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जब पहली बार राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग हुई और एक कानून बदला गया!

आजकल भले ही राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग एक आम चलन बन गया हो लेकिन 1998 तक देश के ऊपरी सदन के चुनाव लोकतंत्र की शुचिता का प्रतीक माने जाते थे

राज्यसभा की सांकेतिक फोटो
राज्यसभा की सांकेतिक फोटो
अपडेटेड 29 फ़रवरी , 2024

फरवरी की 27 तारीख को कई राज्यों में राज्यसभा की खाली सीटों पर चुनाव हुए. दूसरे शब्दों में कहें तो चुनाव कम और खेला ज्यादा हुआ. हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस तो उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के विधायकों में सेंधमारी करके बीजेपी ने क्रॉस वोटिंग के दम पर अपने उम्मीदवारों को चुनाव जितवा दिया. इसके बाद से बवाल मचा है. हिमाचल में तो सरकार के संकट में होने की बातें भी शुरू हो गईं.

लेकिन इतिहास में क्रॉस वोटिंग की शुरुआत कैसे हुई? कहानी है 1998 की. राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस ने महाराष्ट्र से दो उम्मीदवार खड़े किए थे. दोनों की जीत तय मानी जा रही थी, नंबर्स भी फेवर में थे. लेकिन फिर हो गई क्रॉस वोटिंग. कांग्रेस का एक उम्मीदवार चुनाव हार गया. ये कोई आजकल की क्रॉस वोटिंग जैसी आम घटना नहीं थी. दरअसल यह तब देश के एक कानून में अहम बदलाव की बुनियाद बनी.

इससे पहले तक राज्यसभा चुनाव अनुशासन और लोकतंत्र में शुचिता का पर्याय माने जाते थे. नतीजे पहले से तय होते थे. पार्टियों से नामांकित उम्मीदवार निर्विरोध जीत जाते थे. मतदान तभी होता था जब राज्य में खाली सीटों की तुलना में ज्यादा उम्मीदवार मैदान में हो. लेकिन 1998 के चुनावों ने तस्वीर बदल दी.

इस राज्यसभा चुनाव में महाराष्ट्र से छह सीटों के लिए सात दावेदार मैदान में थे. कांग्रेस ने दो उम्मीदवारों को उतारा था. एक थीं नज़मा हेपतुल्ला, जिन्होंने लोक सभा में तीन कार्यकाल पूरे किए थे, और दूसरे थे राम प्रधान, जो महाराष्ट्र-कैडर के पूर्व आईएएस अधिकारी थे और पूर्व केंद्रीय गृह सचिव भी रह चुके थे. शिवसेना ने सतीश प्रधान और मीडिया में जाना-माना नाम प्रीतीश नंदी को उम्मीदवार बनाया था.  बीजेपी ने उसी साल लोकसभा चुनाव हारने वाले प्रमोद महाजन को उम्मीदवार बनाया था. दो निर्दलीय भी थे. एक विजय दर्डा जो मीडिया में बड़ा नाम थे. इनका कांग्रेस ने समर्थन किया था, और दूसरे निर्दलीय पूर्व रेल मंत्री सुरेश कलमाड़ी थे, जिनका शिवसेना ने समर्थन किया था.

कांग्रेस के पास अपने दोनों उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त वोट थे. लेकिन वोटिंग हुई तो खेला हो गया. कांग्रेस के विधायकों ने क्रॉस वोटिंग करके अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार और सोनिया गांधी के करीबी माने जाने वाले राम प्रधान को चुनाव हरा दिया और निर्दलीय सुरेश कलमाड़ी की जीत हुई. लेकिन ये मामला यहां खत्म नहीं हुआ. इसमें पेच ये था कि चुनाव सीक्रेट बैलेट से कराए जाते थे, इसलिए किसने धोखा दिया है इसका पता चल पाना मुश्किल था. कई रिपोर्ट्स कहती हैं कि इस चुनाव में बाकी दलों के विधायकों ने भी क्रॉस वोटिंग की थी.

इस एक घटना ने सभी पार्टियों को अलर्ट कर दिया. अंदरखाने ये चर्चाएं शुरू हो गईं कि किसी विधायक ने गद्दारी की है तो कैसे उसका पता चले और पार्टियां उस पर एक्शन लें. पार्टियों ने अपने विधायकों पर लगाम लगाने के उपाय खोजने शुरू कर दिए. 1997 में राज्यसभा सांसद और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री एसबी चव्हाण की अध्यक्षता में राज्यसभा की एक आचार समिति बनी थी. इसी समिति से कहा क्रॉस वोटिंग से उपजी समस्या का समाधान सुझाया जाए .

इस पर समिति ने दिसंबर 1998 में अपनी पहली रिपोर्ट दी. इसमें कहा गया कि धन और बाहुबल ने राज्यसभा चुनावों में बड़ी भूमिका निभाई है. इनसे बचने के लिए सीक्रेट बैलेट की जगह राज्यसभा और राज्यों में विधान परिषद के चुनावों में ओपन बैलेट से मतदान कराने के बारे में सोचा जा सकता है.

अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान इस सुझाव पर गौर किया गया. 2001 में, कानून मंत्री अरुण जेटली थे. उन्होंने एक विधेयक पेश किया, जिसके जरिए जन प्रतिनिधित्व कानून यानी Representation of the People Act में संशोधन करके राज्यसभा चुनावों में सीक्रेट बैलेट को हटाकर ओपन बैलेट की व्यवस्था कर दी गई. इसके बाद से पार्टियों को ये सुविधा मिल गई कि राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग करने वाले नेताओं को वो बाहर का रास्ता दिखा सकें.

यहां कानून में तो बदलाव हो गया, लेकिन कांग्रेस को 1998 के राज्यसभा चुनाव ने दोहरा झटका दिया था. दूसरा झटका ज्यादा बड़ा था. कांग्रेस के एक वर्ग का मानना था कि विधायकों की क्रॉस वोटिंग में शरद पवार का हाथ है. पार्टी ने पवार समेत 10 विधायकों को कारण बताओ नोटिस भी जारी किया. इसके बाद 1999 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने पवार के करीबियों के टिकट भी काट दिए. इस दौरान एक और अहम घटनाक्रम हुआ.

1999 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की तरफ से सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की बात होने लगी. इसका शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने खुलकर विरोध किया. तर्क ये था कि सोनिया विदेशी मूल की हैं. पवार की नाराजगी बढ़ती गई और उन्होंने 10 जून 1999 को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी NCP नाम से अलग पार्टी बनाने की घोषणा कर दी. 1999 के विधानसभा चुनाव में पवार की पार्टी ने 58 सीटें जीतीं.

इस चुनाव में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था, लेकिन कांग्रेस 75 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी. कमाल की बात ये है कि चुनावों से पहले कांग्रेस से टूटकर NCP अलग हुई, दोनों ने एक दूसरे के खिलाफ चुनाव भी लड़ा और चुनावों के बाद एक साथ मिलकर सरकार बना ली.

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