अप्रैल की 17 तारीख को राज्यसभा इंटर्न के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा कि राष्ट्रपति को निर्देश देकर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी सीमाएं लांघी है.
उन्होंने अपने भाषण में संविधान के अनुच्छेद 142 को लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ 'परमाणु मिसाइल' बताया. उपराष्ट्रपति के इस बयान के बाद से ही ये सवाल उठ रहा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को निर्देश दे सकता है और सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति में संविधान से किसे ज्यादा ताकत मिली है?
संविधान विशेषज्ञ पीडीटी आचार्य, पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल के.सी. कौशिक और सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता के जरिए इस मामले से जुड़े ऐसे ही जरूरी सवालों के जवाब जानते हैं-
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट को लेकर क्यों और क्या बयान दिया है?
बीते दिनों तमिलनाडु विधानसभा से पारित 10 विधेयकों को लंबे वक्त से राज्यपाल आर.एन. रवि की मंजूरी ना मिलने पर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचार के लिए भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर फैसला लेना चाहिए.
अगर राष्ट्रपति फैसला नहीं लेते हैं तो इसके पीछे की जरूरी वजह बताई जानी चाहिए. ऐसा नहीं होने पर वे विधेयक स्वत: कानून बन जाएंगे.
सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला सुनाकर एक तरह के केंद्र को चुनौती दी. अब केंद्र सरकार इस फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर कर सकती है. इसी फैसले को लेकर उपराष्ट्रपति धनखड़ ने न्यायपालिका पर जोरदार हमला किया है.
उन्होंने कहा, “हमने लोकतंत्र में इस दिन की कभी कल्पना नहीं की थी, राष्ट्रपति से डेडलाइन के तहत फैसले लेने के लिए कहा जा रहा है और अगर ऐसा नहीं होता है, तो वह विधेयक कानून बन जाता है. मेरी चिंताएं बहुत अधिक है. मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरे जीवन में मुझे ऐसा देखने का अवसर मिलेगा.
भारत के राष्ट्रपति बहुत ऊंचे दर्जे के व्यक्ति हैं. राष्ट्रपति संविधान की रक्षा, सुरक्षा और बचाव की शपथ लेते हैं. यह शपथ केवल राष्ट्रपति और उनके द्वारा नियुक्त राज्यपाल ही लेते हैं. जबकि प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति, मंत्री, यहां तक की सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी संविधान का पालन करने की शपथ लेते हैं, लेकिन संविधान की रक्षा करने की शपथ सिर्फ राष्ट्रपति लेते हैं.
इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति को समयबद्ध तरीके से निर्णय लेने के लिए कहा जाता है. अगर ऐसा नहीं होता है, तो यह कानून बन जाता है. अब हमारे पास ऐसे न्यायाधीश हैं जो कानून बनाएंगे, जो कार्यकारी कार्य करेंगे, जो सुपर संसद के रूप में कार्य करेंगे.”
इसके आगे सुप्रीम कोर्ट की कानूनी सीमा बताते हुए उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में न्यायपालिका के पास एकमात्र अधिकार ‘अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या करना’ है और वह भी पांच या उससे ज्यादा जजों की बेंच की ओर से किया जाना चाहिए. अनुच्छेद 142 लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ एक परमाणु मिसाइल बन गया है, जो न्यायपालिका के लिए 24x7 उपलब्ध है.
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने सर्वोच्च अदालत को ‘सुपर संसद’ क्यों बताया है?
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने अपने भाषण में कहा, "अब हमारे पास ऐसे न्यायाधीश हैं जो कानून बनाएंगे, जो कार्यकारी कार्य करेंगे, जो सुपर संसद के रूप में कार्य करेंगे.”
उपराष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट को ‘सुपर संसद’ इसलिए कहा है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने तीन महीने के अंदर सदन से पास बिल पर फैसला लेने का निर्देश राष्ट्रपति और राज्यपाल को दिया है, जो अब एक तरह से कानून बन गया है. उनका मानना है कि कानून बनाने का काम सिर्फ संसद का है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसला के जरिए अपनी सीमा लांघी है.
क्या सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को निर्देश दे सकता है?
हां, पूर्व लोकसभा महासचिव पीडीटी आचार्य बताते हैं कि सच पूछिए तो राष्ट्रपति के फैसले में केंद्र सरकार की भूमिका होती है. केंद्र सरकार का गृहमंत्रालय राज्यों के बिल की स्क्रूटनी करता है. ऐसे में भारत सरकार के फैसलों की सुप्रीम कोर्ट व्याख्या करके निर्देश दे ही सकता है.
पूर्व अटॉर्नी जनरल ऑफ इंडिया के.सी. कौशिक का भी कहना है कि संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट को ये अधिकार है कि वह संविधान की व्याख्या करते हुए न्याय के लिए फैसला सुना सकता है. यहां तक की राष्ट्रपति को भी निर्देश दे सकता है.
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता के मुताबिक इस मामले को चार प्वाइंट में समेटा जा सकता है :
1. भारत सरकार के सारे काम-काज राष्ट्रपति के नाम से होते हैं. सरकार के कई मामलों पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होती है. ऐसे में राष्ट्रपति पद के नाते अगर उन्हें निर्देश या सलाह सुप्रीम कोर्ट दे रहा है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है.
2. सुप्रीम कोर्ट को ज्यूडिशियल रिव्यू का अधिकार है. किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने पर मामला सुप्रीम कोर्ट जाता है तो आमतौर पर सुप्रीम कोर्ट न्यायिक समीक्षा कर उसे गलत या सही बताता रहा है.
3. सिविल प्रोसिजर कोड में इस बात का प्रावधान है कि अगर किसी व्यक्ति या पक्ष को लग रहा है कि उनको कोर्ट में नहीं सुना जा रहा है तो वह उसके लिए अपील कर सकता है. सुप्रीम कोर्ट को अगर पता था कि ये मामला राष्ट्रपति से जुड़ा है तो नोटिस भेजकर उन्हें उनका पक्ष भी सुनना चाहिए था.
4. राष्ट्रपति को संविधान में क्रिमिनल मामलों में इम्यूनिटी है, लेकिन उनके नाम पर अगर कुछ काम हो रहा है तो इसकी कानूनी समीक्षा कर निर्देश या सलाह देने को लेकर सुप्रीम कोर्ट पर रोक नहीं है.
क्या सु्प्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को विधेयकों पर तीन महीने के भीतर एक्शन लेने की बात कहकर अपनी सीमा लांघी है?
पूर्व लोकसभा महासचिव पीडीटी आचार्य कहते हैं कि मुझे नहीं लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपनी सीमा लांघी है. राष्ट्रपति हो या गवर्नर, दोनों संविधान से बंधे हैं. जब कोई बिल सदन से पास होकर आता है और राष्ट्रपति संविधान के नियमों के तहत उसपर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला इसलिए सुनाया है क्योंकि विधानसभा कोई बिल पास करता है तो राज्यपाल सालों तक उसे अपने पास रखते हैं. फिर उसे राष्ट्रपति के पास भेज देते हैं, वहां भी सालों अटका रहता है.
आचार्य आगे बताते हैं कि इन्हीं सारी बातों की वजह से सुप्रीम कोर्ट को यह फैसला सुनाने के लिए बाध्य होना पड़ा कि तीन महीने में फैसला नहीं लेंगे तो कानून स्वत: बन जाएगा.
पूर्व अटॉर्नी जनरल के.सी. कौशिक भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कानूनी तौर पर सही मानते हैं. उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसला से कोई सीमा नहीं लांघी है.
कौशिक के मुताबिक, जब राष्ट्रपति को संविधान में ये पावर है कि वह जस्टिस के लिए कोई भी मैटर सुप्रीम कोर्ट को रेफर करके उनकी सलाह ले सकता है. कई मौके ऐसे हैं, जब राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से कानूनी सलाह ली है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट अगर राष्ट्रपति को कोई निर्देश या सलाह देता है तो वह भी संविधान और कानून के तहत न्यायसंगत है.
वहीं, सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में चार तरह से सीमाएं लांघी है-
1. इस मामले में संविधान में जो प्रावधान नहीं है, उसकी व्याख्या करके एक तरह से सुप्रीम कोर्ट ने वो नियम बनाया है. संविधान में राष्ट्रपति या राज्यपाल के पास बिल कितने दिन तक पेंडिंग रहेगा, इसका जिक्र नहीं है. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि 3 महीने से ज्यादा अपने पास बिल नहीं रख सकते. इसका मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसलों के जरिए संविधान में नया प्रावधान जोड़ा है, जो काम संसद का होता है. मतलब इस लिहाज से देखा जाए तो लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपनी सीमा लांघी है.
2. संविधान को लेकर इस तरह का कोई फैसला दो जजों की बेंच को नहीं लेना चाहिए. इस मामले को संवैधानिक पीठ में भेजा जाना चाहिए.
3. सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के मामले में फैसला को लिखने के लिए दुनिया के अनेक देशों के संवैधानिक प्रावधानों का जिक्र किया है, जो बेतुका है. आपने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट का विश्लेषण किया, यह सही है, आपने संविधान सभा के बहस का विश्लेषण किया अच्छी बात है, लेकिन पाकिस्तान और यूरोपीय देशों के संवैधानिक प्रावधान का जिक्र करना उचित नहीं लगता.
4. एक गलत को दूसरे गलत से सही नहीं किया जा सकता है. अगर राष्ट्रपति ने किसी बिल को अपने पास अटकाकर उसे कानून बनने से रोक रखा है तो उसे सही करने के लिए संविधान संशोधन जैसे नया नियम बनाने का फैसला सुनाना सुप्रीम कोर्ट की सीमा से आगे की बात लगती है.
क्या राष्ट्रपति जिन जजों को नियुक्ति करते हैं, वही जज उन्हें निर्देश दे सकते हैं?
हां, विराग गुप्ता कहते हैं कि ये समझने का फर्क है कि ये मामला राष्ट्रपति के व्यक्तिगत तौर की बात नहीं है, बल्कि राष्ट्रपति पद के तौर पर जो फैसला लेते हैं, उसको लेकर है. भारत सरकार की मंत्रि परिषद की सलाह-सिफारिश पर राष्ट्रपति फैसला लेते हैं. ऐसे में भले ही राष्ट्रपति ने जजों की नियुक्ति की हो, लेकिन वे जज राष्ट्रपति के फैसले की समीक्षा करके निर्देश दे सकते हैं.
संविधान से राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट में किसे ज्यादा ताकत मिली है?
पूर्व अटॉर्नी जनरल के.सी. कौशिक बताते हैं कि भारतीय संविधान में राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट दोनों की अपनी अलग और खास अहमियत है. आप किसी एक को ज्यादा या कम ताकतवर नहीं बता सकते. इसकी वजह ये है कि हमारे संविधान में ‘चेक एंड बैलेंस’ की व्यवस्था है.
हमें ध्यान रखना चाहिए कि हमारा फेडरल कॉन्स्टिट्यूशन है. इसमें कानून बनाने का काम विधायिका का है. ऐसे में अगर किसी लोकतांत्रिक सरकार ने कानून सदन से पास किया तो उस पर सहमति देने का काम राज्यपाल और राष्ट्रपति का है.
अगर राज्यपाल और राष्ट्रपति ऐसा नहीं करते हैं तो तय प्रक्रिया के तहत हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर फैसला सुना सकते हैं. यही तो है ‘चेक एंड बैलेंस’ सिस्टम.
एक और बात ये है कि राष्ट्रपति चुनी हुई सरकार की सलाह पर काम करते हैं. उनके फैसले की समीक्षा सुप्रीम कोर्ट करता रहा है. इसका मतलब ये भी नहीं है सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति से ज्यादा ताकतवर है. इसका मतलब सिर्फ इतना है कि जब कानून के तहत न्याय की बात होगी, तो सुप्रीम कोर्ट अहम हो जाता है.