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दिल्ली विधानसभा चुनाव 1998 : जब प्याज ने बीजेपी को सत्ता से बाहर किया, फिर वो आजतक वापसी नहीं कर पाई!

साल 1980 में चरण सिंह की अगुआई वाली जनता पार्टी की सरकार में प्याज की कीमत पांच रुपये प्रति किलो तक पहुंच गई थी. तब विपक्ष की नेता इंदिरा गांधी ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया था. लेकिन इसकी असल बानगी साल 1998 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय देखने को मिली

1998 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्याज एक अहम चुनावी मुद्दा बना था
1998 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्याज एक अहम चुनावी मुद्दा बना था
अपडेटेड 17 जनवरी , 2025

ये कहानी उस कहावत से काफी हद तक मिलती जुलती है जब लोग आग लगने पर कुआं खोदते हैं और कई बार आग इतनी बेकाबू हो जाती है कि वे खुद ही उसके शिकार बन जाते हैं. साल 1998 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में तब सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. फर्क सिर्फ इतना था कि महंगाई की उस धधकती आग में ईंधन का काम केरोसिन या पेट्रोल नहीं, बल्कि बिजली पानी के साथ नमक, आलू, टमाटर व बैंगन कर रहे थे. और तब इन सब का अगुआ बना था - प्याज.

वही प्याज जिसे प्राचीन मिस्र के शासक फिरौन लंबे जीवन का प्रतीक मानते थे. एक समय में इसे इतना पवित्र माना गया कि प्राचीन मिस्र के शहंशाह शाह तुत के मकबरे पर उकेरा गया और इतिहास के एक कालखंड में यह इतना कीमती था कि मध्ययुगीन यूरोप में उसे शादी के मौकों पर बतौर उपहार दिया जाता था. कालांतर में इंसानों (जरूर राजनीतिज्ञ रहे होंगे!) ने प्याज को सिर्फ सब्जी तक ही सीमित कर दिया. लेकिन प्याज को जब भी मौका मिला, उसने अपना प्रतिशोध लिया है!

आम इंसानों को सिर्फ रुला कर छोड़ देने वाला प्याज राजनीति के क्षेत्र में बेरहम रहा है. बात 1980 की है. चरण सिंह की अगुआई में उस समय की जनता पार्टी की सरकार अपने शासन के अंतिम दिन ही गिन रही थी. उनके शासन में प्याज की कीमत पांच रुपये प्रति किलो तक पहुंच गई. तब विपक्ष की नेता इंदिरा गांधी ने न सिर्फ इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया था बल्कि जमकर भुनाया भी. लेकिन इसकी असल बानगी साल 1998 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय देखने को मिली.

मदन लाल खुराना दिल्ली में मुरली मनोहर जोशी, साहिब सिंह वर्मा और अन्य नेताओं के साथ (1993)
मदन लाल खुराना (बीच में) दिल्ली में मुरली मनोहर जोशी, साहिब सिंह वर्मा और अन्य नेताओं के साथ (1993)

दिल्ली में उस समय बीजेपी की सरकार थी. 1993 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने कुल 70 में से 49 सीटों पर कब्जा जमाया था. मदनलाल खुराना प्रदेश के तीसरे सीएम बने, लेकिन जैन हवाला कांड में नाम आने के बाद 1996 में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद पार्टी में ही उनके प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले साहिब सिंह वर्मा को दिल्ली की कमान मिली. वर्मा दिल्ली के चौथे सीएम बने. लेकिन इन्हीं साहिब सिंह वर्मा की सरकार में प्रदेश की जनता महंगाई से त्रस्त हो गई. हाल ऐसा था कि जून 1998 में जहां दिल्लीवासी 8 रुपये में एक किलो प्याज खरीद रहे थे, अक्तूबर आते-आते दीवाली के मौके पर यह 60 रुपये प्रति किलो जा पहुंची.

और ये हाल सिर्फ प्याज का ही नहीं था, बल्कि आसमान छूती महंगाई में साथ देने के लिए आलू 20 रु.किलो, फूलगोभी 26 रु. किलो और टमाटर 30 रु. भी कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे. प्याज की इस तीखी गंध पर पत्रकारों ने जब सीएम वर्मा से सवाल किया तो उनका गैरजिम्मेदाराना जवाब था, "गरीब लोग प्याज नहीं खाते." उनके इस बयान से यह साफ था कि प्रदेश सरकार अभी तक महंगाई की गंभीरता को समझ नहीं पा रही थी. उधर, दिल्लीवासियों का हाल बेहाल था. उस साल गर्मियों में प्रदेश के लोगों को बिजली-पानी जैसी आम सुविधाओं की भी भारी किल्लत का सामना करना पड़ा था. इन सब बातों से उनमें काफी रोष पनपा.

इधर, "गरीब लोग प्याज नहीं खाते", सीएम वर्मा के इस बयान को विपक्षी कांग्रेस ने दोनों हाथों से लपका. दिल्ली की प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष शीला दीक्षित मानो महंगाई के मुद्दे को प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थीं. इस काम में दीक्षित का साथ तब कांग्रेस के सबसे कम उम्र के प्रत्याशी अरविंदर सिंह लवली भी दे रहे थे. उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए और बीजेपी को घेरने के लिए लवली ने नारा गढ़ा - बिजली पानी आलू प्याज, ख्वाबों में आते हैं आज.

1998 में दिल्ली में कुछ इस तरह प्याज की बढ़ती कीमतों का विरोध किया जा रहा था
1998 में दिल्ली में कुछ इस तरह प्याज की बढ़ती कीमतों का विरोध किया जा रहा था

दिल्ली में चौतरफा रोष और विपक्ष को मिलती बढ़त को देखते हुए बीजेपी हाईकमान ने एक अप्रत्याशित फैसला लिया. दिल्ली में 25 नवंबर को विधानसभा के प्रस्तावित चुनाव के ठीक 45 दिन पहले साहिब सिंह वर्मा को सीएम पद से इस्तीफा देने के लिए कहा गया (कहानी में इसे आगे विस्तार से बताया गया है). 12 अक्टूबर को वर्मा की जगह सुषमा स्वराज दिल्ली की अगली सीएम बनीं. वे प्रदेश की पहली महिला सीएम थीं, और दिल्ली की पांचवीं. लेकिन बात इससे भी नहीं बनी. बीजेपी को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा. लेकिन यहां सवाल उठता है कि प्याज का दाम इतनी तेजी से क्यों और कैसे बढ़ता गया था?

देश भर में लोग रो रहे थे 'प्याज' के आंसू!

इंडिया टुडे के 11 नवंबर 1998 के अंक में 'क्यों विस्फोटक हुआ संकट प्याज का' शीर्षक के साथ एक कवर स्टोरी छपी थी. उसमें संवाददाता शेफाली रेखी और कुमार संजय सिंह ने बहुत महीनता से इस पूरे मसले को कवर किया था. संवाददाता लिखते हैं कि मुंबई में, जहां दीवाली के मौके पर प्याज की कीमत 45 रु. प्रति किलो हो गई थी वहीं चंडीगढ़ में यह 65 रु. किलो तक चढ़ गई थी, दिल्ली में इसकी कीमत 60 रु. किलो जा पहुंची. लेकिन ऐसा क्या हुआ कि तेजी से फैलती प्याज की तीखी गंध को सरकार समय रहते महसूस नहीं कर पाई.

कवर स्टोरी में इसके पीछे जिन वजहों की चर्चा की गई थी, उनमें प्रमुख थीं - बेमौसम बारिश, भीषण गर्मी से फसलों का नुकसान, अंधाधुंध निर्यात, व्यापारियों की मनमर्जी और अफसर बाबुओं की लापरवाही. उस साल की प्रचंड गर्मी ने प्याज की फसलों को काफी नुकसान पहुंचाया, खासकर महाराष्ट्र में. देश के इस पश्चिमी राज्य का नासिक जिला प्याज उत्पादन का अग्रणी केंद्र माना जाता है. कृषि मंत्रालय का कहना था कि रबी की (जो मई-जून में उपजाई जाती है) करीब 20 फीसदी फसल इससे प्रभावित हुई और करीब चार लाख टन उपज का नुकसान हुआ.

इसमें भी सितंबर और अक्टूबर के महीने में बेमौसम बरसात ने कोढ़ में खाज का काम किया. नम मौसम से फसल तैयार होने में देर हो गई और इसका नतीजा यह निकला कि जो प्याज सितंबर के अंत और अक्टूबर की शुरुआत में मंडियों में आनी थी, वह एक पखवाड़े से भी ज्यादा देर से पहुंचा. इधर व्यापारियों ने इसे आपदा में अवसर की तरह देखा और रबी की बची-खुची फसल को बाजार में उतारने में जान-बूझकर देरी की. तब तक दिल्ली में प्याज संकट गहरा चुका था.

 इंडिया टुडे के 11 नवंबर 1998 के अंक में प्याज क्राइसिस को लेकर कवर स्टोरी छपी थी
इंडिया टुडे के 11 नवंबर 1998 के अंक में प्याज क्राइसिस को लेकर कवर स्टोरी छपी थी

रिपोर्ट बताती है कि इस संकट की आहट गर्मियों में तभी मिल गई थी जब फसल खराब होने की खबरें आनी शुरू हुई थीं. फिर भी अधिकारियों ने बहाना बनाया कि कोई संकट नहीं है और खरीफ की उम्दा फसल पर उम्मीदें लगाए रखी कि उससे सारी मुश्किलें दूर हो जाएंगी. इधर राज्य व्यापार निगम की तर्ज पर काम कर रहा नाफेड, एक सहकारी संस्था जिसके पास प्रदेश में प्याज और लहसुन के निर्यात का खास अधिकार था, वो संकट के बावजूद धड़ल्ले से प्याज के निर्यात में लगा था.

इससे पहले प्याज का संकट तो 1997 की दिसंबर-जनवरी में भी छाया, जब इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री थे. तब गुजराल ने 12 जनवरी को प्याज के निर्यात पर औपचारिक रूप से प्रतिबंध लगाकर मामले को संभालने की कोशिश की थी, और नतीजतन स्थिति में सुधार भी आया. लेकिन यह प्रतिबंध 3 मार्च को यानी अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के 16 दिन पहले हटा लिया गया. इसका असर यह हुआ, मुनाफे को ध्यान में रखकर काम करने वाली और बाजार-प्रेरित संस्था नाफेड ने देश के आम लोगों की समस्याओं को दरकिनार करते हुए अप्रैल से अगस्त के बीच खाड़ी देशों और दक्षिण-पूर्व एशिया में करीब 2 लाख टन प्याज का निर्यात किया.

प्याज और जरूरी जिंसों की बढ़ती कीमत से आमजन कैसे सरकार से खफा था, इसकी बानगी भी उस समय इंडिया टुडे के 'संपादक के नाम चिट्ठियां' में रोहिणी निवासी रमेश विद्यार्थी के पत्र में देखने को मिलती है. रमेश ने अपने पत्र में लिखा, "प्याज का संकट सरकारी लापरवाही की देन है. पैदावार कम हो तो तत्काल आयात बढ़ाकर समस्या कम की जा सकती है. मगर बिचौलिए और जमाखोर चांदी काट रहे हैं और सरकार कान में तेल डाले सो रही है."

उधर, जरूरी जिंसों के दाम बढ़ने पर उस समय के पीएम अटल बिहारी वाजपेयी का कहना था, "दुनिया में दो तरह की परेशानियां होती हैं. एक आसमानी और दूसरी सुल्तानी. यह परेशानी सुल्तानी नहीं, आसमानी है."

महंगे प्याज को लेकर अजीब वाकये और अनोखे विरोध-प्रदर्शन

11 नवंबर 1998 की इंडिया टुडे की कवर स्टोरी में महंगी प्याज को लेकर कुछ रोचक और अजीब वाकये दर्ज हैं. आज हम देखते हैं कि किसी शॉपिंग मॉल या दुकान में ग्राहकों को 2 या 3 टी-शर्ट लेने पर एक मुफ्त मिलता है, या दुकानदार ग्राहकों को कुछ इसी तरह की पेशकश करते हैं. लेकिन उस समय दिल्ली के सरोजिनी नगर में मामला थोड़ा अजीब ही था. दिल्ली में प्याज 60 रु. किलो हो चुका था, ऐसे में सरोजिनी नगर के एक कपड़ा व्यवसायी ने एलान किया कि जो भी उसके दुकान से दो टी-शर्ट खरीदेगा, उन्हें वो एक किलो प्याज मुफ्त देगा. मौजूदा समय में अगर कोई दुकानदार 2 या 3 टी-शर्ट खरीदने पर एक किलो लहसुन (वर्तमान कीमत 400 रु. किलो) मुफ्त दे, तो ग्राहकों के लिए यह शायद एक अच्छी डील हो सकती है!

बहरहाल, ग्रेटर कैलाश इलाके के निवासी दयाराम का मामला कपड़ा व्यवसायी से अलहदा था. लुटेरों ने उनके एक कमरे के मकान में धावा बोला, और 500 रुपये नकद लूट लिए. दयाराम शायद ही इसकी पुलिस में शिकायत दर्ज कराते, लेकिन चलते-चलते बदमाश लुटेरे उनकी कीमती पांच किलो प्याज की एक थैली भी लेते गए. निराश दयाराम जब पुलिस थाने पहुंचे, तो थाना प्रमुख ने रिपोर्ट लिखने से इनकार कर दिया और उल्टे उनसे पूछा, "तुम कितने बड़े महाराजा हो, जो पांच किलो प्याज रखते हो?"

महंगाई के खिलाफ अनोखे विरोध-प्रदर्शन के सिलसिले में उस समय जिस नाम ने सबसे ज्यादा चर्चा बटोरी, वो मशहूर हास्य कलाकार जसपाल भट्टी थे. संवाददाता लिखते हैं, "चंडीगढ़ में, जहां 23 अक्टूबर को प्याज की कीमत 65 रु. किलो तक चढ़ गई, हास्य अभिनेता जसपाल भट्टी ने 'ब्लैक कैट कमांडो' के घेरे में शहर के बाजार में पहुंचकर सनसनी फैला दी. भट्टी का कहना था, "प्याज सरीखी बेशकीमती चीज खरीदने जाने के लिए कड़ी सुरक्षा की जरूरत है."

इंडिया टुडे कवर स्टोरी, 11 नवंबर 1998
इंडिया टुडे कवर स्टोरी, 11 नवंबर 1998

भट्टी यहीं नहीं रुके. रिपोर्ट में लिखा है कि अगले दिन भट्टी ने चंडीगढ़ के सेक्टर 17 में स्थित मुख्य बाजार में एक फैशन शो आयोजित किया. उस प्याजमय वातारवरण में, गले में प्याज की मालाएं लटकाए कई मॉडल थिरक रही थीं. मगर असली आकर्षण भट्टी थे, उन्होंने घोषणा की, "सत्तारूढ़ नेता प्याज की अनदेखी भले करें, लेकिन वे प्याज सुंदरियों की अनदेखी नहीं कर सकते."

प्याज ने रुलाया वर्मा को असली आंसू, शुरुआती हिचक के बाद दिल्ली की सीएम बनीं सुषमा

इंडिया टुडे के 21 अक्टूबर 1998 के अंक में संवाददाता कुमार संजय सिंह लिखते हैं, "बतौर मुख्यमंत्री अपने ढाई साल के करियर में साहिब सिंह वर्मा कई बार झटके खा चुके थे, और उन्हें इसे पचाने का भी खासा अनुभव हो चुका था. लेकिन साहिब सिंह वर्मा को सीएम पद से हटाए जाने की तल्ख अंजाम की उम्मीद नहीं थी."

रिपोर्ट बताती है कि विधानसभा चुनाव के 45 दिन पहले वर्मा की जगह पर सुषमा स्वराज की ताजपोशी कई मायनों में अप्रत्याशित थी. इस बड़े बदलाव के लिए सरकार और पार्टी में जमीन तैयार नहीं थी. केंद्र में सूचना और प्रसारण मंत्री के साथ-साथ दूर संचार मंत्रालय की अतिरिक्त जिम्मेदारी निभा रहीं सुषमा स्वराज के लिए भी यह फैसला उतना ही अप्रत्याशित था.

उस समय परिदृश्य ऐसा था कि मदनलाल खुराना को जैन हवाला कांड से मुक्ति मिल गई थी और साहिब सिंह वर्मा की जगह पर वे सीएम पद पर नजरें इनायत किए हुए थे. लेकिन वर्मा किसी भी हाल में खुराना को गद्दी नहीं देना चाहते थे. संजय सिंह लिखते हैं, "दिल्ली की राजनीति में अपने प्रतिद्वन्द्वी केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री मदनलाल खुराना को गद्दी सौंपने से स्पष्ट इनकार करने के बाद वर्मा ने बदलाव को अवश्यंभावी जानकर स्वराज का नाम भारी मन से प्रस्तावित कर दिया. खुराना ने भी इस पर अपनी सहमति जताने में कतई कोताही नहीं की."

सुषमा स्वराज के दिल्ली की नई सीएम बनने का रास्ता अब साफ हो चुका था, लेकिन उनकी प्रतिक्रिया बहुत उत्साहजनक नहीं थी. रिपोर्ट में लिखा है कि प्रधानमंत्री निवास से सीएम पद की नई जिम्मेदारी लेकर तुरंत लौटी स्वराज ने कहा, "इस प्रस्ताव पर मैं पहले भी अपनी अनिच्छा जता चुकी हूं पर इस बार मुझसे राय नहीं ली गई, सीधे निर्णय सुनाया गया."

उधर, देर रात तक वर्मा के निवास पर करीब 20 बीजेपी विधायकों की आवाजाही होती रही और रविवार की सुबह हजारों समर्थकों ने वहां घेराव कर दिया. वर्मा भी पहले ये कहते रहे कि वे विधायकों की राय लेने के बाद ही इस्तीफा सौंपेंगे पर बाद में वे अपना इस्तीफा उपराज्यपाल को सौंप आए. समर्थकों की भीड़ के तेवर देख वर्मा कई दफा भावविह्वल होकर बेसाख्ता रो पड़े. वर्मा ने आहत भाव से कहा, "मुझे विश्वास में लिए बिना ऐसा करने की पता नहीं क्‍या जल्दी थी, पर मैं आलाकमान के निर्देश का पालन करूंगा."

प्याज के संकट को टालने के सीएम सुषमा के नाकाम प्रयास

महज 52 दिनों के लिए दिल्ली की सीएम बनीं सुषमा स्वराज को पद संभालते ही मुश्किलों से लड़ना था. प्याज का संकट तो चर्राया हुआ था ही, नमक की कमी (जो कि अफवाह की वजह से फैली) से भी दिल्लीवासी जूझ रहे थे. सीएम के तौर पर सुषमा ने प्याज संकट को साधने के लिए कई कदम उठाए. सीएम बनने के दो दिन बाद 14 अक्टूबर को स्वराज के निवेदन पर कैबिनेट ने प्याज पर नाफेड का एकाधिकार औपचारिक तौर पर खत्म करने का फैसला किया और उसे खुली आयात सूची (ओजीएल) में डाल दिया.

फूलों की माला पहने सुषमा स्वराज (बायीं तरफ साहिब सिंह वर्मा बैठे हुए), 11 अक्टूबर 1998
फूलों की माला पहने सुषमा स्वराज (बायीं तरफ साहिब सिंह वर्मा बैठे हुए), 11 अक्टूबर 1998

न्यू इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में लिखा है कि एमएस सहरावत, जो उस समय नई दिल्ली नगर पालिका परिषद (एनडीएमसी) के मीडिया सलाहकार थे और उस समय नागरिक आपूर्ति मंत्री पूर्णिमा सेठी के साथ सूचना अधिकारी के रूप में जुड़े थे, उन्होंने बताया, "हालांकि यह अफवाह थी कि शहर में नमक की कमी का खतरा मंडरा रहा था. प्याज की कमी के बाद सरकार बैकफुट पर थी. लेकिन स्वराज ने आगे बढ़कर नेतृत्व करने का फैसला किया. जमाखोरी की रिपोर्ट मिलने के बाद उन्होंने उत्तरी दिल्ली में गोदामों पर कार्रवाई करने का फैसला किया." सीएम स्वराज, सेठी और अन्य अधिकारियों के साथ उत्तरी दिल्ली के समयपुर बादली और अलीपुर इलाकों में गोदामों पर छापेमारी कर रही थीं.

रिपोर्ट में सेहरावत आगे बताते हैं, "वो छापेमारी करीब पांच घंटे तक चली थी. सुषमा एक सक्षम प्रशासक और आत्मविश्वासी राजनीतिज्ञ थीं. हालांकि, वे ज्यादा कुछ नहीं कर सकीं क्योंकि उनके पास कार्यकाल के रूप में सिर्फ तीन महीने ही थे."

11 नवंबर 1998 को छपी इंडिया टुडे की कवर स्टोरी में संवाददाता बताते हैं कि दिल्ली सहित देश के अन्य हिस्सों में प्याज के तीव्र संकट के बीच तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने 10 सितंबर को विदेशों से 13000 टन प्याज के आयात का फैसला किया था, जिनमें से 3000 टन अकेले दिल्ली को आपूर्ति की जानी थी. सीएम सुषमा प्याज के आयात के लिए अधीर थीं, और उनकी कोशिशों की बदौलत नाफेड के एक अधिकारी को ईरान की राजधानी तेहरान जाकर सौदा पक्का करने के लिए कहा गया.

संवाददाता अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि पहली बार जब सौदे की बात हुई तो 10,300 रुपया प्रति टन पर डील पक्की हुई. लेकिन नाफेड के अधिकारी को तेहरान पहुंचने में चार दिन लग गए. इस बीच अंतरराष्ट्रीय सटोरियों ने इस बात का इंतजाम कर दिया कि कोई सौदा पटे ही नहीं. आखिर में 12,600 रु. प्रति टन पर मामला तय हुआ. इधर जब सुषमा के निवेदन पर 14 अक्टूबर को प्याज पर नाफेड का एकाधिकार खत्म हुआ और इसकी अधिसूचना 16 अक्टूबर को जारी हुई, तब तक आयातित प्याज की पूरी खेप मुंबई बंदरगाह पर ही सड़ती रही. इस पूरी प्रक्रिया में 36 दिन लग गए और तब तक सरकार की राजनैतिक विश्वसनीयता की चिंदियां उड़ती रही.

सीएम सुषमा के लिए विरोधी कांग्रेस भी कम परेशानी का सबब नहीं थी. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक, नासिक से प्याज लेकर चली एक रेलगाड़ी को कांग्रेस के समर्थकों ने जबरन रोक लिया था. वहीं मुंबई में शिवसेना के समर्थकों ने सारा आयातित प्याज दिल्ली भेज देने के खिलाफ नाफेड दफ्तर के बाहर प्रदर्शन किया. इस बीच, आलू की कीमत 20 रु. किलो तक पहुंच गई, बैंगन 20 रु. किलो, फूलगोभी 26 रु. किलो और टमाटर 30 रु. किलो तक पहुंच गया था.

सीएम की गद्दी : मदन लाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज

मौजूदा समय में स्थायित्व का पर्याय बनी हुई बीजेपी का एक समय में ऐसा बोलबाला नहीं था, कम से कम दिल्ली में तो नहीं ही. 1993 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल करने के बाद पांच साल के भीतर ही पार्टी को प्रदेश में तीन मुख्यमंत्री बदलने पड़े थे. उस चुनाव में बीजेपी ने कुल 70 में से 49 सीटों पर जीत हासिल की थी. मदन लाल खुराना दिल्ली के तीसरे सीएम बने. उनका जन्म पाकिस्तान में हुआ और 12 साल की उम्र में वे भारत आ गए थे. यहीं दिल्ली में ही पले-बढ़े. राजनीति में आए तो छा गए और 'दिल्ली के शेर' नाम से मशहूर हो गए. वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के एक समर्पित कार्यकर्ता थे.

बहरहाल, करीब 37 साल बाद 1993 में दिल्ली में नई विधानसभा गठित हुई थी और उसी साल विधानसभा चुनाव भी हुए. इससे पहले 1952 में दिल्ली में अंतरिम विधानसभा थी, जिसमें कांग्रेस ने जीत हासिल की थी. चौधरी ब्रह्म प्रकाश यादव पहले सीएम बने. उसके बाद 1955 में सरदार गुरमुख निहाल सिंह को दिल्ली का दूसरा सीएम बनाया गया. हालांकि, 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के बाद 1 नवंबर 1956 से दिल्ली पार्ट-सी स्टेट नहीं रही और विधानसभा भंग कर दी गई. दिल्ली विधानसभा का अस्तित्व समाप्त हो गया. प्रशासन के लिए दिल्ली मेट्रो काउंसिल का गठन हुआ. उसके बाद 1991 में 69वां संविधान संशोधन हुआ और दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी बन गई. दिल्ली को पूर्ण विधानसभा मिली और 1956 के बाद (37 साल बाद) 1993 में दिल्ली को तीसरी बार मुख्यमंत्री मिला.

खुराना करीब तीन साल दिल्ली के सीएम रहे, लेकिन इस बीच चर्चित जैन हवाला कांड में उनका नाम सामने आया. इसी कांड की वजह से उस समय लालकृष्ण आडवाणी को लोकसभा से इस्तीफा देना पड़ा था. हवाला में नाम आने की वजह से खुराना को भी दिल्ली के सीएम पद की गद्दी त्यागनी पड़ी. उन्होंने 26 फरवरी 1996 को दिल्ली का तख्त प्रदेश के चौथे सीएम साहिब सिंह वर्मा को सौंप दिया.

मुख्यमंत्री बनने के बाद फूलों से लदे साहिब सिहं वर्मा (काले कपड़ों में मदन लाल खुराना)
मुख्यमंत्री बनने के बाद फूलों से लदे साहिब सिहं वर्मा (काले कपड़ों में मदन लाल खुराना)

साहिब सिंह वर्मा का जन्म दिल्ली-हरियाणा बॉर्डर पर बसे मुंडका गांव में एक जाट परिवार में हुआ था. वे शुरुआत से ही RSS से जुड़े थे साथ ही वे वर्ल्ड जाट आर्यन फाउंडेशन के प्रेसिडेंट भी थे. दिल्ली में साहिब सिंह वर्मा की मजबूत पकड़ को देखते हुए उन्हें 1991 में बाहरी दिल्ली लोकसभा सीट से टिकट दिया गया. उनके सामने चुनाव लड़ रहे थे संजय गांधी के करीबी माने जाने वाले सज्जन कुमार. इस चुनाव में सज्जन कुमार की भारी जीत हुई लेकिन चुनाव हार कर भी साहिब सिंह वर्मा छा गए. इस चुनाव ने साहिब सिंह वर्मा को दिल्ली के गांवों के नेता के रूप में सर्वमान्य पहचान दी.

1993 के दिल्ली विधानसभा में साहिब सिंह वर्मा को शालीमार बाग से टिकट दिया गया. वर्मा ने कांग्रेस उम्मीदवार को 21 हजार वोटों के अंतर से हरा दिया. बीजेपी की जीत के बाद मदन लाल खुराना को दिल्ली सीएम की कुर्सी मिली. लेकिन साहिब सिंह वर्मा के कद को देखते हुए उन्हें नंबर-2 की पोस्ट शिक्षा और विकास मंत्री बनाया गया. लेकिन सरकार के गठन के कुछ दिन बाद से ही खुराना और साहिब सिंह वर्मा के बीच मतभेद की खबरें आने लगीं.

उस समय दिल्ली बीजेपी में दो गुट बड़ी आसानी से देखे जा सकते थे. भले ही खुराना सीएम पद पर नहीं थे लेकिन दिल्ली के मामलों में उनकी दखलअंदाजी लगातार बनी हुई थी. 21 अक्टूबर 1998 के अंक में छपी अपनी रिपोर्ट में संवाददाता कुमार संजय सिंह लिखते हैं, "गिनती के विधायकों के समर्थन के साथ कुर्सी पर बैठे वर्मा बीते ढाई वर्षों में पार्टी के कुल 47 विधायकों में से कम-से-कम 25 को साथ जोड़ने में सफल रहे थे. इसलिए कम-से-कम चार दफा उन्हें गिराने के गुप्त प्रयास असफल होते रहे. आरएसएस ने भी ऐसे तमाम खतरों से वर्मा की हिफाजत की थी."

साहिब सिंह वर्मा ने षड्यंत्रों से तो खुद को बचा लिया, लेकिन प्रदेश में बिजली-पानी, महंगाई जैसे मुद्दों पर वे फेल साबित हुए. जब प्रदेश में इन मुद्दों ने शोर मचाना शुरू किया तो बीजेपी को सख्त एक्शन लेना पड़ा और साहिब सिंह वर्मा को सीएम पद से हटा दिया गया. इसके बाद दिल्ली की पहली महिला और कुल पांचवीं सीएम सुषमा स्वराज बनीं. सुषमा दिल्ली से लोकसभा में पहुंचने से पहले 1977 में हरियाणा सरकार में मंत्री थीं. 1998 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में उनकी प्रतिद्वन्द्वी कांग्रेस की शीला दीक्षित थीं. दीक्षित पंजाबी खत्री परिवार से आती थीं, जिनकी शादी उत्तर प्रदेश के एक पुराने कांग्रेसी परिवार में हुई थी.

उस समय सुषमा केंद्र सरकार में दूरसंचार और सूचना प्रसारण मंत्री थीं लेकिन बीजेपी आलाकमान ने उन्हें दिल्ली में बचाव अभियान का जिम्मा सौंपा. अपने 52 दिनों के मुख्यमंत्रित्वकाल में उनसे जो बन पड़ा, उन्होंने किया, लेकिन वे प्रदेश में प्याज की तीखी गंध को कम नहीं कर पाईं. 1998 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी को हार मिली. पार्टी को पिछली बार 49 के मुकाबले इस बार 15 सीटें ही आईं. हालांकि सुषमा अपनी सीट बचाने में सफल रही थीं.

बहरहाल, 1998 के उस दिल्ली विधानसभा के चुनाव में महंगाई के कल-पुर्जों (बिजली-पानी, आलू, नमक, टमाटर और बैंगन वगैरह) के अगुआ प्याज ने बता दिया था कि अगर वे अपने पर आ जाएं तो सत्ता की चूलें हिलाने का माद्दा रखते हैं!

दिल्ली विधानसभा से जुड़ी इंडिया टुडे की ये रिसर्च स्टोरी भी पढ़ें...

1. दिल्ली : जब नेहरू से टकराव की वजह से दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री ब्रह्मप्रकाश को देना पड़ा था इस्तीफा

नेहरू और ब्रह्म प्रकाश
नेहरू और ब्रह्म प्रकाश​​​

साल 1952 की बात है. देश की आजादी के 5 साल बाद 27 मार्च 1952 को देश में पहली बार लोकसभा चुनाव के साथ ही दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए. 

इस वक्त दिल्ली में विधानसभा की 48 सीटों के लिए कांग्रेस, जनसंघ, किसान मजदूर पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी और हिंदू महासभा ने अपने उम्मीदवार उतारे. पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें...

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