
वामपंथी उग्रवाद के खिलाफ देश के शस्त्रागार में नक्सल आत्मसमर्पण नीति सबसे अहम हथियार बनकर उभरी. माओवादी काडर को शांति से बाहर निकलने का रास्ता देकर प्रशासन की इस नीति ने विद्रोहियों की तादाद कम की है.
इसके जरिए नक्सलियों के नेतृत्व के ढांचों और रसद वगैरह की सहायता के तंत्र को तहस-नहस कर दिया गया है. उग्रवाद-विरोधी कार्रवाइयों के लिए बेशकीमती खुफिया जानकारियां मुहैया कीं.
बीते पांच साल में छत्तीसगढ़ में करीब 3,000 बागियों ने आत्मसमर्पण किया, जिनमें कई मझोले स्तर के अगुआ हैं. इससे अपने आखिरी गढ़ में माओवादियों का प्रभाव काफी कमजोर हुआ. तो, यह नीति कैसे काम करती है? यह नीति हथियार डालने वाले माओवादियों को रुपए-पैसे की सहायता, मकान, शिक्षा और रोजगार दिलाने में मदद की तजवीज करती है. हथियार डालने वाले काडर के खाते में तत्काल 25,000 रुपए जमा करवा दिए जाते हैं. रैंक के हिसाब से और भी वित्तीय इनाम दिए जाते हैं.
मिलिशिया कमांडरों को 1 लाख रुपए, पार्टी के सदस्यों को 1 लाख रुपए से 2 लाख रुपए के बीच, एरिया कमेटी के सदस्यों को 5 लाख रुपए, और डिविजनल कमेटी के सदस्यों को 8 लाख रुपए मिलते हैं. सौंपे गए हथियारों के लिए अतिरिक्त इनाम मिलते हैं. मसलन, एके सीरीज की राइफल के लिए 4 लाख रुपए मिल जाते हैं. गंभीर आरोप तो कायम रहते हैं, लेकिन छोटे-मोटे अपराध प्ली बार्गेनिंग के जरिए सुलझाए जा सकते हैं.
2024 से नक्सल-विरोधी कार्रवाइयों के तेज होने की बदौलत न केवल मारे गए बागियों बल्कि हथियार डालने वाले बागियों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है. हाल के वर्षों में आंदोलन का नाभिकेंद्र बन गए बस्तर में 2023 में 398 माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया था. 2024 में दोगुने 800 ने किया. उसी साल इस इलाके में 217 नक्सली मारे भी गए, जो राज्य के इतिहास में सबसे ज्यादा थे और पिछले साल के महज 20 के मुकाबले बड़ा उछाल थे.

माओवादियों में अंतर्कलह से आत्मसमर्पण को और बढ़ावा मिला. मसलन, 2006 से 2021 तक नक्सली आंदोलन से जुड़े सोढ़ी मुइया और उनकी पत्नी विनीता ने पुलिस का मुखबिर होने का आरोप लगाए जाने के बाद पाला बदल लिया. मार दिए जाने के डर से उसने आत्मसमर्पण में सुभीते के लिए स्थानीय राजनैतिक नेता के रिश्तेदार से मदद मांगी. उसकी पत्नी ने एक साल बाद आत्मसमर्पण किया.
मुइया एरिया कमेटी के सेक्रेटरी रह चुके थे, उन्हें इनाम में 8 लाख रुपए और सुकमा पुलिस अधीक्षक (एसपी) के दफ्तर में नौकरी मिली, तो विनीता को गोपनीय सैनिक नियुक्त किया गया. मुइया कहते हैं, ''अफसोस बस इस बात है कि प्रतिशोध के डर से मैं अपने गांव नहीं लौट सकता.’’
हथियार डालने वाले कई नक्सल अब डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (डीआरजी) में काम करते हैं. यह बल छत्तीसगढ़ में विद्रोह के खिलाफ असरदार होने के लिए जाना जाता है. यह स्थानीय रंगरूटों से बना है और उन्हें यहां के भूभाग, भाषा और माओवादियों की व्यूहरचनाओं की गहरी जानकारी होने का फायदा डीआरजी को मिलता है.
रंगरूटों को सहायक कॉन्स्टेबल, कॉन्स्टेबल या गोपनीय सैनिक रूप में शामिल किया जाता है और स्थानीय लोगों की भर्ती को बढ़ावा देने के लिए शारीरिक और शैक्षणिक मानदंडों में कई तरह की छूट दी जाती है. इससे उनका मनोबल बढ़ता है. सुकमा में डीआरजी के कॉन्स्टेबल इंद्रजीत कुमार कहते हैं, ''कोई भी इस भूभाग को उस तरह नहीं जानता जैसे हम जानते हैं. हम मुश्किलें झेलते हुए बड़े हुए और लड़ाई में उतरने पर यह दिखाई देता है.’’ ऐसे लोग अब पुलिस के काफी काम आ रहे हें.
डीआरजी में फिलहाल करीब 3,000 कर्मी हैं. इसमें महिला इकाई दांतेश्वरी फाइटर्स भी शामिल है, जिसमें अभी करीब 100 कर्मी हैं. स्थानीय तौर पर भर्ती किए गए रंगरूटों का एक और बल बस्तर फाइटर्स 2021 में बना, जिसमें सात जिलों में 2,100 कर्मी हैं. 2024 में मिली उग्रवाद-विरोधी रिकॉर्ड-तोड़ कामयाबियों में इन दोनों बलों ने अहम भूमिका अदा की. सुकमा के एसपी किरण चव्हाण के मुताबिक आत्मसमर्पण हमारी कार्रवाई की प्रमुख रणनीति है.
वे कहते हैं, ''कामयाब आत्मसमर्पणों से सक्रिय काडर के बारे में खुफिया जानकारी मिलती है, माओवादियों के बीच असंतोष के बीज पनपते हैं, और ज्यादा बागी पाला बदलने को प्रोत्साहित होते हैं.’’ यह बेवजह नहीं कि अपनी कुल तादाद में 18 फीसद आत्मसमर्पित बागियों से लैस डीआरजी को भाले की नोक कहा जाता है.
नक्सल काडरों को वापसी का आसान रास्ता मुहैया कराने वाली आत्मसमर्पण नीति से बागियों की तादाद घटाने और नेतृत्व को बेअसर करने में मदद मिली है.