पिछले कई सालों से अख़बार और रिसर्च जर्नल जलवायु परिवर्तन के खतरों को आगाह करते रहे हैं लेकिन 2024 में जाकर हर तबके को एहसास हुआ कि हम सब इसका असर महसूस कर रहे हैं. जलवायु परिवर्तन के वैश्विक संकट से जो देश सबसे अधिक प्रभावित हुए, भारत उनमें से एक था.
नई दिल्ली स्थित थिंक-टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (CSE) ने अपनी 'स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट 2025' रिपोर्ट में 274 दिनों के तापमान को ट्रैक किया. चौंकाने वाली बात यह रही कि इन 274 में से 255 दिन (93 प्रतिशत) भारत के कम से कम एक क्षेत्र में तापमान अपने चरम पर देखा गया.
यह आंकड़ा 2023 में 235 दिन और 2022 में 241 दिन था. यह रिपोर्ट हाल ही में राजस्थान में CSE की ओर से आयोजित अनिल अग्रवाल डायलॉग (AAD) 2025 में जारी की गई थी.
सीधे शब्दों से समझें तो अगर 2024 का मौसम आपको गर्म लग रहा था, तो 2025 और भी गर्म हो सकता है. भारतीय मौसम विभाग (IMD) ने समय से पहले गर्मी की शुरुआत की घोषणा की है, जिसमें पिछले साल से भी अधिक तापमान और लगातार गर्म हवाएं चलेंगी. फरवरी 2025 को पहले ही 1901 के बाद से देश में सबसे गर्म फरवरी घोषित किया जा चुका है.
तापमान में बढ़ोतरी के साथ ही बड़ी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा भी मंडरा रहा है. पिछले जुलाई में केरल के वायनाड में हुए लैंडस्लाइड में 350 से ज़्यादा लोग मारे गए थे और कई गांव तबाह हो गए थे. भारत में प्राकृतिक आपदाओं में होने वाली मौतों की संख्या भी बढ़ती जा रही है. 2024 में ऐसी घटनाओं में 3,238 लोगों की जान गई थी, जो कि 2022 की तुलना में 18 प्रतिशत अधिक है जब 2,755 मौतें दर्ज की गई थीं.
राजस्थान के जैसलमेर के रेगिस्तानी इलाके में, एक ही दिन में भारी बारिश का होना भी आम बात हो गई है. पिछले साल इस इलाके में एक ही दिन में मौसम की 55 प्रतिशत बारिश हुई थी. अगर भीषण सर्दी वाले इलाके लेह की बात करें तो यहां के ठंडे रेगिस्तान में भी जुलाई 2024 में गर्मी की लहर चलने लगी थी. साफ दिख रहा है कि सालों से चले आ रहे जलवायु के पैटर्न अब बदलने लगे हैं और हर साल कुछ अलग घटित होता दिख रहा है.
दुनियाभर में 2024 पहला साल था जिसमें औसत वैश्विक तापमान औद्योगिक क्रांति से पहले के दौर से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक था. यूरोपीय संघ की कोपरनिकस जलवायु परिवर्तन सेवा ने इस जनवरी में जारी अपनी 'ग्लोबल क्लाइमेट हाइलाइट्स 2024' रिपोर्ट में पाया कि साल के ग्यारह महीनों में वैश्विक औसत सतह-वायु तापमान इस सीमा से ऊपर रहा. रिपोर्ट में कहा गया है कि यूरोप के लिए 2024 रिकॉर्ड स्तर पर सबसे गर्म साल था.
इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि वैज्ञानिक इस पर्यावरणीय रूप से अशांत समय को एंथ्रोपोसीन एपोच (मानव युग) कह रहे हैं, जो पृथ्वी के इतिहास का वह काल है जब मानवीय गतिविधियों ने धरती के मौसम और पूरी ईकोसिस्टम को महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया है.
CSE की महानिदेशक सुनीता नारायण का कहना है कि न केवल मौसमी उतार-चढ़ाव की तीव्रता और अवधि बढ़ी है, बल्कि यह 'न्यू नार्मल' बनने जा रहा है जिसका सामना पूरी दुनिया को करना होगा. 'न्यू नॉर्मल' यानी कि अब यह स्थायी पैटर्न होने जा रहा है.
पुणे में भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के जलवायु वैज्ञानिक डॉ. रॉक्सी मैथ्यू कोल के अनुसार, भारत में इसके पीछे एक प्रमुख कारण देश की उष्णकटिबंधीय भौगोलिक स्थिति है. उन्होंने AAD 2025 में समझाया, "उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में सौर विकिरण का उच्च स्तर प्राप्त होता है, जो ग्रीनहाउस गैसों द्वारा फंस जाता है. शहरी क्षेत्रों में, बढ़ते कंक्रीटीकरण के साथ, अधिक गर्मी अवशोषित होती है. प्राकृतिक सतहों से उलट, कंक्रीट इस गर्मी को बरकरार रखता है और रात के समय होने वाली ठंड को रोकता है. दिल्ली जैसे शहरों में, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच रात के समय के तापमान का अंतर 15 डिग्री सेल्सियस तक हो सकता है."
कोल आगे कहती हैं, " लू या हीट-वेव तेज़ हो रही हैं और अनुमानों के मुताबिक सदी के अंत तक वे तीन से छह गुना तक बढ़ सकती हैं." उन्होंने जलवायु संबंधी घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति की ओर इशारा किया, जहां हीट-वेव वर्षा की कमी, जंगलों की आग और सूखे के लिए जिम्मेदार होती हैं. इसके अलावा, समुद्र में हीट-वेव, जिन्हें समुद्री हीट-वेव कहा जाता है, चक्रवातों की संख्या भी बढ़ाती हैं.
गर्म होते महासागरों ने जलवायु आपदाओं को जन्म दिया है. जैसे-जैसे महासागर अधिक गर्मी अवशोषित करते हैं, वे अधिक पानी को वाष्पित करते हैं, जिससे वातावरण में गर्मी और नमी बढ़ जाती है. गर्मी और नमी ऊर्जा की अतिरिक्त आपूर्ति के रूप में काम करती है, जो बदले में तूफान और चक्रवात जैसी घटनाओं को बढ़ावा देती है. यह समुद्र के स्तर को बढ़ाती हैं क्योंकि तापमान बढ़ने से समुद्र में पानी की मात्रा बढ़ जाती है.
'स्टेट ऑफ इंडिआज एनवायरमेंट 2025' रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक औसत तापमान में हर बार एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के कारण वायुमंडलीय नमी के स्तर में 7 प्रतिशत की वृद्धि होती है, जो मौसम में तीखे-उतार चढ़ाव के लिए आदर्श स्थिति बन जाती है.
कोल ने चेतावनी देते हुए कहा, "फिलहाल एशिया-पैसिफिक, उत्तरी अमेरिका, लैटिन अमेरिका, यूरोप, मिडिल ईस्ट, अफ्रीका और चीन समेत प्रमुख क्षेत्रों में समुद्र का स्तर औसतन तीन मिलीमीटर प्रति वर्ष की दर से बढ़ रहा है. हालांकि यह छोटा लग सकता है, लेकिन एक दशक में यह 3 सेमी की वृद्धि के बराबर है, जो समुद्री जल के जमीन पर 17 मीटर अंदर घुस जाने के बराबर है."
20वीं सदी की शुरुआत से अब तक हिंद महासागर का वार्षिक औसत तापमान 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है. जैसे-जैसे वैश्विक तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2.5 डिग्री सेल्सियस ऊपर की ओर बढ़ेगा, जलवायु से जुड़े कई प्रभाव बढ़ेंगे. समुद्र का स्तर 3 सेमी प्रति दशक से दोगुना होकर 5-7 सेमी प्रति दशक हो सकता है, जिससे समुद्र तटीय क्षेत्रों की कई मीटर जमीन निगल लेगा.
कोल बताते हैं कि पृथ्वी की जलवायु 20,000 से 400,000 सालों के चक्र में प्राकृतिक रूप से गर्म और ठंडी होती रहती है, लेकिन धरती की कक्षा, झुकाव और कंपन में बदलाव के कारण अब नजर आने वाली तापमान वृद्धि अभूतपूर्व है. मानव की ओर से उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैस के कारण जलवायु परिवर्तन चक्र हज़ारों सालों से बढ़कर कुछ दशकों में ही रह गया है.
यूएन-हैबिटेट की तरफ से जारी 'वर्ल्ड सिटीज रिपोर्ट 2024: सिटीज एंड क्लाइमेट एक्शन' के अनुसार, 2040 तक, शहरी क्षेत्रों में लगभग 200 करोड़ लोग तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी झेलेंगे. यूएन-हैबिटेट की कार्यकारी निदेशक एनाक्लुडिया रोसबैक ने रिपोर्ट में कहा है, "लगभग कोई भी शहरी निवासी इससे नहीं बच सकेगा, अरबों लोग भीषण तापमान झेलेंगे या बाढ़ और अन्य खतरों के जोखिम के संपर्क में आ जाएंगे."
जलवायु संबंधी परिवर्तन भोजन, पानी और ऊर्जा सुरक्षा सहित कई क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं. वे जलवायु-संवेदनशील रोगों जैसे हीट स्ट्रेस, हीट स्ट्रोक, डेंगू, मलेरिया और चिकनगुनिया के प्रसार को भी बढ़ाते हैं.
इतनी भीषण स्थिति के बावजूद जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो कोशिशें की जा रही हैं, उन्हें खत्म किया जा रहा है. जीवाश्म ईंधन की ओर लोग फिर से आकर्षित हो रहे हैं.
CSE की महानिदेशक सुनीता नारायण ने चिंता के दो प्रमुख प्रभावों की ओर इशारा किया. वे कहती हैं, "सबसे पहले, इससे अमेरिका में उत्सर्जन बढ़ेगा. लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि एक बार जब अमेरिका इस रास्ते पर चल पड़ेगा, तो दूसरे देश भी उसका अनुसरण करेंगे, जिससे आवश्यक जलवायु कार्रवाई को लागू करना और भी मुश्किल हो जाएगा. और यह ऐसे समय में हो रहा है जब दुनिया पहले ही अपने कार्बन बजट को खत्म कर चुकी है. कार्बन बजट कार्बन डाइऑक्साइड की वह अधिकतम मात्रा है जिसे वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए उत्सर्जित किया जा सकता है.
भारतीय मौसम विभाग रोजाना के आधार पर मौसम रिपोर्ट जारी करता है, जिसे CSE ने पूरे 2024 के लिए इकठ्ठा किया है. डेटा इस बात की पुष्टि करता है जिसकी चेतावनी वैज्ञानिक लंबे समय से दे रहे थे - जलवायु संकट आ गया है और हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहना अब कोई विकल्प नहीं है.