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क्या राणा सांगा के बुलावे पर भारत आया था बाबर?

समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद रामजी लाल सुमन के इस बयान के बाद राजनीतिक बवाल मचा हुआ है कि राजपूत राजा राणा सांगा ने ही भारत पर आक्रमण के लिए बाबर को बुलावा भेजा था

मेवाड़ के राजा राणा सांगा पर बाबर को भारत आने का न्योता देने का आरोप
मेवाड़ के राजा राणा सांगा पर बाबर को भारत आने का न्योता देने का आरोप
अपडेटेड 26 मार्च , 2025

मार्च की 21 तारीख को समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद रामजी लाल सुमन ने संसद में कहा, "बीजेपी नेता दावा करते हैं कि मुसलमानों में बाबर का DNA है. लेकिन, भारतीय मुसलमान बाबर को अपना आदर्श नहीं मानते. असल में बाबर को भारत कौन लाया? राणा सांगा ने ही उसे इब्राहिम लोदी को हराने के लिए आमंत्रित किया था. इस तर्क से अगर आप कहेंगे कि मुसलमान बाबर के वंशज हैं, तो आप भी राणा सांगा के वंशज और एक गद्दार हैं.”

इसके आगे सुमन ने सवाल उठाया कि हम भारतीय बाबर की आलोचना करते हैं, लेकिन राणा सांगा की नहीं, ऐसा क्यों? राणा सांगा को देशद्रोही और गद्दार बताए जाने वाले बयान पर कड़ा विरोध जताते हुए बीजेपी ने इसे हिंदू समुदाय का अपमान बताया है. हालांकि इन राजनीतिक आरोपों-प्रत्यारोपों से इतर यह जानना दिलचस्प है कि बाबर किन परिस्थितियों में भारत आया और इसका इब्राहिम लोदी से क्या संबंध था

दिल्ली में लोदी वंश के अंतिम शासक थे इब्राहिम लोदी

साल 1517 में दिल्ली की गद्दी पर इब्राहिम लोदी, लोदी वंश के आखिरी राजा के तौर पर बैठे थे. इसके बाद मुगल वंश का पहला बादशाह बाबर दिल्ली की गद्दी पर बैठा. 

इतिहासकार क्रिश्चियन मैबेल डफ ने अपनी किताब ‘क्रोनोलॉजी ऑफ इंडिया’ में इस बात का जिक्र किया है कि इब्राहिम लोदी जब दिल्ली की गद्दी पर बैठे तब उनका साम्राज्य बिखरा और कई रियासतों में बंटा हुआ था. दिल्ली राजदरबार से जुड़े क्षेत्रीय शासकों को पर्याप्त अधिकार दिए गए थे. इब्राहिम ने सत्ता में आते ही मजबूत इरादे के साथ सत्ता को केंद्रीकृत करने की कोशिश की. 

इब्राहिम लोदी की सबसे विवादास्पद नीतियों में से एक शक्तिशाली सरदारों को उनके पद से हटाना था. उन्होंने कई वरिष्ठ अफगान सरदारों को उनके पद से बर्खास्त कर दिया और जिसने भी विरोध किया उसे मार डाला. इतना ही नहीं उन्होंने इन पदों पर अपने वफादारों की नियुक्ति भी की. उनके इस कदम से राजदरबार और सत्ता के करीब रहने वाला बड़ा और ताकतवर वर्ग बादशाह से नाराज हो गया. 

इब्राहिम ने अपने शासनकाल में दूसरा बड़ा बदलाव ये किया कि उन्होंने जागीरों पर कुलीनों के वंशानुगत नियंत्रण को भी खत्म करने की कोशिश की. इब्राहिम ने भूमि और राजस्व संग्रह पर सीधा नियंत्रण हासिल किया. इब्राहिम जिस तरह से ताबड़तोड़ फैसला ले रहे थे, इसकी वजह से उनके कई करीबी ही विरोध के स्वर उठाने लगे. 

इब्राहिम के विरोध करने वाले प्रमुख व्यक्तियों में से एक उनके चाचा दौलत खान लोदी थे, जो पंजाब के गवर्नर थे. अपने अधिकार को कमजोर करने के इब्राहिम के प्रयासों से नाराज होकर, उन्होंने बाहरी राजाओं से भी मदद मांगी थी. 

इब्राहिम की आक्रामक केंद्रीकरण नीतियों से दिल्ली साम्राज्य में अशांति पैदा हो गई, जिसके कारण कई विद्रोह हुए. केंद्रीय सत्ता और क्षेत्रीय सत्ता संरचनाओं के बीच संतुलन बनाए रखने में उनकी असमर्थता ने अंततः उनके शासन को कमजोर कर दिया.  

इब्राहिम लोदी का राणा सांगा के खिलाफ प्रतिद्वंद्विता और युद्ध

1519 में मेवाड़ के राजपूत राजा राणा सांगा ने गागरोन की लड़ाई में मालवा के महमूद खिलजी द्वितीय को हराकर उसे गिरफ्तार कर लिया. इस जीत के बाद उन्होंने अपने एक जागीरदार मेदिनी राय को मालवा सल्तनत के अधिकांश भाग पर शासन करने के लिए नियुक्त किया, जिसकी राजधानी चंदेरी थी. 

इतिहासकार सतीश चंद्र ने अपनी किताब 'मध्यकालीन भारत का इतिहास (1526-1748)' में लिखा है कि सांगा के प्रभाव के विस्तार से दिल्ली के लोदी शासक चिंतित हो गए थे. इस वक्त इब्राहिम लोदी मालवा पर हमला कर उसे जीतने की कोशिश कर रहे थे.  

इब्राहिम लोदी को अब सांगा की बढ़ती शक्ति से सीधे खतरा दिख रहा था. इसी कारण लोदी और राणा सांगा के बीच कई झड़पें हुईं. 1518 में दक्षिणी राजस्थान में हाड़ौती की सीमा के पास घाटोली में दोनों के बीच एक युद्ध हुआ. राणा सांगा की सेना ने लोदी सेना पर भारी प्रहार किया, जिससे इब्राहिम लोदी को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा. 

इसके बाद धौलपुर की लड़ाई में इब्राहिम लोदी को एक और बड़ी हार का सामना करना पड़ा, जिससे उत्तरी भारत पर उसका नियंत्रण और कमजोर हो गया. इस लड़ाई में राणा सांगा को एक हाथ खोना पड़ा था. इनके बावजूद उन्होंने लोदी के खिलाफ अपनी सेना का नेतृत्व करना जारी रखा. 

कब और कैसे भारत आया पहला मुगल शासक बाबर

इतिहासकार मार्क जेसन गिल्बर्ट ने अपनी किताब ‘साउथ एशिया इन वर्ल्ड हिस्ट्री’ में लिखा है कि 1504 में तैमूर और चंगेज खां के वंशज बाबर ने अपने चाचा उलुग बेग द्वितीय को सत्ता को उखाड़ फेंकने के बाद काबुल और गजनी पर कब्जा कर लिया. लेकिन, उसे फरगना और समरकंद (आज का उज्बेकिस्तान) दोनों में हार का सामना करना पड़ा. 

समरकंद में तीसरी बार हार के बाद बाबर ने अपना ध्यान भारत की ओर लगाया. उत्तर-पश्चिम में मुहम्मद शायबानी के शासन से खतरा होने के कारण बाबर ने संभावित विस्तार क्षेत्र के रूप में दक्षिण-पूर्व में पंजाब की ओर बढ़ने का फैसला किया.  

1519 तक वह चेनाब नदी तक पहुंच गया था, जो उत्तरी भारत में उसके आक्रमण की शुरुआत थी. उस समय इब्राहिम लोदी के अधीन दिल्ली सल्तनत में उथल-पुथल मची हुई थी. 

लोदी की सख्त केंद्रीकरण नीतियों से पंजाब के गवर्नर दौलत खान लोदी भी नाराज थे. बाद में उन्होंने इब्राहिम लोदी की सत्ता को उखाड़ फेंकने और भारत पर आक्रमण करने के लिए बाबर को आमंत्रित किया था. इब्राहिम लोदी के चाचा आलम खान लोदी ने भी बाबर को आमंत्रित किया था. 

क्या राणा सांगा ने भी बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया था

राणा सांगा ने बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया था या नहीं, इसको लेकर इतिहासकारों के अलग-अलग विचार हैं. बाबर के संस्मरण ‘बाबरनामा’ में राणा सांगा की ओर से दिल्ली को लेकर भेजे गए "शुभकामनाओं और प्रस्ताव" का उल्लेख है.

बाबर के मुताबिक का प्रस्ताव था कि अगर राणा सांगा उस ओर से दिल्ली की ओर आगे बढ़ेंगे तो वह इधर से आगरा की ओर दिल्ली की ओर चल देगा. लेकिन, ‘बाबरनामा’ के अलावा अन्य ऐतिहासिक अभिलेख इन दावों की पुष्टि नहीं करते. 

सतीश चंद्र जैसे आधुनिक इतिहासकारों का तर्क है कि राणा सांगा ने संभवतः बाबर को औपचारिक रूप से आमंत्रित करने के बजाय लोदियों के साथ उसके संघर्ष का लाभ उठाने की कोशिश की थी. 

इतिहासकार यदुनाथ सरकार राणा सांगा के बाबर को भारत आने के निमंत्रण वाली बात को खारिज करते हैं. वो बताते हैं कि बाबर का आक्रमण उसकी अपनी महत्वाकांक्षाओं और लोदी विद्रोहियों के साथ गठबंधन से प्रेरित था. वहीं इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा का तर्क है कि राणा सांगा ने नहीं बल्कि बाबर ने राणा सांगा से मदद मांगी थी. 

बाबर का भारत में प्रवेश और पानीपत का युद्ध

1524 में बाबर ने लाहौर की ओर से भारत उपमहाद्वीप में कूच किया, लेकिन उसे पता चला कि इब्राहिम लोदी ने पहले ही दौलत खान को खदेड़ दिया था. 

इतिहासकार सतीश चंद्र के मुताबिक, युद्ध में बाबर की सेना ने लोदी सेना को हरा दिया, जिससे उसे झेलम, सियालकोट, कलानौर और दीपालपुर जैसे प्रमुख क्षेत्रों पर कब्जा करने में मदद मिली. 

काबुल लौटने से पहले बाबर ने दीपालपुर साम्राज्य को इब्राहिम लोदी के विरोधी और उसके चाचा आलम खान लोदी को सौंप दिया. 1525 के अंत तक बाबर ने सिंधु नदी को पार करते हुए बड़े पैमाने पर आक्रमण शुरू कर दिया. पंजाब पर अपनी पकड़ मजबूत करने के बाद वह दिल्ली की ओर बढ़ा, जिसके कारण 1526 में पानीपत की पहली निर्णायक लड़ाई हुई. 

इब्राहिम लोदी की विशाल सेना बाबर की 12,000 सैनिकों वाली सेना से ज्यादा थी, लेकिन उसके पास बारूद की कमी थी. बाबर ने तोपखाने और घुड़सवार तीरंदाजों का इस्तेमाल करके जंजीरों से बंधी गाड़ियों के साथ एक घातक जाल बिछाया.

जैसे-जैसे इब्राहिम की सेना आगे बढ़ी, बाबर की तोपों ने उनके सैनिकों की पंक्तियों को तहस-नहस कर दिया. बारूद और गोले से घबाराकर हाथी अपने ही सैनिकों को रौंदने लगे. इस तरह संख्या में ज्यादा होने के बावजूद लोदी की सेना बिखर गई.

इब्राहिम लोदी समेत 20,000 सैनिक मारे गए, जिससे बाबर की जीत पक्की हो गई. पानीपत की लड़ाई में बाबर की जीत ने भारत में मुगल शासन की शुरुआत की, लेकिन बाबर-सांगा की कहानी अभी खत्म नहीं हुई थी. 

राणा सांगा बनाम बाबर: खानवा का युद्ध (1527)

पानीपत में बाबर की जीत के बाद राणा सांगा को उम्मीद थी कि वह काबुल लौट जाएगा और उत्तर भारत पर शासन राजपूतों को सौंप देगा. लेकिन, ऐसा नहीं हुआ.  बाबर ने खुद को हिंदुस्तान का शासक घोषित कर दिया और जाने से इनकार कर दिया. बाबर को पीछे हटते न देख राणा सांगा ने उसे चुनौती देने के लिए राजपूत और अफगान सेनाओं का एक विशाल गठबंधन तैयार किया. 1527 में खानवा में दोनों के बीच जबरदस्त जंग हुई. यह भारतीय इतिहास में एक निर्णायक युद्ध के तौर पर जाना जाता है. 

संख्या में कम होने के बावजूद बाबर ने बेहतर रणनीति अपनाई, जिसमें तोपखाने का नए तरीके से इस्तेमाल किया गया था. इससे राणा सांगा की सेना परास्त हो गई. राजपूतों को करारी हार का सामना करना पड़ा, जिससे भारत में मुगलों का प्रभुत्व मजबूत हुआ. हालांकि, यह राणा सांगा ही थे, जिन्होंने मुगलों को भारत में पहली बार हराया था.

सतीश चंद्र जैसे इतिहासकारों का मानना ​​है कि खानवा उत्तरी भारत की पहली लड़ाइयों में से एक थी जिसमें बारूद का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया था. इस लड़ाई में दोनों पक्षों को भारी नुकसान हुआ, लेकिन मुगलों के खिलाफ राजपूत प्रतिरोध समाप्त हो गया. इससे उत्तरी भारत पर बाबर का नियंत्रण सुनिश्चित हो गया.

- यह स्टोरी मूल रूप से Indiatoday.in पर प्रियांजलि नारायण ने लिखी है. इसे अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

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