
हमारे देश में प्राचीन सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर अब तक, इतिहास के सभी हिस्सों में धर्म के राजनीतिकरण को आसानी से देखा जा सकता है. इस दौरान धर्म ने हमेशा राजनीति की सेवा की और राजनीति ने अक्सर धर्म की सेवा की है. इस बीच न धर्म खुद को राजनीति से अलग रख पाया, और न ही राजनीति खुद को धर्म से.
लेकिन इन दोनों के बीच मामला तब तक ही ठीक रहता है जब तक दोनों के सुर-ताल एक बने रहते हैं. जैसे ही इनमें संतुलन गड़बड़ाता है, मीडिया में सुर्खियां बनने लगती हैं. उत्तराखंड के ज्योतिष पीठ या कहिए ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती इन दिनों ऐसे ही एक राजनीतिक हलचल के केंद्र में बने हुए हैं.
स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद के पिछले कुछ बयानों को देखें तो वे धर्म से परे मामलों में काफी बेबाक रहे हैं. लेकिन उनके इस बेबाकपन को, दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीतिक सक्रियता को भाजपा विरोध के रूप में देखा जा रहा है.

इसी साल जनवरी की बात है. अयोध्या में राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा की तैयारियां जोरों पर थीं. मंदिर के अभिषेक समारोह में शामिल होने के लिए हजारों वीआईपी और धार्मिक लोगों के अलावा अविमुक्तेश्वरानंद के पास भी निमंत्रण आया था, लेकिन उन्होंने इसको अस्वीकार कर दिया. उन्होंने 'अधूरे राम मंदिर' के अनावरण पर आपत्ति जताई थी, और कहा कि आधे-अधूरे मंदिर का उद्घाटन करना धर्म के खिलाफ है.
अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए जब ट्रस्ट बनाया गया, तब से लेकर मंदिर के बनने तक अविमुक्तेश्वरानंद की नाराजगी दिखती रही. वे नाराज रहे कि उनको ट्रस्ट का सदस्य नहीं बनाया गया. उन्होंने आरोप लगाया कि ट्रस्ट पर कुछ लोगों ने कब्जा कर लिया है. उन्होंने मंदिर के भूमि पूजन के लिए तय समय पर भी सवाल उठाया था. कहा कि ये समय जानबूझकर तय किया गया है ताकि 'शंकराचार्य' इसमें हिस्सा नहीं ले सकें.
इंडिया टुडे के वरिष्ठ संवाददाता अमरनाथ के. मेनन अपनी एक रिपोर्ट में लिखते हैं, "अपने छात्र जीवन से ही समस्याओं पर खुलकर बोलने वाले शंकराचार्य ने अपनी बात कहने में कभी संकोच नहीं किया, भले ही इसके लिए उन्हें विवादों का सामना करना पड़े. हाल के हफ्तों में उन्होंने उत्तराखंड के केदारनाथ मंदिर से 228 किलो सोना गायब होने का आरोप लगाकर विवाद खड़ा कर दिया. उन्होंने इसे 'स्वर्ण घोटाला' करार दिया.
दरअसल, 15 जुलाई को अविमुक्तेश्वरानंद ने केदारनाथ मंदिर से 228 किलो सोना गायब होने का आरोप लगाया था. तब अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् और निरंजनी अखाड़ा के अध्यक्ष रवींद्र पुरी ने इस मामले पर जवाब दिया था. उन्होंने कहा कि अविमुक्तेश्वरानंद के पास अगर सोना चोरी का सबूत है तो उन्हें पुलिस या कोर्ट को सौंपे. उन्होंने कहा था कि अगर उनके पास प्रमाण नहीं है तो सुर्खियों में बने रहने के लिए अनर्गल बयानबाजी न करें.
अविमुक्तेश्वरानंद ने दिल्ली के बुराड़ी में बन रहे केदारनाथ मंदिर की प्रतिकृति (डुप्लीकेट मंदिर) पर भी नाराजगी जताई थी. उन्होंने कहा था, "ये प्रतीकात्मक केदारनाथ नहीं बन सकता है. हमारे यहां शिव पुराण में द्वादश ज्योतिर्लिंग का उल्लेख किया गया है. 12 ज्योतिर्लिंगों के जहां नाम बताए गए हैं वहीं पर उनका पता भी बता दिया गया है. ये भी उल्लेख है कि केदारनाथ हिमालय में है तो आप दिल्ली में केदार को कहां से लाकर रखोगे."
केदारनाथ मंदिर पर उपजे विवाद के बाद उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा था कि, "प्रतीकात्मक रूप में अनेक स्थानों पर मंदिरों का निर्माण हुआ है, लेकिन वो धाम का स्थान नहीं ले सकते."
करीब दो साल पहले सितंबर, 2022 की बात है जब वाराणसी में काशी कॉरिडोर का निर्माण-कार्य चल रहा था. उस समय स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने इस परियोजना का यह कहकर विरोध किया कि इसकी वजह से दशकों पुराने मंदिरों को ध्वस्त किया जा रहा है.
स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद के गुरु थे - गुरु स्वरूपानंद. इन्हें एक समय में कांग्रेसी शंकराचार्य कहा जाता था. यहां अब उनके बारे में थोड़ी चर्चा जरूरी है. आइए समझते हैं.

2022 में इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट में वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई ने लिखा था, "फरवरी 2002 में स्वरूपानंद ने सोनिया गांधी को विवादित राम मंदिर मामले पर हिंदुत्ववादी ताकतों से मुकाबला करने के लिए प्रोत्साहित किया था. सोनिया गांधी ने तब अयोध्या विवाद पर स्वतंत्र रुख अपनाने के लिए मध्य प्रदेश के दिघौरी में तीन शंकराचार्यों के साथ एक मंच साझा किया था. दिघौरी सम्मेलन, जो मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के दिमाग की उपज थी. इसका उद्देश्य राम मंदिर आंदोलन पर विश्व हिंदू परिषद के आधिपत्य को खत्म करना था."
लल्लनटॉप के साथ बातचीत में किदवई जानकारी देते हैं, "स्वरूपानंद राम मंदिर ट्रस्ट के खिलाफ थे. वे चाहते थे कि शंकराचार्यों के नेतृत्व में राम मंदिर का निर्माण हो. एक वक्त पर सोनिया गांधी को स्वरूपानंद के लिए लगा था कि उन्हें भाजपा की हिंदूवादी राजनीति का काट मिल गया है. हालांकि, ऐसा हुआ नहीं."
बहरहाल, स्वरूपानंद के शिष्य होने की वजह से अविमुक्तेश्वरानंद को भी कांग्रेस का करीबी समझा जाता है. हालांकि वे कांग्रेस के कितने करीब हैं, हैं भी या नहीं? इसके बारे में पुख्ता तौर पर नहीं कहा जा सकता. लेकिन इतना तय है कि इनके गुरु स्वरूपानंद कांग्रेस के करीबी रहे. उन्होंने भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के खिलाफ खुलकर मोर्चा संभाला था.
काशी कॉरिडोर का विरोध करते हुए अविमुक्तेश्वरानंद ने कहा था, "मैं इसका विरोध कर रहा हूं. अब सब कहेंगे कि मैं कांग्रेसी हो गया हूं. हम तो धर्म के लोग हैं, हमें राजनीति से क्यों जोड़ते हैं."
लेकिन अविमुक्तेश्वरानंद के छात्र जीवन में जाएं तो समझ में आता है कि राजनीति उनके साथ हमसाया बनकर चलती रही है. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट में अमरनाथ के. मेनन लिखते हैं, "वाराणसी के सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से शास्त्री और आचार्य की डिग्री हासिल कर चुके अविमुक्तेश्वरानंद (जो उस समय उमाशंकर उपाध्याय हुआ करते थे) की छात्र राजनीति में रुचि रही थी. उनकी भागीदारी ने 1994 में उनके पसंदीदा दल को छात्र संघ चुनाव में जीत भी दिलाई थी. इस वाकये से कम उम्र से ही उनकी नेतृत्व क्षमता का पता चलता है."
उमाशंकर उपाध्याय का जन्म 15 अगस्त, 1969 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था. स्वामी स्वरूपानंद के शिष्य वे कैसे बने, उसके पीछे कहानी यह है कि एक बार उनके पिता उन्हें लेकर गुजरात गए. वहां उनकी मुलाकात एक संत से हुई, जिनका नाम रामचैतन्य था. वे संत काशी से थे. उमाशंकर वहीं गुजरात में ही रुक गए और वहीं उनकी पढ़ाई-लिखाई और पूजा-पाठ शुरू हो गया.
इसके बाद उमाशंकर उपाध्याय काशी पहुंचे, जहां उनकी मुलाकात स्वरूपानंद सरस्वती से हुई. वे स्वरूपानंद के शिष्य बन गए. साल 2006 में उमाशंकर ने उनसे दीक्षा ली, और उन्हें एक नया नाम मिला. इस तरह उमाशंकर उपाध्याय, स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद बन गए.
पुराने शंकराचार्यों के उलट, जो अपनी राजनीतिक सक्रियता के खिलाफ थे और विचारों को जाहिर नहीं करने में यकीन रखते थे; स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद शुरू से ही धार्मिक और राजनीतिक दोनों ही मामलों में एक गतिशील भूमिका निभाते दिखे हैं. पिछले कुछ सालों में उनका रुख सत्ता विरोधी रहा है, और वे विपक्ष के एक मजबूत समर्थक के रूप में नजर आए हैं.
2019 के लोकसभा चुनावों में अविमुक्तेश्वरानंद ने वाराणसी से, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चुनावी क्षेत्र रहा है, उनके खिलाफ एक उम्मीदवार उतारने का प्रयास किया था.
इस बार के आम चुनाव में उन्होंने 'गौ गठबंधन' के तहत सफलतापूर्वक उम्मीदवार उतारा भी. इसी महीने संसद में जब राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस हो रही थी, राहुल गांधी के एक बयान पर विवाद हो गया.
बहस के दौरान राहुल ने भाजपा पर लोगों को सांप्रदायिक आधार पर बांटने का आरोप लगाया. जवाब में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि राहुल ने पूरे हिंदू समुदाय को हिंसक बता दिया है. फिर राहुल का जवाब आया. उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी और भाजपा का मतलब पूरा हिंदू समुदाय नहीं है. अविमुक्तेश्वरानंद ने राहुल के इस बयान का समर्थन किया था. उन्होंने एक न्यूज एजेंसी से बात करते हुए कहा कि राहुल गांधी का बयान हिंदू धर्म के खिलाफ नहीं है.

अविमुक्तेश्वरानंद के इस बयान के कुछ ही दिनों बाद उनका एक और बयान आया. यह महाराष्ट्र की राजनीति को लेकर था. अपनी इस टिप्पणी में उन्होंने उद्धव ठाकरे का खुलकर समर्थन किया, और कहा कि उनके साथ विश्वासघात हुआ है. उन्होंने कहा, "हिंदू धर्म में सबसे बड़ा पाप विश्वासघात को बताया गया है. उद्धव ठाकरे के साथ विश्वासघात हुआ है. हमलोगों के मन में इस बात की पीड़ा है. जब तक वो दोबारा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री नहीं बन जाते तब तक ये पीड़ा दूर नहीं होगी."
विश्वासघात की यह बात महाराष्ट्र की उस राजनीतिक घटना की ओर इशारा थी, जब पार्टी में बगावत के चलते उद्धव ठाकरे की सत्ता चली गई थी. जून, 2022 में एकनाथ शिंदे गुट के पार्टी छोड़ कर निकल जाने से शिवसेना में टूट हो गई थी. शिवसेना के 40 से ज्यादा विधायक शिंदे के साथ चले गए थे. नतीजतन, उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी, और 30 जून को एकनाथ शिंदे राज्य के मुख्यमंत्री बन गए. बाद में ठाकरे को अपनी पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न भी खोना पड़ा.
अविमुक्तेश्वरानंद का शंकराचार्य बनना एक विवादास्पद मामला!
अपने बयानों से विवादों के केंद्र में रहने वाले स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का शंकराचार्य बनना भी एक विवादास्पद मामला रहा है. यहां मामले की तह में जाने से पहले थोड़ा यह समझते हैं कि हिंदू धर्म में शंकराचार्य कैसे बना जाता है? मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने धर्म के प्रचार के लिए चार मठों की स्थापना की थी. इनमें से एक उत्तराखंड के जोशीमठ में है, जिसे ज्योतिर्मठ या ज्योतिष पीठ कहा जाता है.
दूसरा, गुजरात के द्वारका में है, जिसे शारदा मठ कहा जाता है. इसी तरह तीसरा गोवर्धन मठ, जो ओडिशा के पुरी में है. और चौथा शृंगेरी मठ है, जो कर्नाटक में है. इन मठों के प्रमुख को ही शंकराचार्य कहा जाता है. लल्लनटॉप की एक रिपोर्ट के मुताबिक, आदि शंकराचार्य ने मठाम्नाय ग्रंथ लिखा था. इसमें चारों मठों की व्यवस्था से संबंधित बातें लिखी हैं. खासतौर पर चर्चा इस बात की थी कि शंकराचार्य का चुनाव कैसे होगा और इसके लिए किसको योग्य माना जाएगा.
शुरू-शुरू में इसके लिए शास्त्रार्थ (शास्त्रों के ज्ञान पर सवाल-जवाब) कराए जाते थे, और इनमें अखाड़ों और काशी विद्वत परिषद् की भूमिका अहम होती थी. समय बदला, और जब अंग्रेजी शासन आया तो शास्त्रार्थ की जगह गुरु-शिष्य परंपरा ने ले ली. मौजूदा अनौपचारिक नियम यह है कि शंकराचार्य खुद ही अपने उत्तराधिकारी का चयन कर लेते हैं.
अविमुक्तेश्वरानंद के शंकराचार्य बनने पर क्या विवाद है, इसकी जड़ में पहुंचने पर कहानी पूरी तरह सामने आती है. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1952 में ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य थे ब्रह्मानंद. उन्होंने 18 दिसंबर, 1952 को अपनी वसीयत लिखी, जिसमें उन्होंने रामजी त्रिपाठी, द्वारिका प्रसाद, विष्णु देवानंद और परमानंद सरस्वती का नाम बतौर उत्तराधिकारी लिखा.
वसीयत के मुताबिक, ये चारों एक के बाद एक अगले शंकराचार्य बनते. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. किसी तरह विष्णु देवानंद शंकराचार्य बन गए. देवानंद ने 25 जून, 1953 को कृष्ण बोधाश्रम को अपना उत्तराधिकारी बनाया. अगले 20 सालों तक कृष्ण ही मठ के शंकराचार्य बने रहे. लेकिन 1973 में जब वे पद से हटे, तो उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के नाम का एलान नहीं किया.
उत्तराधिकारी की घोषणा न होने पर काशी विद्वतपीठ और भारत धर्म महामंडल ने इसकी जिम्मेदारी स्वरूपानंद को दे दी. लेकिन विवाद तब शुरू हो गया, जब एक और गुरु वासुदेवानंद ने शंकराचार्य के पद पर अपनी दावेदारी पेश कर दी. विवाद आगे बढ़ा तो मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट पहुंच गया. 1973 से चल रहे इस मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2017 के अपने आदेश में दोनों की ही दावेदारी को ठुकरा दिया.
कोर्ट ने वासुदेवानंद को इसके लिए अयोग्य बताया, जबकि स्वरूपानंद की नियुक्ति को अवैध बताया. कोर्ट ने अखिल भारतीय धर्म महामंडल (साधुओं का संगठन) और काशी विद्वत परिषद् (संस्कृत विद्वानों और संतों का संगठन) को अन्य तीन हिंदू मठों के प्रमुखों की सलाह से योग्य शंकराचार्य चुनने का निर्देश दिया. तब तक के लिए कोर्ट ने कहा, "नए शंकराचार्य के चुने जाने तक स्वरूपानंद ज्योतिर्मठ के केयरटेकर के रूप में काम कर सकते हैं."
यानी स्वरूपानंद अब ज्योतिर्मठ के कार्यवाहक शंकराचार्य के रूप में काम कर रहे थे. वे अपने निधन (सितंबर,2022 में हार्ट अटैक से मौत) तक शंकराचार्य बने रहे. उनकी मौत के बाद अविमुक्तेश्वरानंद ने खुद को उनका उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. हालांकि इस पर भी बवाल हुआ. मामला फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां अदालत ने उनके 'पट्टाभिषेक' पर रोक लगा दी.
कोर्ट ने कहा, "पुरी में गोवर्धन मठ के शंकराचार्य ने हलफनामा दायर किया है कि उन्होंने ज्योतिर्मठ के नए शंकराचार्य के रूप में अविमुक्तेश्वरानंद की नियुक्ति का समर्थन नहीं किया है. इसलिए उनके अभिषेक पर रोक लगाई जा रही है."
इस हलफनामे में अविमुक्तेश्वरानंद के उस दावे को झूठा बताया गया जिसमें उन्होंने कहा था कि स्वरूपानंद सरस्वती ने उन्हें ज्योतिष पीठ का उत्तराधिकारी चुना है. हालांकि इन सब सवालों के बीच स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद अब भी ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य के रूप में काम कर रहे हैं.