भारत ने बीते 30 अगस्त को सिंधु जल संधि की समीक्षा के लिए पाकिस्तान को नोटिस दिया है. 1960 में हुए इस समझौते को विश्व बैंक सहित दुनियाभर की एजेंसियां दो देशों के बीच नदी जल बंटवारे के लिहाज से एक नजीर मानते रही हैं लेकिन अब यह खतरे में पड़ता लग रहा है. इसकी वजह है समझौते को लेकर भारत की बढ़ती हताशा और सीमा पार की नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर पाकिस्तान की तरफ से की जा रही गड़बड़ियां.
सिंधु जल संधि करीब 64 साल पुरानी है और जनवरी, 2023 से लेकर अगस्त तक इस्लामाबाद को संधि में बदलाव करने को लेकर कुल चार नोटिस भारत सरकार भेज चुकी है. लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि भारत सरकार को इस दशकों पुरानी संधि में बदलाव करने जरूरत पड़ गई?
क्या है सिंधु जल संधि को लेकर भारत-पाकिस्तान में विवाद?
भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद 2005 से शुरू हुआ और यह जम्मू-कश्मीर में किशनगंगा और रातले हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट्स के इर्द-गिर्द घूमता है — एक बांदीपोरा जिले में झेलम की सहायक नदी किशनगंगा पर और दूसरी (रातले हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट) किश्तवाड़ जिले में चेनाब पर. दोनों ही 'रन-ऑफ-द-रिवर' प्रोजेक्ट्स हैं, जिसका मतलब है कि वे नदी के प्राकृतिक प्रवाह का उपयोग करके और उसके मार्ग को बाधित किए बिना बिजली (क्रमशः 330 मेगावाट और 850 मेगावाट) पैदा करती हैं. अब पाकिस्तान ने कई बार यह आरोप लगाया है कि ये दोनों प्रोजेक्ट्स सिंधु जल संधि का उल्लंघन करते हैं. मगर बात सिर्फ इतनी नहीं है.
यह मामला इन प्रोजेक्ट्स के विवाद सुलझाने के अलग-अलग तरीकों को लेकर भी है. दोनों ही देश सिंधु जल संधि के विवाद-समाधान तंत्र की अलग-अलग व्याख्या कर रहे हैं.
विवादों को तीन चरणों में हल करने की बात सिंधु जल संधि में की गई है. इनमें पहला है - स्थायी सिंधु आयोग (पीआईसी) की बैठकें, दूसरा - विश्व बैंक की ओर नियुक्त तटस्थ विशेषज्ञ से परामर्श, और तीसरा है - विश्व बैंक और स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (पीसीए) को शामिल करते हुए एक न्यायिक प्रक्रिया. भारत का मानना है कि अगले चरण पर जाने से पहले सभी चरणों को पूरी तरह से समाप्त कर लेना चाहिए, जबकि पाकिस्तान भारत की सहमति के बिना आगे बढ़ गया है.
विवाद को सुलझाने के क्रम की शुरुआत में, दोनों देश एक तटस्थ विशेषज्ञ नियुक्त करने पर सहमत हुए. लेकिन 2016 में पाकिस्तान ने मध्यस्थता न्यायालय की मांग कर दी. विश्व बैंक ने चेतावनी दी कि दोनों विकल्पों का एक साथ इस्तेमाल करने से समाधान में विरोधाभास हो सकता है. हालांकि 2022 में विश्व बैंक ने विशेषज्ञ की नियुक्ति और मध्यस्थता न्यायालय, दोनों की सुविधा प्रदान कर दी. इसी वजह से भारत ने अदालती कार्यवाही में भाग लेने से यह तर्क देते हुए इनकार कर दिया है कि संधि के मुताबिक एक साथ दो समाधान तंत्र का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, जबकि पाकिस्तान का कहना है कि वह संधि की शर्तों का पालन कर रहा है.
2023 में क्या हुआ था?
अंग्रेजी अख़बार द हिन्दू ने एक आधिकारिक सूत्र के हवाले से खबर छापी है कि 2023 में पहली बार सिंधु जल संधि में संशोधन करने के भारत के प्रस्ताव के बाद पाकिस्तान की पहली प्रतिक्रिया थी कि इस मामले को कमिश्नर्स के स्तर पर ही बातचीत कर सुलझा लेना चाहिए. लेकिन भारत ने इस आधार पर इससे इनकार कर दिया कि कमिश्नर्स का काम संधि को लागू करना है और ऐसे मुद्दे केवल सरकारों के बीच ही हल किए जाने चाहिए.
अब इस साल 30 अगस्त को भारत ने पाकिस्तान को जो नोटिस भेजा, उसमें संधि पर फिर से बातचीत करने के लिए कहा गया है. इस नोटिस से जुड़े एक सरकारी नोट में कहा गया, "भारत की ओर से भेजे गए नोटिस में यह कहा गया है कि अभी के हालात में बदलाव की वजह से संधि के अलग-अलग अनुच्छेदों के तहत जिम्मेदारियों का फिर से मूल्यांकन करने की जरूरत है. इन बदले हालात में डेमोग्राफी में परिवर्तन; पर्यावरण संबंधी मुद्दे - भारत के उत्सर्जन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा के विकास में तेजी लाने की जरूरत और लगातार सीमा पार आतंकवाद का प्रभाव आदि शामिल हैं." इस खबर के लिखे जाने तक पाकिस्तान की तरफ से इस नोटिस पर प्रतिक्रिया सामने नहीं आई थी.
क्या है सिंधु जल संधि?
भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि पर 19 सितंबर, 1960 को कराची में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब खान ने विश्व बैंक के नेतृत्व में नौ साल की बातचीत के बाद हस्ताक्षर किए थे. यह संधि भारत को तीन पूर्वी नदियों - ब्यास, रावी, और सतलुज का "अप्रतिबंधित उपयोग" करने की अनुमति देती है, जबकि पाकिस्तान तीन पश्चिमी नदियों - सिंधु, चिनाब, झेलम को नियंत्रित करता है. कुल मिलाकर, यह संधि सिंधु नदी प्रणाली के लगभग 30% पानी को भारत और 70% पाकिस्तान को आवंटित करती है.