
पुरानी रोमन कहावत है कि शांति चाहते हो तो युद्ध की तैयारी करो. कई देशों के खिलाफ चीन के लगातार खम ठोकने के बीच, पिछले पखवाड़े हुए दो घटनाक्रम बताते हैं कि एक
बढ़ता चीन-विरोधी गुट, जिसमें भारत भी है, कैसे लड़ाकू बीजिंग के खिलाफ रक्षात्मक दीवार खड़ी कर रहा है.
पहले तो हैरत में डालने वाले एक घटनाक्रम में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन, ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्रपति स्कॉट मॉरिसन ने मिलकर 15 सितंबर को हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए एक त्रिपक्षीय सुरक्षा गठबंधन बनाने का ऐलान किया.
एयूकेयूएस या औकस नाम का यह गठबंधन साफ तौर पर सैन्य गठबंधन है, जिसमें अन्य बातों के अलावा अमेरिका और ब्रिटेन परमाणु शक्ति संपन्न पनडुब्बियां हासिल करने में ऑस्ट्रेलिया की मदद करेंगे. समूह ने जिक्र नहीं किया कि किस देश के खिलाफ वे यह तैयारी कर रहे हैं, लेकिन जाहिर था कि यह हिंद-प्रशांत क्षेत्र और खासकर दक्षिण तथा पूर्व चीन समुद्र में चीन के आक्रामक सैन्य इरादों का मुकाबला करने के लिए है.
फिर एक हफ्ते बाद बाइडन ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए साझा दूरदृष्टि के साथ काम कर रहे चार लोकतांत्रिक देशों के गुट क्वाड के पहले आमने-सामने हुए शिखर सम्मेलन के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जापान के निवर्तमान प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा और ऑस्ट्रेलिया के मॉरिसन की मेजबानी की. चतुर्पक्षीय सुरक्षा संवाद के छोटे नाम क्वाड की शुरुआत 2007 में हुई थी.
लेकिन एक दशक से ज्यादा वक्त यह उनींदा और निष्क्रिय पड़ा रहा, क्योंकि जापान को छोड़कर बाकी तीनों देश उभरते चीन से खुलकर पंगा लेना नहीं चाह रहे थे. मगर साल 2020 के बाद इस गुट ने बेहद जरूरी होने के एहसास से आगे कदम बढ़ाए. इतनी तेजी से कि 2021 में ही इसके शीर्ष नेताओं के दो शिखर सम्मेलन हो चुके हैं—मार्च 2021 में वर्चुअल और पिछले हफ्ते आमने-सामने.
क्वाड का शिखर सम्मेलन औकस के ऐलान की छाया से भले दब गया हो लेकिन इस बैठक में चारों देश हिंद-प्रशांत पर खास जोर देते हुए वैश्विक सार्वजनिक भलाई (देखें, आगे बढ़ते कदम) की कई पहल करने को राजी हुए. किसी बड़े सुरक्षा सहयोग के ऐलान से उन्होंने परहेज बरता, सिवाय इसके कि 'हिंद-प्रशांत और उसके आगे सुरक्षा और समृद्धि को सहारा देने के लिए स्वतंत्र, खुली, नियम-आधारित, अंतरराष्ट्रीय कानूनों पर टिकी और जोर-जबरदस्ती से निर्भीक व्यवस्था को बढ़ावा देने’ की अपनी प्रतिबद्धता दोहरा भर दी.
सच कहें तो क्वाड के मौजूदा एजेंडे के केंद्र में तीन चीजें—बेहद अहम हैं और वे हैं—टेक्नोलॉजी, कोविड से मुकाबला और जलवायु परिवर्तन. इन तीनों का ही इस क्षेत्र के साथ दुनिया की सुरक्षा से भी गहरा वास्ता है. लेकिन, जैसा कि कारनेगी एंडोवमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के सीनियर फेलो एश्ले जे. टेलिस कहते हैं, ''क्वाड अपनी शुरुआत से ही अशक्त रहा क्योंकि सीधे चीन का नाम लेने से कतराता रहा है.

क्वाड का एजेंडा बहुत ज्यादा लंबा-चौड़ा हो गया है, हालांकि इसे चीन को बराबरी पर लाने के लिए बनाया गया था. क्वाड तरकश का उपयोगी तीर है लेकिन चीन के खिलाफ अमेरिका की मुख्य चुनौती बड़ी हद तक सैन्य है और वह दो मोर्चों पर है. एक, समुद्र और महाद्वीप दोनों में चीन के 'ग्रे जोन’ पैंतरों का मुकाबला करना और दूसरा, ताइवान को प्रभावी सुरक्षा कैसे प्रदान की जाए. मेरी राय में क्वाड के पास फिलहाल दोनों का ही असल उत्तर नहीं है.’’
तो क्या क्वाड की हैसियत घटकर वाकई उतनी रह गई है जिसे चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने ''समुद्र में झाग’’ कहकर खारिज कर दिया, जो जल्द ही तितर-बितर हो जाएगा? क्या यह अब वह एशियाई नाटो नहीं रहा जिसे बनाने का आरोप चीन ने अमेरिका और जापान पर लगाया था?
हां भी और नहीं भी. हां इसलिए क्योंकि, जैसा कि एक बड़े भारतीय अफसर कहते हैं, खुद को मुख्यत: चीन विरोधी गुट या सैन्य गठबंधन की स्थिति में रखना क्वाड के डीएनए में नहीं है—इसे 2004 की हिंद महासागर की सुनामी से पैदा मानवीय और आर्थिक संकट के नतीजतन बनाया गया था. ऐसा इसलिए है क्योंकि व्यापार के लिए चीन पर बहुत ज्यादा निर्भर कोई भी आसियान देश ऐसे किसी गुट के साथ नहीं आएगा जो खुल्लमखुल्ला बीजिंग विरोधी हो.
यह अफसर कहते हैं, ''आप थाईलैंड जाकर यह नहीं कह सकते कि मेरी वैक्सीन लो क्योंकि यह चीन में नहीं बनी है. इसके बजाए आपको कहना होगा कि इसे लो क्योंकि यह अच्छी वैक्सीन है. आसियान देश चीन को काबू करने वाले किसी खेल का हिस्सा होने या महाशक्ति देशों के बीच नई प्रतिद्वंद्विता के झमेले में पडऩे को लेकर खासे चौकन्ने हैं.’’
नहीं, इसलिए कि क्वाड ने अपने लिए जो एजेंडा तय किया है, वह ‘‘चीन की वृद्धि के सामने सकारात्मक वैकल्पिक अफसाना’’ देता है, जैसा कि एक अन्य बड़े अधिकारी ने कहा. मसलन, टेक्नोलॉजी के मोर्चे पर क्वाड ने ऐसे समूह को जोड़ा है जो 5जी, सेमीकंडक्टर चिप और आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस सरीखी अहम टेक्नोलॉजी पर काम करेगा और इन बेहद अहम क्षेत्रों में चीन के कथित दबदबे को अप्रत्यक्ष रूप से कमजोर करेगा. साइबर सुरक्षा और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, खासकर बाह्य अंतरिक्ष के अहम क्षेत्रों का तो जिक्र ही क्या, जिनमें चीन ने तेज छलांगें लगाई हैं.
पूर्व विदेश सचिव श्याम सरण मानते हैं कि दो समानांतर घटनाक्रम—औकस की घोषणा और क्वाड के एजेंडे का तय होना—अपने-अपने ढंग से चीन को पीछे धकेलने का इशारा हैं. वे कहते हैं, ''अब सैन्य हिस्सा दूसरे खाने में रख दिया गया है, ताकि आसियान देश बेचैन न हों. आप जलवायु परिवर्तन, टेक्नोलॉजी और अंतरिक्ष सरीखे सहयोग के दूसरे क्षेत्रों में, जो क्षेत्र की सुरक्षा के बराबर ही महत्पूर्ण हैं, इन देशों के साथ काम कर सकते हैं. औकस और क्वाड दोनों चीन के खिलाफ भय प्रतिरोधक खड़ा करने के लिए एक दूसरे के समानांतर काम करेंगे.”
सरण कहते हैं कि क्वाड को चीन के खिलाफ सैन्य प्रतिरोधक होने से दूर करना कुछ ऐसा है जिससे भारत को सहज होना चाहिए. जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के विपरीत, भारत और चीन की जमीनी सरहदें मिलती हैं और इसलिए दांव कहीं ज्यादा ऊंचे हैं. यही नहीं, टेलिस कहते हैं, ''औकस के जरिए अमेरिका चीन के लिए जिंदगी दुश्वार बना रहा है.
समुद्री क्षेत्र के आसपास के देशों के प्रति चीनी खतरे से निपटने का अकेला तरीका यह है कि आप उन समुद्री इलाकों में काम कर पाएं जिन्हें चीन ने चुपचाप चीनी समुद्रतटों में शमिल कर लिया है और परमाणु शक्ति संपन्न पनडुब्बियां यह कर सकती हैं. सबसे बड़ा संकेत यह है कि पहले चीन से मुकाबला करने में हिचकिचा रहा ऑस्ट्रेलिया अब चीन से टकराव होने की स्थिति में अमेरिका के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होने को तैयार है.’’ जब चीन का ध्यान अपने दक्षिणी और पूर्वी समुद्रतटों पर नई सैन्य तैयारियों में लगा है, तब कई सारे मोर्चे खोलने से बचने के लिए वह भारत के साथ सीमा विवाद पर दबाव ढीला कर सकता है.
इस बीच, अमेरिका ने जिस ढंग से औकस बनाया, उसने बड़े यूरोपीय देश फ्रांस को नाराज कर दिया जो ऑस्ट्रेलिया को पारंपरिक पनडुब्बियां बेचने के अंतिम चरण में था. फ्रांस ने इसे विश्वासघात माना और बड़ी तकरार पैदा करते हुए अमेरिका तथा ऑस्ट्रेलिया से अपने राजदूत वापस बुला लिए. चीन को काबू करने में यूरोप का साथ आना लोकतांत्रिक दुनिया की कामयाबी के लिए बेहद अहम है और बाइडन ने जिस तरह गड़बड़ तरीके से औकस समझौते को अंजाम दिया, वह इस मोर्चे पर झटका है.
चीन से निपटने को लेकर फ्रांस के अमेरिका के साथ पहले से ही मतभेद थे. मुद्दों से निपटने में चीन के आक्रामक पैंतरों का वह कड़ा विरोधी था, पर इनके समाधान के लिए नया शीत युद्ध या सैन्य टकराव छेड़ने के पक्ष में वह नहीं था. फ्रांस के एक कूटनीतिज्ञ कहते हैं, ‘‘हमें क्षेत्र में स्थिरता लाने के लिए चीन से सामूहिक रूप से निपटने की और उदार व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए यूरोपीय संघ को साथ लेने की जरूरत थी.
अप्रत्याशित ढंग से संकीर्ण गठबंधन बनाने की नहीं.’’ यूरोप चीन को दुनिया के अहम आर्थिक इंजनों में से एक होने के अलावा जलवायु परिवर्तन से लड़ाई के लक्ष्य हासिल करने की भी कुंजी मानता है और यह भी कि उसके सहयोग की जरूरत पड़ेगी.
अमेरिका में फ्रांस के साथ रिश्ते ठीक करने की कोशिशें चल रही हैं, इधर विशेषज्ञ औकस को चीन को रोकने की कोशिशों में सैन्य गेमचेंजर के तौर पर देख रहे हैं. पूर्व सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन कहते हैं, ''जब आप परमाणु शक्ति संपन्न पनडुब्बियों से दक्षिण चीन सागर पर नजर रखकर उसे चीन की झील बनने से रोक सकें, तभी आप चीनियों को ताइवान पर कब्जा करने के लिए सैन्यबल का इस्तेमाल करने से भयपूर्वक रोक सकते हैं.
इसलिए क्वाड की भले ही रंगाई-पुताई कर दी गई हो, ये भारत के लिए अच्छी घटनाएं हैं.’’ मेनन कहते हैं कि हमारे पास समुद्री मोर्चे पर चीन का मुकाबला करने के साधन नहीं हैं इसीलिए दूसरे देश वह भूमिका निभा रहे हैं, जिससे भारत को ऐसी क्षमताएं विकसित करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है. वे यह भी कहते हैं कि इस बीच भारत को जमीनी सरहद पर अपनी सुरक्षा मजबूत करते रहना चाहिए और चीन को बता देना चाहिए कि अगर बीजिंग सरहद पर अपने दुश्मनी भरे इरादे दिखाना जारी रखता है तो वह भी घुसपैठ पर नियम तोड़ने से डरेगा नहीं.
चीनी नेतृत्व का मौजूदा ध्यान आंतरिक मुद्दों और अमेरिका का मुकाबला करने पर है. खासकर जब शी महज कुछेक के लिए नहीं बल्कि सभी के लिए समृद्धि पर जोर देकर अपनी आर्थिक नीति में बड़े बदलाव का इशारा कर रहे हैं (बड़े कारोबारों पर हालिया कड़ी कार्रवाई पर गौर कीजिए). ऐसे में मेनन की सलाह है: ''भारत को पड़ोसियों से रिश्ते मजबूत करने की दिशा में काम करने का यह मौका गंवाना नहीं चाहिए.’’ मसलन, वह बंगाल की खाड़ी की सुरक्षा को लेकर बांग्लादेश, श्रीलंका और म्यांमार के साथ काम कर सकता है.
भारत के लिए इतना ही जरूरी यह भी है कि वह हिंद-प्रशांत में अपना प्रभाव बढ़ाए. 2014 में कमान संभालने के बाद से ही मोदी इस पर पूरी सरगर्मी से जोर देते आ रहे हैं. आसियान देशों के साथ-साथ चीन के उभार के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था और भू-राजनीति के गुरुत्वाकर्षण का केंद्र अटलांटिक-पार से हटकर प्रशांत-पार पर आ गया है. अमेरिका ने न केवल उस हिंद महासागर का महत्व पहचाना जहां भारत चौतरफा फैला है, बल्कि चीन को रोकने की अपनी योजनाओं में भारत की अहमियत को भी माना.
यही वजह है कि उसने अपने एशिया-प्रशांत सैन्य कमान का नाम बदलकर हिंद-प्रशांत कर दिया. दुनिया का दो-तिहाई कंटेनर यातायात इन्हीं दो महासागरों से होकर गुजरता है और समुद्री सुरक्षा कायम रखना क्वाड का बेहद अहम हिस्सा है. जरूरत यह है कि क्वाड अपनी सभी प्रमुख पहलों पर आसियान देशों को अपने पाले में लाए.
दक्षिण कोरिया और वियतनाम ने क्वाड की पहलों का हिस्सा बनने में पहले ही दिलचस्पी दिखाई है, जिससे क्वाड प्लस की चर्चा छिड़ गई है. एक भारतीय अफसर कहते हैं, ''हिंद-प्रशांत की स्थिरता में दुनिया भर का हित है और इसे नियम आधारित संस्थाओं और मानदंडों से संचालित प्रबंधन की जरूरत है. क्वाड इसी पर जोर दे रहा है.’’
तो भी, जैसा कि टेलिस बताते हैं, अभी इसे व्यावहारिक तौर पर आजमाया नहीं गया है और क्वाड की कामयाबी वादों को तेजी से जमीन पर उतारने और ज्यादा आसियान देशों को साथ लाने पर निर्भर करेगी. इस गुट ने चीन को इशारों-इशारों में बता दिया है कि लोकतांत्रिक देश चीनी ताकत से बेचैन हैं और इस ताकत के खुलने के तरीके से भी. सवाल वही है: इस मामले में वे क्या कर सकते हैं?
बुनियादी ढांचे को लेकर क्या क्वाड खासकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में विशालकाय बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआइ) का मुकाबला कर सकता है? बीआरआइ परियोजना महामारी की वजह से और चीनी दबाव, वित्तीय पारदर्शिता के अभाव और इनसे उत्पन्न पर्यावरण के नुक्सानों की वजह से धीमी पड़ी है.
बीआरआइ से मुकाबले के लिए अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने ब्लू डॉट नेटवर्क पहल को हरी झंडी दिखाई है, जिसमें विदेशों में निवेश के लिए निजी पूंजी जुटाने की खातिर वित्तीय पारदर्शिता, पर्यावरण के स्थायित्व और आर्थिक विकास पर जोर दिया गया है. मगर उनकी कोशिशें अभी चीनी पहल के पासंग भी नहीं हैं.
चीन क्वाड की व्यवस्था के प्रति आसियान देशों और यूरोप के समर्थन में दरार डालकर बांटने और राज करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है. मगर डराने-धमकाने के उसके पैतरों के फूहड़पन ने ऑस्ट्रेलिया को मजबूती से विरोधी खेमे में धकेल दिया. हालांकि टेलिस मानते हैं कि क्वाड ''अभी खेल के शुरुआती चरण में है और तब तक कारगर नहीं होगा जब तक आप आसियान देशों और यूरोप को एक साथ नहीं लाते हैं.’’
एक बड़े भारतीय कूटनीतिज्ञ सहमत हैं कि ''यह खेल की शुरुआत है’’, लेकिन वे कहते हैं कि क्वाड और औकस अहम जवाब हैं, और जिस तरह दूसरे विश्व युद्ध के बाद अटलांटिक गठबंधन चरणों में बना, वैसे ही आने वाले सालों में कई और उभरेंगे. अलबत्ता अगर भारत चाहता है कि उसे क्वाड में बराबर का भागीदार माना जाए, तो उसके सामने कई चुनौतियां हैं, खासकर टेक्नोलॉजी के मोर्चे पर. एक तो आर्थिक विकास के रास्ते को लेकर अपने क्वाड भागीदारों के साथ उसके भारी मतभेद हैं.
खासकर जब उनका भरोसा खालिस बाजार-संचालित समाधानों पर है. 5जी के मामले में अमेरिका और जापान किसी खास देश के बजाए निजी कंपनियों पर भरोसा करेंगे कि वे इसे विकसित और प्रतिस्पर्धा करें. सेमीकंडक्टर टेक्नोलॉजी के मामले में दोनों देश मीलों आगे हैं और उनके बराबर आने के लिए भारत को अरबों डॉलर के निवेश की जरूरत होगी.
यही नहीं, हम क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) या प्रशांत-पार भागीदारी के लिए व्यापक और प्रगतिशील समझौता (सीपीटीपीपी) सरीखे व्यापार समझौतों में शामिल होने को लेकर अनिच्छुक हैं और इसके बजाए हरेक देश के साथ दोतरफा समझौतों को तवज्जो देते हैं. इससे भी क्षेत्र में हमारी प्रभावित करने की क्षमता घटी है.
मेनन कहते हैं, ''भारत को चाहिए कि अमेरिका को अपनी तरफ रखे, क्योंकि उसे चीन पर दबाव डालने के लिए जरूरी सैन्य टेक्नोलॉजी की दरकार है. इसके अलावा उसे अमेरिका का ध्यान लद्दाख में गलवान के बजाए ताइवान पर बनाए रखना चाहिए.’’ यह बेशक ऊंचे दांव का खेल है. खुशकिस्मती से इसे निपुणता से खेलने के लिए महाशन्न्तियों की मेज पर भारत भी उठ-बैठ रहा है.
एश्ले जे. टेलिस सीनियर फेलो, कानरेगी एंडोवमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस
‘‘क्वाड अपनी शुरुआत से ही अशन्नत रहा क्योंकि सीधे चीन का नाम लेने से कतराता रहा. अब इसका एजेंडा बहुत ज्यादा लंबा-चौड़ा हो गया है’’.