ट्रेशन किया है. इस मामले में राजधानी दिल्ली, जिसे राजनीति का नर्व सेंटर माना जाता है, यहां सिर्फ 21 फीसद युवा वोटरों ने पंजीकरण किया है.

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