चन्द्रभान प्रसाद
15वीं से 17वीं सदी के दौरान यूरोप में पुनर्जागरण की शुरुआत हुई. यह एक ऐसा दौर था जब नई सोच, कला, विज्ञान और संस्कृति ने जन्म लिया. इसी समय औद्योगीकरण भी शुरू हुआ, जिसने समाज को पूरी तरह बदल दिया. औद्योगीकरण ने पुरानी सामंतवादी व्यवस्था को खत्म कर दिया, जिसमें जमींदार और सामंत समाज को नियंत्रित करते थे. इसकी जगह पूंजीवाद ने ले ली, जिसमें व्यापार और उद्योगों का महत्व बढ़ा.
इस बदलाव ने खेती पर आधारित ग्रामीण समाज को कमजोर किया और शहरों में रहने वाली एक नई सभ्यता को जन्म दिया. गांवों से शहरों की ओर लोगों का पलायन आधुनिकता की शुरुआत थी. इस आधुनिकता के साथ लोकतांत्रिक शासन, संसद और वयस्कों को वोट देने का अधिकार जैसी नई व्यवस्थाएं सामने आईं. ये सभी प्रगति के संकेत थे, जो दिखाते थे कि समाज अब पुरानी रूढ़ियों से बाहर निकलकर नई दिशा में बढ़ रहा है.
डॉ बी.आर. आंबेडकर का सपना था कि भारत भी ऐसा ही आधुनिक, शहरी और औद्योगिक समाज बने. उन्होंने गांवों के बारे में अपनी राय स्पष्ट शब्दों में व्यक्त की थी. उनके लिए गांव "स्थानीयता का गड्ढा, अज्ञानता और संकीर्ण सोच का अड्डा" थे. आंबेडकर की यह सोच उनके समय के ज्यादातर नेताओं से बिल्कुल अलग थी. उनके इस दृष्टिकोण को और बेहतर समझने से पहले एक सवाल उठता है: क्या कोई और भारतीय नेता गांवों के बारे में ऐसा ही सोचता था?
आंबेडकर का लक्ष्य भारत को आधुनिक यूरोप और अमेरिका की तरह एक शहरी और औद्योगिक देश बनाना था. उनके लिए ग्रामीण भारत पिछड़ेपन का प्रतीक था, जबकि शहरी भारत प्रगति और आधुनिकता का प्रतीक. लेकिन आंबेडकर के समय के ज्यादातर नेता, जिनमें महात्मा गांधी जैसे बड़े नाम भी शामिल थे, गांवों को बहुत महत्व देते थे. वे गांवों को भारत की आत्मा मानते थे और उनकी सादगी की तारीफ करते थे.
इस मामले में आंबेडकर के समकालीन लोग पुरानी सोच में जी रहे थे, जो पुनर्जागरण से पहले की चेतना को दर्शाती थी. दूसरी ओर, आंबेडकर अकेले ऐसे नेता थे जो पुनर्जागरण के बाद की चेतना के साथ भविष्य की ओर देख रहे थे. उनके लिए अतीत में उलझने के बजाय भविष्य की ओर बढ़ना ज्यादा जरूरी था. हालांकि उनके समकालीनों की नजर में पश्चिमी सभ्यता एक बुराई थी, और वे भारत को "जगतगुरु" मानते थे. लेकिन आंबेडकर ऐसा नहीं सोचते थे और वे भारत को एक आधुनिक और ताकतवर देश के रूप में देखना चाहते थे.
आंबेडकर की सोच को और स्पष्ट करने के लिए आज की स्थिति से तुलना ठीक रहेगी. आज के मध्यम वर्ग के ज्यादातर युवा पारम्परिक विज्ञान और कला की पढ़ाई छोड़कर इंजीनियरिंग, मेडिकल या बिजनेस स्कूलों में जाना पसंद करते हैं. उनके लिए पहली प्राथमिकता पैसा कमाना है, राष्ट्र का विकास बाद में आता है. जो लोग बीएससी, एमएससी या पीएचडी करते हैं, उन्हें अक्सर जेईई या मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं में असफल हुए लोग माना जाता है. इसका नतीजा यह है कि भारत में वैज्ञानिकों की कमी हो रही है, क्योंकि प्योर साइंसेज की पढ़ाई अब कम लोग करते हैं.
मध्यम वर्ग के लिए आईटी की नौकरियां और बिजनेस स्कूलों से डिग्री लेना सबसे महत्वपूर्ण है. विज्ञान की प्रयोगशालाएं उन लोगों के लिए छोड़ दी जाती हैं जो इन क्षेत्रों में नहीं जा पाते.
आंबेडकर का जन्म 1891 में हुआ था. उनके समकालीन नेताओं में जवाहरलाल नेहरू (1889), विनायक दामोदर सावरकर (1883), सरदार पटेल (1875), श्यामा प्रसाद मुखर्जी (1901) और सुभाष चंद्र बोस (1897) जैसे नाम शामिल थे. ये सभी लोग बैरिस्टर बनने के लिए इंग्लैंड गए थे, क्योंकि उस समय यह पेशा पैसा और प्रतिष्ठा कमाने का सबसे अच्छा रास्ता था. महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर ने भी कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड का रुख किया था. लेकिन आंबेडकर और राम मनोहर लोहिया ने अलग रास्ता चुना. दोनों ने अर्थशास्त्र की पढ़ाई की. लोहिया जर्मनी गए और उन्होंने भारत में नमक कर (टैक्स) पर पीएचडी की, जबकि आंबेडकर ने अमेरिका में अर्थशास्त्र का अध्ययन किया.
अब बात करते हैं 1962 के भारत-चीन युद्ध की, जो आंबेडकर की सोच को समझने में मदद करता है. अक्टूबर 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया. उसने भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की, भारतीय सेना को हराया और फिर अपनी मर्जी से वापस चला गया. पूरी दुनिया ने यह सब देखा, लेकिन कोई भी देश भारत की मदद के लिए आगे नहीं आया. अगर भारत ने आंबेडकर की सलाह मानी होती, तो शायद यह अपमानजनक हार टल सकती थी. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया की स्थिति को देखें तो आंबेडकर की सोच और साफ हो जाती है.
द्वितीय विश्व युद्ध 8 मई 1945 को खत्म हुआ था. इसके बाद अक्टूबर 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ (अब संयुक्त राष्ट्र) की स्थापना हुई, ताकि भविष्य में बड़े युद्धों को रोका जा सके. संयुक्त राष्ट्र की शुरुआत 51 देशों के साथ हुई थी, और आज इसमें 193 देश हैं. संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद इसका सबसे ताकतवर हिस्सा है, जिसमें पांच स्थायी सदस्य—अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत संघ (अब रूस) और चीन—हैं. इन सभी के पास वीटो पावर है, यानी वे किसी भी फैसले को रोक सकते हैं. युद्ध के बाद दुनिया दो खेमों में बंट गई थी—एक तरफ अमेरिका का पूंजीवादी खेमा और दूसरी तरफ सोवियत संघ का समाजवादी खेमा.
1949 में चीन में कम्युनिस्ट क्रांति हुई. लेकिन अमेरिका ने इस नए कम्युनिस्ट चीन को मान्यता देने से इनकार कर दिया. उसने ताइवान को चीन का प्रतिनिधि माना, जो पहले चीन का एक प्रांत था. जब कम्युनिस्ट पार्टी की सेना (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) ने चीन पर कब्जा किया, तो तत्कालीन राष्ट्रपति चांग काई-शेक ताइवान भाग गए. अमेरिका ने ताइवान को संयुक्त राष्ट्र में चीन की सीट दी और उसे वीटो पावर भी मिली. लेकिन भारत ने इसे अन्याय माना और कम्युनिस्ट चीन को संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्यता दिलाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी. भारत कम्युनिस्ट चीन को अपना दोस्त मानता था.
लेकिन आंबेडकर इस नीति से सहमत नहीं थे. उन्होंने कहा, "भारत को चीन की लड़ाई क्यों लड़नी चाहिए, जबकि चीन खुद अपनी लड़ाई लड़ सकता है? भारत का पहला कर्तव्य अपने हितों के प्रति होना चाहिए." आंबेडकर का मानना था कि भारत को कम्युनिस्ट चीन की वकालत करने के बजाय खुद संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्यता के लिए लड़ना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि भारत की यह नीति अमेरिका के साथ दुश्मनी का कारण बन रही है, जिसके चलते भारत को अमेरिका से आर्थिक और तकनीकी मदद नहीं मिल पा रही है. एक समय आंबेडकर ने स्वतंत्र भारत का नाम "संयुक्त राज्य भारत" रखने का सुझाव भी दिया था.
अब सवाल उठता है कि चीन ने ताइवान पर हमला क्यों नहीं किया, जो उसका अपना प्रांत था और जिसके पास जवाबी हमले की ताकत भी नहीं थी? जवाब है—क्योंकि ताइवान को अमेरिका का संरक्षण प्राप्त था. अगर भारत ने आंबेडकर की सलाह मानी होती और अमेरिका के खेमे में शामिल हो गया होता, तो शायद चीन 1962 में भारत पर हमला करने की हिम्मत नहीं करता. आज भी चीन भारत के खिलाफ कई बार वीटो पावर का इस्तेमाल करता है. उदाहरण के लिए, उसने आतंकवादी मसूद अजहर पर प्रतिबंध लगाने की भारत की मांग को कई बार रोका.
आंबेडकर की सोच को और गहराई से समझने के लिए उनके आर्थिक विचारों पर भी नजर डाली जानी चाहिए. उन्होंने अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की पढ़ाई की और अपने सभी शोधपत्र भारतीय अर्थव्यवस्था पर केंद्रित किए. जब उनके समकालीन लोग इंग्लैंड से बैरिस्टर की डिग्री लेकर पैसा कमा रहे थे, तब आंबेडकर भारत के पुनर्निर्माण पर काम कर रहे थे. 1918 में, जब वे सिर्फ 27 साल के थे, उन्होंने एक महत्वपूर्ण शोधपत्र लिखा, जिसका शीर्षक था "भारत में छोटी जोतें और उनके उपाय." इस शोध में उन्होंने कहा कि भारत की छोटी खेती की समस्या का सबसे अच्छा समाधान औद्योगीकरण है.
उस समय यह विचार बिल्कुल नया और क्रांतिकारी था. आंबेडकर ने लिखा, "भले ही यह अजीब लगे, लेकिन भारत का औद्योगीकरण ही खेती की समस्याओं का सबसे अच्छा हल है." उन्होंने अपने तर्क को और मजबूत करने के लिए अमेरिका और यूरोप के अनुभवों का हवाला दिया. आंबेडकर का कहना था कि अगर भारत उद्योगों को बढ़ावा दे, तो खेती भी मजबूत होगी. उनके लिए खेती को एक उद्योग की तरह देखना जरूरी था. लेकिन उस समय ज्यादातर लोग भारत को एक औद्योगिक समाज के रूप में सोच भी नहीं सकते थे.
आंबेडकर ने अपने बचपन में देखा था कि छोटी जोतों पर खेती करने वाले किसान घाटे में रहते हैं और मुश्किल जिंदगी जीते हैं. उनके लिए औद्योगीकरण का मतलब था कि खेती को घाटे का धंधा बनने से बचाया जाए. उन्होंने अमेरिका के एक अध्ययन का जिक्र किया, जिसके मुताबिक जब उद्योगों के अनुपात में खेती बढ़ती है तो उसी अनुपात में कृषि भूमि की कीमत कम होती जाती है, जिससे किसानों को नुकसान होता है. आंबेडकर ने यह भी कहा कि भारत में यही खतरा है.
जब आंबेडकर भारत लौटे, तो उन्होंने देखा कि उनके समकालीन लोग इंग्लैंड से कानून की डिग्री लेकर अमीर बन रहे थे. लेकिन आंबेडकर का मकसद पैसा कमाना नहीं, बल्कि भारत को मजबूत बनाना था. 1951 में भी वे छोटी जोतों की समस्या पर डटे रहे. उन्होंने जनसंख्या वृद्धि को भी एक बड़ी समस्या माना. अपने पहले लोकसभा चुनाव के घोषणापत्र में उन्होंने वादा भी किया था कि वे जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए सख्त कदम उठाएंगे.
1950 के दशक में भारत को खाद्य संकट का सामना करना पड़ा. उस समय भारत को अमेरिका से गेहूं आयात करना पड़ा, जिसे पीएल 480 योजना कहा गया. कई लोगों ने इसे राष्ट्रीय अपमान माना, क्योंकि भारत अपने लोगों का पेट भरने के लिए दूसरों पर निर्भर था. भारत के पास न तो पर्याप्त पैसा था और न ही खेती की आधुनिक तकनीक. आंबेडकर के समकालीन नेताओं को शायद यह भी नहीं पता था कि औसत भारतीय क्या और कितना खाता है.
दूसरे शब्दों में, आंबेडकर ने पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी कि भारत कभी भी पीएल 480 जैसी स्थिति में फंस सकता है. आंबेडकर के एक निष्पक्ष प्रशंसक के रूप में, मैं उनके सभी समकालीनों से पूछना चाहता हूं कि उन्होंने आंबेडकर की बात क्यों नहीं मानी? वे अकेले ऐसे दार्शनिक थे जो भारत को अमेरिका की तरह एक आधुनिक, शहरी और औद्योगिक सभ्यता का रूप देना चाहते थे, जिसमें संसाधनों की कोई कमी न हो. भारत को अंबेडकर को खो दिया, लेकिन अभी भी समय है कि हम उनकी सोच को फिर से अपनाएं. यह 20वीं सदी के भारत में पैदा हुए एकमात्र 21वीं सदी के दार्शनिक का सबसे अच्छा सम्मान होगा.