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सुप्रीम कोर्ट में हजारों पेंडिंग केस, लेकिन रणवीर इलाहाबादिया को कैसे मिल गई तुरंत जमानत?

कंटेंट क्रिएटर रणवीर इलाहाबादिया के केस में याचिका दायर होते ही सुप्रीम कोर्ट में अर्जेंट हियरिंग हुई और फिर जमानत मिल गई. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट में हजारों केस सालों से पेंडिंग हैं और महीनों बीत जाते हैं, इनके सुनवाई की तारीख नहीं आ पाती

रणवीर इलाहाबादिया (फाइल फोटो)
रणवीर इलाहाबादिया (फाइल फोटो)
अपडेटेड 21 फ़रवरी , 2025

फरवरी की 18 तारीख को सुप्रीम कोर्ट में यूट्यूबर रणवीर इलाहाबादिया के मामले पर सुनवाई शुरू हुई. शो में अश्लील कमेंट करने के मामले में गिरफ्तारी से बचने के लिए रणवीर ने सीधे देश के सर्वोच्च अदालत में याचिका दर्ज की. 

सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को स्वीकार कर इसपर सुनवाई करने के बाद रणवीर इलाहाबादिया को अंतरिम जमानत दे दी. 'सुप्रीम कोर्ट ऑब्जर्वर' वेबसाइट के मुताबिक दिसंबर 2024 तक देश की इस शीर्ष अदालत में करीब 83 हजार केस पेंडिंग थे. 

एक तरफ सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग केस की संख्या लगातर बढ़ रही है. दूसरी ओर आम लोगों के मुकदमों की लिस्टिंग और सुनवाई में कई महीने लग जाते हैं. ऐसे में इस केस की अर्जेंट लिस्टिंग और तुरंत जमानत मिलने पर न्यायिक सुधार को लेकर चर्चा एक बार फिर से शुरू हो गई है. यह जानना जरूरी हो गया है कि रणवीर इलाहाबादिया को क्यों और किस आधार पर सुप्रीम कोर्ट से इतनी जल्दी जमानत मिल गई? 

सुप्रीम कोर्ट की किस बेंच में इस मामले की सुनवाई हुई और इलाहाबादिया ने क्या मांग की?

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की बेंच के सामने इस मामले की सुनवाई हुई. 'इंडियाज गॉट लेटेंट' शो के दौरान अश्लील कमेंट करने वाले रणवीर इलाहाबादिया की ओर से दर्ज याचिका में मुख्य रूप से दो मांग की गई थीं- पहली कि गिरफ्तारी से छूट मिले, और दूसरी कि जान को खतरा होने की वजह से सुरक्षा मिले. 

इस मामले की सुनवाई के बाद कोर्ट ने अंतरिम आदेश सुनाते हुए रणवीर इलाहाबादिया को तीनों FIR में गिरफ्तारी से अंतरिम राहत दी. अब आखिरी फैसला आने तक रणवीर को कोर्ट से प्रोटेक्शन मिलेगी, जिससे रणवीर को कोई नुकसान न हो. उनके खिलाफ कोई नया केस दर्ज नहीं होगा.  

सुरक्षा दिए जाने के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रणवीर को महाराष्ट्र या असम की स्थानीय पुलिस से मदद मांगनी चाहिए. साथ ही कोर्ट ने ये शर्त रखी है कि बुलाए जाने पर वो कोर्ट में हाजिर होंगे और जांच में सहयोग करेंगे. उन्हें नया शो बनाने के लिए कोर्ट से इजाजत लेनी होगी और विदेश जाने पर भी रोक रहेगा. 

रणवीर इलाहाबादिया के मामले में अर्जेंट लिस्टिंग और सुनवाई क्यों और किस आधार पर हुई?

सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता के मुताबिक पुलिस के सामने पेश हुए बिना रणवीर इलाहाबादिया ने संविधान के अनुच्छेद 32 का इस्तेमाल करते हुए सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दर्ज की. 

यह संविधान के भाग 3 में शामिल एक कानून है, जो मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट से कानूनी या संवैधानिक उपचार का अधिकार देता है. किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होना गंभीर मामला होता है. 

यही वजह है कि इस तरह के याचिका के स्वीकार किए जाने के बाद कोर्ट में तुरंत सुनवाई हो जाती है. इसी वजह से जल्द सुनवाई के बाद कोर्ट ने उन्हें फिलहाल जमानत दे दी है. 

रणवीर को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने के बाद किस वजह से विवाद शुरू हो गया है? 

सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता बताते हैं कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने रणवीर इलाहाबादिया के कथन को अश्लील, अमर्यादित और आपत्तिजनक बताकर उनकी जमकर आलोचना की, लेकिन ये बातें कोर्ट के लिखित आदेश में शामिल नहीं हैं. 

यही वजह है कि इस फैसले को लेकर तीन बड़े सवाल खड़े हो रहे हैं…
1. रणवीर इलाहाबादिया के मामले में अनुच्छेद 32 के तहत सीधे सुप्रीम कोर्ट में जमानत की अर्जी कैसे दायर हो सकती है? 
2. आमलोगों के मामले की लिस्टिंग में महीनों का समय लगता है तो इस मामले में राज्य के पक्ष को सुने बिना ही कोर्ट ने तुरंत अंतरिम जमानत की राहत कैसे दे दी? 
3. अश्लील कंटेंट पर रोक लगाने के लिए कोर्ट ने सरकारी वकीस को सख्त कार्रवाई कर रिपोर्ट कोर्ट में जमा करने की मांग की. हालांकि, इसका जिक्र लिखित फैसले में नहीं किया गया है. 

ये वो तीन पॉइंट हैं, जिसकी वजह से इस मामले में कोर्ट के रुख को लेकर नाराजगी जाहिर की जा रही है. कई साल तक जेल में बंद रहने के बाद नेल्सन मंडेला ने कहा था कि न्याय को लेकर वंचित वर्ग के साथ हो रहे बर्ताव के आधार पर ही राज्य की सफलता का मूल्यांकन करना चाहिए. 

विराग के मुताबिक भले ही न्यायिक सुधार के नाम पर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की बात होती है, लेकिन असल समस्या देशभर के जिला अदालतों की है, जहां 4.59 करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं. इनमें ज्यादातर आपराधिक मामले हैं.  

किसी केस में महीनों की लेटलतीफी और किसी में तुरंत सुनवाई की क्या वजह है?

वकील विराग के मुताबिक कानून में सबकुछ साफ और स्पष्ट है. किसी केस में महीनों की लेटलतीफी और किसी में तुरंत सुनवाई की कई वजह हो सकती हैं. हालांकि, जल्द सुनवाई और विचाराधीन कैदियों की रिहाई से जुड़े मामले को समझने के लिए इन 5 पहलुओं को समझना जरूरी है…

1. यूएपीए से जुड़े एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के जज पारदीवाला ने कहा है कि विचाराधीन कैदी के रूप में किसी को जेल में लंबे समय तक रखना, संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत आरोपी के त्वरित सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन है.

एक पुराने फैसले में कहा गया कि जेलों में बंद बेगुनाह कैदियों के संवैधानिक अधिकारों के हनन के लिए पुलिस और सरकार के साथ जज भी जिम्मेदार हैं.  

2. सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले के अनुसार अनुच्छेद-224ए के तहत हाईकोर्ट में एड-हॉक जजों से आपराधिक मुकदमों की अपीलों पर सुनवाई होगी. दिल्ली में नई सरकार के गठन के पहले ही मुख्य सचिव ने अस्थायी कर्मियों की छंटनी का आदेश दे दिया. अगर सरकार में अस्थायी कर्मचारी नहीं हो सकते तो फिर न्यायपालिका में अस्थायी जजों की भर्ती का क्या औचित्य है? संवैधानिक अदालतों में 40 फीसदी जजों के रिक्त पदों पर नियमित जजों की नियुक्ति करने के बजाय एड-हॉक जजों से मर्ज का इलाज कैसे होगा? 

3. सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम आदेश के अनुसार सीआरपीसी की धारा-432 और बीएनएसएस (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) की धारा-473 के तहत पात्रता रखने वाले सभी दोषियों की माफी अर्जी पर विचार करना राज्यों की जिम्मेदारी है. कानून और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर अमल के लिए राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहराना नाकाफी है.

4. पुलिस, सरकारी वकील, जज, जेल और विधिक सेवा- सभी सरकारी पैसे से संचालित होते हैं. गरीब कैदियों की मदद के लिए राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तर पर विधिक सेवा का प्रावधान है.  

5. नए आपराधिक कानून में बीएनएसएस की धारा-479 के तहत जिन विचाराधीन कैदियों ने आधी या एक तिहाई सजा पूरी कर ली हो, उनकी रिहाई होनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के अगस्त 2024 के आदेश के अनुसार इसे दो महीने में पूरा करके संविधान की 75वीं वर्षगांठ के समारोह को सफल बनाना था. गरीब वर्ग के कैदियों के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार जिला अदालतों के जजों की जवाबदेही सुनिश्चित करने की जरूरत है.

आज गरीब, वंचित, अशिक्षित वर्ग के लाखों लोग जेलों में बंद हैं. दिल्ली हाईकोर्ट के अनुसार ट्रेनों की क्षमता से ज्यादा टिकट जारी नहीं होने चाहिए. फिर कैदियों को अमानवीय तरीके से जेलों में ठूंसना भी तो असंवैधानिक है. 

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