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अराजकता की कगार पर श्रीलंका

रसातल में समाई अर्थव्यवस्था और रोजमर्रा की दुश्वारियों को लेकर उपजे भयंकर जनाक्रोश के बीच श्रीलंका अराजकता की तरफ बढ़ता दिख रहा है. गोटाबाया राजपक्षे की विदाई के बाद मुल्क को अब राजनैतिक स्थिरता और टिकाऊ आर्थिक दिशा की जरूरत

ताकत जनता की : राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफे की मांग को लेकर राष्ट्रपति सचिवालय पर श्रीलंकाई प्रदर्शनकारियों का धावा
ताकत जनता की : राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफे की मांग को लेकर राष्ट्रपति सचिवालय पर श्रीलंकाई प्रदर्शनकारियों का धावा
अपडेटेड 19 जुलाई , 2022

चांदनी किरिंदे, कोलंबो में

यह सार्वजनिक भर्त्सना का हैरतअंगेज नजारा था. 1948 में अंग्रेजों से आजाद होने के बाद श्रीलंका ने कई जनविद्रोह देखे. मगर कभी किसी लोकप्रिय नेता को इस तरह नहीं निकाला गया जैसे हाल ही में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को बेदखल किया गया. जब सड़कों पर नाराज प्रदर्शनकारियों का सैलाब उमड़ पड़ा, लाखों लोगों ने ऐतिहासिक कोलंबो फोर्ट के भीतर क्वींस हाउस कहे जाने वाले राष्ट्रपति आवास पर धावा बोल दिया. राजपक्षे को कोलंबो छोड़कर भागने को मजबूर कर दिया गया. 13 जुलाई को देश में आपात स्थिति घोषित कर दी गई और 20 जुलाई को संसद में नए राष्ट्रपति का चुनाव होने तक प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को कार्यवाहक राष्ट्रपति बना दिया गया. फिर भी श्रीलंका की दुश्वारियां खत्म नहीं हुईं और एक के बाद एक संकट से लाचार देश आर्थिक पतन और राजनैतिक अराजकता की कगार पर खड़ा है.

विडंबना यह है कि गोटाबाया राजपक्षे और हाल ही तक प्रधानमंत्री रहे उनके भाई महिंदा की खौफनाक तमिल चीतों को हराने के लिए नायकों की तरह जयजयकार की जाती थी. देश भर में विरोध तेज होने के साथ दोनों को ही इस्तीफा देना पड़ा. तो आखिर यह नौबत क्यों आई? जैसा कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के सलाहकारों ने कहा था, ''यह अर्थव्यवस्था है, मूर्ख''. अर्थव्यवस्था की बदइंतजामी ने ताकतवर राजपक्षे घराने की किस्मत के दरवाजे बंद कर दिए. यह तकरीबन तभी शुरू हो गया था जब गोटाबाया ने नवंबर 2019 में राष्ट्रपति का चुनाव जीता. चुनावी वादे पूरे करने के लिए उन्होंने बेहद उदारता से करों में कटौती की और लोगों से कहा गया कि इससे वृद्धि तेज होगी, पर असल में हुआ यह कि इससे अरबों रुपए के राजस्व का नुक्सान हुआ.

फिर मार्च 2020 में महामारी ने धावा बोल दिया. देश में लंबा लॉकडाउन लग गया. मगर आर्थिक धक्का लगने से पहले ही अगस्त 2020 में हुए संसदीय चुनावों में राजपक्षे परिवार के हाथों नियंत्रित श्रीलंका पोदुजना पेरामुना (एसएलपीपी) पार्टी विशाल बहुमत के साथ जीती और महिंदा प्रधानमंत्री बन गए. हालांकि जल्द ही महामारी का असर दिखाई देने लगा. श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पर्यटन पर काफी निर्भर है और इस उद्योग के नेस्तोनाबूद होते ही राजस्व का जबरदस्त घाटा हुआ. राजस्व का दूसरा बड़ा स्रोत यानी विदेशों में कार्यरत लंकाई कामगारों की तरफ से भेजी गई रकम में भी अच्छी-खासी कमी आई.

करों में की गई कटौती को वापस लेने के बजाए गोटाबाया ने देश को जैविक खेती की तरफ ले जाने का गलत कदम उठाया और रासायनिक उर्वरकों का आयात बंद कर दिया. इससे किसानों की कमर टूट गई और फसलों की पैदावार में गिरावट आई. नतीजतन राजपक्षे परिवार का वोट आधार रहे ग्रामीण श्रीलंका से तीव्र प्रतिक्रिया हुई. अनिवार्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ने लगीं और देश के मुख्य भोजन चावल और सब्जियों की कमी पडऩे लगी, जिससे सरकार चावल आयात करने को मजबूर हो गई. विदेशी मुद्रा भंडार में जबरदस्त गिरावट आई और इसकी वजह थी गोटाबाया और उनके टहलुओं की खराब आर्थिक नीतियां. इस साल की शुरुआत तक वे इन्हीं मगरूर दावों की रट लगाते रहे कि अर्थव्यवस्था मजबूत आधार पर खड़ी है और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) से बेलआउट पैकेज लेने की विपक्ष तथा अर्थशास्त्रियों की मांग को बार-बार खारिज करते रहे.

इस साल अप्रैल में कहीं जाकर गोटाबाया को इस सच्चाई का एहसास हुआ कि उनकी नीतियों ने देश को आर्थिक गर्त में धकेल दिया है—उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि उनकी सरकार ने उर्वरकों के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाकर और आइएमएफ से मुंह फेरकर गलती की. तब तक बिजली कटौती, ईंधन, घरेलू गैस और दवाइयों की कमी और बेतहाशा महंगाई ने लंकाइयों को बेहद परेशान कर दिया था. इस तरह गोटाबाया और महिंदा के पद छोड़ने की मांग के साथ विरोध प्रदर्शन शुरू हुए—पहले कोलंबो के उपनगरों में मोमबत्ती जलाकर प्रदर्शन हुए और जल्द ही बड़े जनांदोलन में बदल गए. इसे गोटागोहोम अभियान के नाम से जाना जाने लगा, जिसने अप्रैल के अंत से रफ्तार पकड़ ली, जब प्रदर्शनकारियों ने कोलंबो में राष्ट्रपति सचिवालय के बाहर डेरा डाल दिया.

नेताविहीन क्रांति

निर्णायक मोड़ 9 मई को आया, जब महिंदा के समर्थक शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर टूट पड़े, जिससे ऐसा रोष पैदा हुआ कि उन्हें प्रधानमंत्री के पद से हड़बड़ी में इस्तीफा देना पड़ा. राजपक्षे परिवार और उनके समर्थकों के खिलाफ नाराजगी और प्रतिक्रिया इतनी तीव्र थी कि एक सांसद सहित सत्तारूढ़ पार्टी के कई समर्थक मारे गए और भीड़ ने 80 से ज्यादा संपत्तियां फूंक दीं. इसके साथ ही गोटागोहोम (जीजीजी) आंदोलन जोर पकड़ने लगा. जीजीजी आंदोलन की कमान शुरुआत में युवाओं के हाथ में थी और विश्वविद्यालयों के छात्र उसके हरावल दस्ते में थे. मगर देश के आत्मसंतुष्ट मध्यम वर्ग सहित समूची आबादी को जिस तरह मुश्किलें झेलनी पड़ रही थीं, उसको देखते हुए ट्रेड यूनियनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पेशेवरों ने भी अपनी ताकत प्रदर्शनकारियों के साथ झोंकने का फैसला किया. हजारों स्वैच्छिक कार्यकर्ता राष्ट्रपति के दफ्तर के बाहर धरना दे रहे प्रदर्शनकारियों के इर्द-गिर्द जुटने लगे, उनके लिए खाना और दूसरी जरूरी चीजें लाने लगे, जबकि संगीतकार और कलाकार उनका मनोबल ऊंचा रखने के लिए शामिल होने लगे. सनत जयसूर्या और रोशन महानामा सरीखे जाने-माने श्रीलंकाई क्रिकेटर भी इन लोगों में शामिल थे. आंदोलन की एक अनोखी खूबी यह है कि यह अब तक नेताविहीन है. इसमें कई समूह राष्ट्रपति को पद से हटाने और राजनेताओं को कम तथा लोगों को ज्यादा अधिकार देने वाले राजनैतिक सुधार लाने के साझा मकसद के लिए काम कर रहे हैं.

महिंदा को बलात पद से हटाए जाने के बाद चौतरफा घिरे परेशान और हताश गोटाबाया ने सर्वदलीय सरकार बनाने पर विचार किया, पर कम ही लोगों को यह मंजूर था और ऐसे में कभी अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वी रहे रानिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री नियुक्त करके वित्त मंत्रालय भी उन्हें सौंप दिया. तब तक देश दिवालिया हो चुका था और नए प्रधानमंत्री बस इतना कर सके कि उन्होंने देश की भयावह हालत जनता के सामने रखी और आइएमएफ के साथ बातचीत शुरू की.

नए प्रधानमंत्री बहुत भीतर तक हताश और नाराज श्रीलंकाइयों को कोई फौरी राहत नहीं दे पा रहे थे और महिंदा को आनन-फानन पद छोड़े दो महीने हो चुके थे, ऐसे में गोटाबाया की किस्मत भी उतने ही नाटकीय तरीके पलटी—9 जुलाई को हजारों प्रदर्शनकारी कोलंबो में प्रेसिडेंट्स हाउस, राष्ट्रपति के सचिवालय और साथ ही प्रधानमंत्री के सरकारी आवास टेंपल ट्रीज में ताबड़तोड़ घुस गए और उन पर कब्जा कर लिया. गोटाबाया को भारी सैन्य पहरेदारों की छत्रछाया में चुपचाप फुर्ती से निकालकर अज्ञात सुरक्षित जगह ले जाया गया. 13 जुलाई को सुबह तड़के वे श्रीलंका वायु सेना के विमान से अपनी पत्नी और दो सुरक्षाकर्मियों के साथ मालदीव उड़ गए, जहां से फिर वे सिंगापुर पहुंचे.

श्रीलंकाई सेना हाशिये पर ही रही, हालांकि अगर देश अराजकता के गर्त में धंसता जाता है तो उसके हस्तक्षेप की अफवाहें चक्कर लगा रही हैं. एकमात्र आधिकारिक टिप्पणी देश के मौजूदा सर्वोच्च सैन्य अधिकारी चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल शावेंद्र सिल्वा की तरफ से आई, जिन्होंने शांति सुनिश्चित करने में सशस्त्र बलों और पुलिस के लिए जन समर्थन की मांग की और लोगों से संविधान के अनुसार काम करने का आग्रह किया. पुलिस की मदद के लिए बुलाए गए सैन्य कर्मियों ने प्रदर्शनकारियों के प्रति अपनी कार्रवाइयों में अभी तक संयम बरता है.

संसद में नुमाइंदगी कर रही सभी राजनैतिक पार्टियों ने सर्वदलीय सरकार बनाने के लिए बात की है ताकि नए संसदीय चुनाव होने से पहले कम से कम अगले छह मुश्किल महीनों के दौरान देश की नैया पार लगाई जा सके, पर अभी तक कोई सहमति नहीं बनी. गोटाबाया हालांकि जा चुके हैं, पर राजपक्षे परिवार की पार्टी एसएलपीपी को 225 सदस्यीय विधायिका में बहुमत हासिल है, जो उन्हें नियंत्रण का अधिकार देता है, जिसमें यह भी शामिल है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री कौन बनेगा. अगस्त 2022 में हुए पिछले संसदीय चुनाव में पार्टी ने 145 सीटें हासिल की थीं, जबकि मुख्य विपक्षी दल समागी जन बालावेगाया (एसजेबी) ने 54 सीटें जीती थीं. मुख्यत: देश के उत्तर और पूरब में बसे तमिल समुदाय की नुमाइंदगी करने वाले तमिल नेशनल अलायंस (टीएनए) के पास 10 सीटें हैं. रानिल विक्रमसिंघे ने यूनाइटेड नेशनलिस्ट पार्टी (यूएनपी) की एकमात्र सीट जीती. संकट शुरू होने के बाद सत्तारूढ़ पार्टी का हिस्सा रहे कम से कम 42 सांसदों ने स्वतंत्र सांसदों की तरह काम करने का ऐलान किया, पर यह भी कहा कि जरूरत होने पर वे संसद में सरकार का समर्थन करेंगे.

अगले राष्ट्रपति के चुनाव में वोट बंटते दिखाई दे रहे हैं, खासकर जब श्रीलंका के दिवंगत पूर्व राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदासा के बेटे और एसजेबी के प्रमुख सजित प्रेमदासा उन लोगों में शामिल हैं जो गोटाबाया के उत्तराधिकारी के चुनाव में उतरे हैं. हालांकि उनकी पार्टी के पास इतने  सांसदों के वोट नहीं हैं जो उन्हें 20 जुलाई को होने वाले मतदान में जीत दिला सकें. उम्मीद है कि विक्रमसिंघे एसएलपीपी के एक हिस्से के समर्थन से मुकाबले में उतरेंगे, जबकि एसएलपीपी के एक अन्य वरिष्ठ राजनेता और सांसद डुल्लास अलहप्पेरुमा ने भी कहा है कि वे चुनाव लड़ना चाहते हैं. पार्टियों के बीच संभावित आम राय के बारे में बात हुई है जिसमें एसएलपीपी के एक सदस्य राष्ट्रपति का पद संभालेंगे और प्रेमदासा प्रधानमंत्री बनेंगे, ताकि अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने के लिए साझा कार्यक्रम तैयार किया जा सके.

छिन्न-भिन्न अर्थव्यवस्था और बाहर निकलने का अकेला रास्ता

श्रीलंका के केंद्रीय बैंक ने आगाह किया है कि लगातार जारी राजनैतिक अस्थिरता देश को और भी बदतर हालत में धकेल देगी और देश के भारी-भरकम कर्ज के पुनर्गठन के लिए आइएमएफ के साथ शुरू हुई बातचीत को जारी रखने की जरूरत पर बल दिया है. महामारी के बाद देश के विदेशी मुद्रा भंडार में जबरदस्त गिरावट आई जिससे आॢथक संकट बदतर हो गया. मध्य मई में विदेशी मुद्रा भंडार 1.9 अरब डॉलर था, पर इसमें करीब 1.5 अरब डॉलर की पीपल्स बैंक ऑफ चाइना की स्वैप सुविधा भी शामिल थी और इसलिए इस्तेमाल किए जा सकने वाली विदेशी मुद्रा न के बराबर है.

इस दौरान लोगों की रोजमर्रा की तकलीफें लंबी खिंच रही हैं—ईंधन और जरूरी चीजों के दाम लगातार आसमान छू रहे हैं, जबकि श्रीलंकाई रुपए ने इस साल मई तक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 44.3 फीसद का अवमूल्यन दर्ज किया है. मध्य जुलाई में डॉलर की ट्रेडिंग करीब 360 रुपए पर हो रही थी, जिससे आयात और खासकर ईंधन के आयात की कीमत और बढ़ती जा रही है. देश का करीब 50 करोड़ अमेरिकी डॉलर का ईंधन का मासिक बिल मोटे तौर पर भारत की तरफ से दी गई एक अरब डॉलर की ऋण सुविधा से चुकाया जा रहा है. भारत ने खाद्य वस्तुओं, दवाइयों और दूसरी जरूरी चीजों के लिए भुगतान किया है. कीमतें तो आसमान पर हैं ही, उसके साथ सामान की कमी भी है.

ईंधन और गैस के लिए कतार में इंतजार करते लोगों की लंबी कतारें देश भर में रोज देखी जा सकती है. इन दृश्यों के दुनिया भर में दिखाए जाने के चलते देश के जीवनदायी पर्यटन क्षेत्र का भट्टा बैठ गया है. ब्रिटेन और न्यूजीलैंड सहित कई देशों ने अपने नागरिकों से कहा है श्रीलंका की गैरजरूरी यात्रा से बचें. श्रीलंका ने महामारी से पहले 2019 में पर्यटन से करीब 4 अरब अमेरिकी डॉलर कमाए थे और इस साल उसके राजस्व में करीब 80 करोड़ डॉलर की कमी आने का अनुमान जाहिर किया गया है. यह क्षेत्र करीब 5,00,000 लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार देता है और अर्थव्यवस्था के चौपट होने की सबसे ज्यादा मार उन्हें ही झेलनी पड़ रही है.

श्रीलंका के लिए एकमात्र विकल्प यह है कि वह अर्थव्यवस्था को स्थिरता देने के लिए जल्द से जल्द आइएमएफ से बेलआउट पैकेज हासिल करे, जिससे विश्व बैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) के साथ वित्तीय समझौतों को पूरा करने में सहूलत हो. श्रीलंका यह साल खत्म होने से पहले आइएमएफ की एक्सटेंडेड फंड फैसिलिटी (ईएफएफ) के जरिए करीब 3 अरब डॉलर उधार लेने की कोशिश कर रहा है और जो भी नई सरकार बनती है, उसे यह पक्का करना होगा. विक्रमसिंघे ने जून में संसद को बताया कि चूंकि श्रीलंका देश के इतिहास में पहली बार मई में अपना कर्ज चुकाने से चूक गया, इसलिए आइएमएफ के साथ बातचीत और ज्यादा पेचीदा हो गई है. राजपक्षे परिवार देश को जिस बर्बादी की हालत में छोड़कर गया है, उसे देखते हुए नए नेतृत्व के लिए देश को मजबूत पायदान पर वापस लाना बेहद कठिन काम होगा. श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को 2019 से पहले की स्थिति में बहाल करने से पहले सालों का संघर्ष श्रीलंकाइयों के सामने मुंहबाए खड़ा है. 

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