
अंधेरे सीलन भरे अस्त-व्यस्त कमरे में खिड़कियों और दरवाजों से थोड़ी-सी रोशनी अंदर आ रही है. उसी रोशनी में वंदना कर्ण एक छोटी-सी चौकी पर रखी सिल्क की साड़ी पर मिथिला पेंटिग उकेर रही हैं. साड़ी के बॉर्डर पर काले रंग से उकेरे जा रहे ये चित्र काफी आकर्षक लगते हैं. वे कहती हैं कि उन्हें इस पूरी साड़ी पर चित्र उकेरने में 20-22 दिन लग जाएंगे. मेहनताना कितना मिलेगा? यह पूछने पर वे बताती हैं, ''2,500 रुपए.'' यानी एक दिन के मुश्किल से सौ, सवा सौ रुपए? बस!
उनके शब्दों में, ''रोज दिन में साढ़े दस बजे से चार बजे तक इस काम में लगे रहते हैं, फिर भी इतने ही पैसे मिल पाते हैं. हम लोग कलाकार हैं मगर एक दिहाड़ी मजदूर भी हम लोगों से ज्यादा पैसे कमा लेता है.'' यह केवल मधुबनी जिले में मिथिला पेंटरों के गांव रांटी की वंदना की नहीं, बल्कि इस पेशे से जुड़े ज्यादातर कलाकारों की कहानी है.
बिहार की लोककलाओं और शिल्पों पर कई किताबें लिख चुके और उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान के पूर्व निदेशक अशोक कुमार सिन्हा कहते हैं, ''भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में सक्रिय कलाकारों की संख्या 40,000 के आसपास है. उसमें दो-तिहाई महिलाएं हैं और इन महिलाओं का 25 फीसद साड़ियों पर मिथिला पेंटिंग के चित्र उकेरने के काम में जुटा है.
काम का मेहनताना कलाकार के हिसाब से तय होता है. इन्हें 2,000 रु. से लेकर 10,000 रु. तक मेहनताना मिलता है. लेकिन ज्यादातर कलाकारों को 2,000-2,500 रुपए का ही मेहनताना मिलता है.'' आम बजट वाले दिन जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण मिथिला पेंटिंग वाली साड़ी पहने नजर आईं तो इसने पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ खींचा. कुछ दिनों बाद दिल्ली की नई मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता भी ऐसी ही साड़ी में दिखीं. इसके बाद ऐसी साड़ियों की मांग में अचानक काफी तेजी आ गई.
इस मांग को भुनाने के लिए पटना और मुजफ्फरपुर स्थित खादी मॉल में वहां के प्रबंधकों ने 15 से 23 फरवरी के बीच इन साड़ियों की बिक्री का स्पेशल ड्राइव चलाया. इस दौरान पटना में छह कलाकारों को बुलाकर वहां ग्राहकों को इस पेंटिंग का लाइव डेमो दिया गया. ग्राहकों ने इस अवधि में सिर्फ पटना में 895 साड़ियां खरीदीं, जिससे मॉल को 56 लाख रु. की आमदनी हुई. मुजफ्फरपुर में भी इस अवधि में दो कलाकारों का लाइव डेमो किया गया और वहां 16 लाख रु. की साड़ियां बिकीं.
वंदना के गांव मधुबनी जिले के रांटी में अचानक दूर-दूर से कारोबारी आने लगे और यहां जितनी साड़ियां तैयार थीं, उन्हें बटोरकर अपने साथ ले गए. लोग अच्छी साड़ियों की मुहमांगी कीमत देने को तैयार हैं. वंदना जैसी कलाकारों को इसका सिर्फ इतना फायदा हुआ है कि उन्हें अब काम की कमी नहीं है मगर उनका मेहनताना जस का तस है.
वंदना कहती हैं, ''जिन साड़ियों को हम लोग तैयार करते हैं, वे बाजार में 10,000-25,000 रुपए तक में बिकती हैं. जो लोग हमें काम देते हैं, उन्हें भी एक साड़ी पर पेंटिंग करवाने के लिए पांच से सात हजार रुपए तक मिलते हैं. मगर फिर भी वे लोग हमसे 2,000-2,500 रु. में ही काम करवा लेना चाहते हैं. वजह सिर्फ इतनी है कि हम इस काम के लिए बिचौलियों पर निर्भर हैं.''
वंदना के ही गांव के कुछ कलाकारों को लगभग इसी दर पर काम मिल रहा है. हालांकि, उनमें एक आभा दास हैं, जो इस काम के लिए 7,000-9,000 रुपए चार्ज करती हैं क्योंकि उनके ग्राहक बंधे हैं, और काम सीधा उनके पास आता है.
आभा दास मिथिला पेंटिंग की मशहूर कलाकार पद्मश्री महासुंदरी देवी की बहू हैं. अपनी सास से ही उन्होंने यह चित्रकला सीखी और उन्हें भी राज्यस्तरीय अवार्ड मिला है. बेंगलूरू सिल्क की साड़ी पर नैना-जोगिन के चित्र उकेर रहीं आभा कहती हैं, ''मेरे पास दिल्ली, मुंबई, बेंगलूरू, इंदौर और सूरत से लगातार ऑर्डर आते हैं. बैंकॉक से भी एक सज्जन काफी काम भेजते हैं. कई बार मेरे पास इतना ऑर्डर आ जाता है कि मैं उन्हें दूसरे कलाकारों को दे देती हूं.''
आभा दास की तरह गांव के कुछ और नामी कलाकारों के पास काम सीधे पहुंच रहा है, खासकर जिन्हें कोई अवार्ड मिला है या जो किसी बड़े कलाकार के परिवार से जुड़े हैं. इन दिनों सबसे ज्यादा काम रांटी की ही पद्मश्री दुलारी देवी के पास पहुंच रहा है क्योंकि सीतारमण ने उनकी ही बनाई साड़ी को पहना था. मगर अपनी बढ़ती उम्र और मिथिला चित्रकला संस्थान में अपनी नौकरी की वजह से वे ज्यादा काम स्वीकार नहीं कर रहीं, और अपना काम दूसरों को दे रही हैं.
मछुआ जाति से संबंध रखने वालीं दुलारी देवी को 2021 में पद्मश्री सम्मान मिला था. अपनी मातृभाषा मैथिली में वे कहती हैं, ''दीवाली के मौके पर एक बीएसएफ अधिकारी ने मेरे लिए केरल से कॉटन की दो साड़ियां भिजवाई थीं. मैंने सोचा था एक मैं खुद रख लूंगी और एक अपनी भतीजी को दे दूंगी. मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती मगर फिर भी मैंने दोनों साड़ियों में बॉर्डर और आंचल पर चित्र बनाए. तभी निर्मला जी का यहां आना हुआ. सभी लोग विचार करने लगे कि वे पहली बार मिथिला आई हैं, उन्हें कोई अच्छी-सी साड़ी विदाई में दी जानी चाहिए. तो मैंने कहा, मेरे पास एक साड़ी है. लोगों को वह साड़ी पसंद आ गई और वही साड़ी उन्हें मेरे हाथों से दिलवा दी गई.''
पिछले साल नवंबर में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण क्रेडिट आउटरीच कार्यक्रम में भाग लेने दरभंगा आई थीं, यह उसी वक्त की बात है. दुलारी देवी बहुत साफगोई से कहती हैं कि वित्त मंत्री को गिफ्ट करने के लिए यह साड़ी उनसे 10,000 रुपए में खरीदी गई थी. अब दूसरी बची साड़ी के लिए लोग 25,000 रुपए तक देने के लिए तैयार हैं. वे उस साड़ी को दिखाती हैं. उस साड़ी के बॉर्डर और आंचल में फूल-पत्तियां और पक्षी बने हैं और साड़ी के बीच वाले हिस्से पर मछलियां उकेरी गई हैं.
इसी तरह पद्मश्री महासुंदरी देवी की बड़ी बहू विभा दास, जिन्हें मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है, वे भी पीले रंग की एक साड़ी दिखाती हैं, जिस पर लाल रंग से मिथिला पेंटिंग उकेरी गई है. वे इस साड़ी की कीमत 25,000 रुपए बताते हुए कहती हैं, ''आजकल मैं साड़ी पर रंग उकेरने का काम कम करती हूं. और अगर करती भी हूं तो एक साड़ी का मेहनताना 15,000 रुपए लेती हूं.''
मगर हर कलाकार की किस्मत दुलारी देवी, आभा दास और विभा दास जैसी नहीं. ज्यादातर कलाकारों की स्थिति वंदना कर्ण जैसी है. वंदना कहती हैं, ''इसी गांव में 40-50 ऐसी महिलाएं हैं, जो मेरी तरह कम मेहनताने पर काम करने के लिए मजबूर हैं. वजह सिर्फ इतनी है कि हमें कोई अवार्ड नहीं मिला, हमारी कोई पहचान नहीं है.''
ऐसी ही एक कलाकार सुनीता देवी कहती हैं, ''काम या तो बिचौलिये को मिलता है या उन कलाकारों को, जिनका नाम है. फिर ये लोग अपना काम हम लोगों से बहुत कम पैसों में करवाते हैं. इन्हीं पैसों में पेंट और ब्रश भी खरीदना पड़ता है.'' रांटी के ही एक कलाकार अविनाश कर्ण कहते हैं, ''नाम बिक रहा है और असली टैलेंट पीछे छूट रहा है. दिक्कत यह है कि अब बड़े कलाकार खुद बिचौलिया बन गए हैं.''
बड़े कलाकारों के पास काम आता है और उन्हें अच्छी कीमत भी ऑफर की जाती है मगर वे अपना काम जिन छोटे कलाकारों से करवाते हैं, उन्हें बहुत कम पैसे देते हैं.
इन कलाकारों की मजबूरी और इनके साथ शोषण की परतें इकहरी नहीं हैं. बिहार सरकार ने अपने आजीविका मिशन 'जीविका' के जरिए इन कलाकारों को शोषण से बचाने के लिए समूह तैयार किए और उन्हें पेंटिग करने के लिए जगह उपलब्ध कराई. मिथिला पेंटिंग के लिए मशहूर एक अन्य बड़े गांव जितवारपुर में भी एक ऐसा ही केंद्र है. मधुबनी जिला कला जीविका उत्पादन केंद्र.
दोपहर के वक्त उस केंद्र में 25-30 महिलाएं एक साथ बैठकर दुपट्टों पर मिथिला पेंटिंग बनाती नजर आती हैं. जीविका समूह इन्हें कपड़ा और पेंट-ब्रश उपलब्ध कराता है, फिर इनसे साड़ियां, दुपट्टों, टेबल क्लॉथ, पाग आदि पर पेंटिंग करवाता है. जो माल बिकता है, उसमें कपड़े और पेंट-ब्रश की लागत काट कर मुनाफा कलाकारों को दे दिया जाता है. इसके बावजूद इस सेंटर के कलाकार महीने के 2,000-5,000 रुपए ही कमा पाते हैं.
इसकी वजह बताते हुए वहां पेंटिंग कर रही राजकुमारी कहती हैं, ''दरअसल हमें सरकार की तरफ से अच्छे मेलों में नहीं बुलाया जाता. जिन मेलों में बुलाया जाता है, वहां अच्छे स्टॉल नहीं मिलते. ऐसे में तैयार माल कम कीमत में बिचौलियों को बेचना पड़ता है.''
राजकुमारी की बातें सच मालूम होती हैं, जब वहां की कलाकार ललिता देवी पेपर सिल्क पर मिथिला पेंटिंग उकेरी गई साड़ी को दिखाती हैं. वे बताती हैं कि इस साड़ी की उन्हें अधिकतम कीमत 7,000-8,000 रु. ही मिलेगी, जबकि सिर्फ साड़ी ही उन्होंने 3,000 रु. में खरीदी है.
मधुबनी जिला कला जीविका उत्पादन केंद्र की अध्यक्ष पूनम देवी बताती हैं कि वे लोग जितनी मेहनत करती हैं, उस हिसाब से मेहनताना नहीं मिलता. वे कहती हैं, ''हमें अच्छे मेले नहीं मिलते. बड़े शहरों में हमारा स्टॉल नहीं है. मजबूरन हम लोग बिचौलियों के सामने बेबस हो जाते हैं. हम अपनी जो कीमत रखते हैं, वह हमें नहीं मिलती.''
इसी तरह से रांटी गांव में एक निजी केंद्र में महिलाएं अलग तरह के शोषण की शिकार हैं. वहां महिलाओं को 5,000-6,000 रुपए प्रति माह पर रखकर साड़ियों पर पेंटिंग बनवाई जाती है. भारी मात्रा में सरकारी और गैर सरकारी ऑर्डर लाने वाला एक बिचौलिया उनसे यह काम करवाता है. हालांकि वहां काम करने वाली महिलाएं अपनी पहचान जाहिर करने से इनकार करती हैं.
जितवारपुर गांव के रहने वाले मिथिला पेंटिंग के पुराने कलाकार, नवल किशोर दास उपेन्द्र महारथी संस्थान में भी सेवा दे चुके हैं. वे कहते हैं, ''कमाई तो ब्रोकरों की होती है, वह लूटता है. वह बाहर से ऑर्डर लेकर आता है और यहां काम बांट देता है. वह 1,500 से 2,000 रुपए में साड़ी बनवा लेता है और उसे बाहर जाकर ऊंची कीमत में बेचता है. साड़ी की पेंटिंग में जितना वक्त लगता है उस हिसाब से न्यूनतम मेहनताना 5,000 रुपए होना चाहिए.'' मगर इन कलाकारों के मेहनताने की फिक्र सरकारी संस्थानों को भी नहीं है.
पटना और मुजफ्फरपुर के खादी मॉल में लाइव डेमो देने और साड़ियों पर मिथिला पेंटिंग उकेरने वाली कलाकारों को भी रोजाना 500 रुपए का ही मेहनताना दिया गया. न उनके रहने की व्यवस्था की गई, न खाने-पीने की. पटना खादी मॉल के प्रबंधक रमेश चौधरी कहते हैं, ''अगर कोई ग्राहक इन साड़ियों पर अलग से पेंटिंग करवाना चाहता था, तो उन्हें इन कलाकारों को अलग से पैसा देना होता था. वह भी अधिकतम 250 रुपए. कलाकार अपने रिश्तेदारों के घर ठहरे थे और हमने उनके लिए अल्पाहार की व्यवस्था की थी.''
जाहिर है, इस अवसर को भुनाने की कोशिश में दोनों खादी मॉल ने मिलकर 72 लाख रुपए की साड़ियां बेची, मगर आठ कलाकारों के हिस्से सिर्फ 36,000 रुपए की रकम आई. यानी एक कलाकार सिर्फ 4,500 रुपए कमा सका.
इस कला और इसके कलाकारों पर सिर्फ शोषण और कम मेहनताने का ही खतरा नहीं है. एक नया खतरा साड़ियों पर डिजिटल मिथिला पेंटिंग का भी है. अशोक कुमार सिन्हा कहते हैं, ''सबसे स्याह और गंभीर पक्ष यह है कि आजकल बाजार में डिजिटल प्रिंट वाली मिथिला पेंटिंग साड़ियों का चलन आ गया है. इस काम में काफी संख्या में लोग उतर गए हैं. ग्राहक फर्क नहीं कर पाते कि हाथ से बनी साड़ी कौन है और डिजिटल प्रिंट वाली कौन-सी. अगर इस पर रोक नहीं लगी तो इन कलाकारों पर बहुत बड़ा संकट आ सकता है. मिथिला पेंटिंग को जीआइ टैग भी मिला है, उसमें भी डिजिटल प्रिंटिंग को मान्यता नहीं मिली है. इसलिए इस पर तत्काल रोक लगाने की जरूरत है.''
मिथिला चित्रकला का सिद्धांत नाम की किताब लिखने वाले और क्राफ्टवाला संस्था के प्रबंध निदेशक राकेश कुमार झा कहते हैं, ''डिजिटल प्रिंटिग को रोक पाना तो काफी मुश्किल काम है, मगर जीआइ टैग को ठीक से लागू कराने की जरूरत है. इस टैग के मिलने के बाद इस चित्रकला के क्षेत्र का निर्धारण हो गया है, उसी क्षेत्र के कलाकार इसे बनाने की पात्रता रखते हैं. मगर अभी दूसरे इलाके के लोग भी सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों से यह कला सीख ले रहे हैं और साड़ियों पर चित्र उकेरने लगे हैं. इससे भी मिथिला चित्रकला के लोक कलाकारों की हकमारी हो रही है.''
मिथिला चित्रकला को मधुबनी पेंटिंग के नाम से 2007 में जीआइ टैग मिला था. इस जीआइ टैग के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने वाले अधिवक्ता डॉ. मौर्य विजयचंद ने मधुबनी में जाकर कलाकारों के बीच अध्ययन किया तो पता चला कि उनके इंटेलेक्चुअल कॉपीराइट का उल्लघंन हो रहा है. बिना नाम लिखे पेंटिंग बिकती है. जीआइ टैग लगा रहना चाहिए लेकिन लगता नहीं. इसके बाद उन्होंने 2023 में पटना हाइकोर्ट में इससे संबंधित मुकदमा किया. इंडिया टुडे से बातचीत में डॉ. मौर्य कहते हैं, ''जीआइ टैग मिलने के बाद मधुबनी के कलाकार ही अपनी पेंटिंग को मधुबनी पेंटिंग कह सकते हैं और वही इसमें जीआइ टैग लगा सकते हैं. वहां से बाहर के कलाकार नहीं. हमारे प्रयासों से अब तक सिर्फ 25 लोगों को यह टैग मिला है.'' डिजिटल प्रिंट वाली साड़ियों के मसले पर वे कहते हैं, ''इसे मधुबनी प्रिंट तो कहा जा सकता है, मधुबनी पेंटिंग नहीं.''
इन साड़ियों पर बन रहे चित्रों के मामले पर एक सवाल कला और शिल्प का भी है. मिथिला चित्रकला के जाने-माने कलाकार और इस कला को कंटेंपररी आर्ट के रूप में प्रतिष्ठित करने में जुटे संतोष कुमार दास कहते हैं, ''यह सच है कि मिथिला चित्रकला का विकास सूखे की स्थिति में कलाकारों को आजीविका के साधन उपलब्ध कराने के मकसद से ही हुआ. आज भी इस कला से जुड़ी बड़ी आबादी के लिए आजीविका का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण है. आजीविका की तलाश में साड़ियों पर पेंटिंग का काम ज्यादा फैल रहा है. मगर, इससे इसका कला पक्ष उपेक्षित रह जाता है. इसलिए, इससे संबंधित रोजगारपरक गतिविधियों को बढ़ाने के साथ-साथ सरकार को इसे कला के रूप में भी विकसित करना चाहिए और देखना चाहिए कि जो लोग इसके कला पक्ष को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें कैसे और किस प्रकार का सहयोग किया जा सकता है.''
बजट 2025-26 पेश करते समय मिथिला साड़ी पहनकर आई थीं वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण

पद्मश्री से सम्मानित रांटी गांव की कलाकार दुलारी देवी ने बनाई थी यह मिथिला साड़ी
इस साड़ी के लिए दुलारी देवी को 10,000 रुपए दिए गए थे
कमाई तो ब्रोकरों की होती है, वह लूटता है. वह बाहर से ऑर्डर लेकर आता है और यहां काम बांट देता है. 1,500-2,000 रु. में साड़ी बनवा लेता है और उसे बाहर जाकर ऊंची कीमत में बेचता है.
नवल किशोर दास, मिथिला पेंटिंग के पुराने कलाकार
आज भी इस कला से जुड़ी बड़ी आबादी के लिए आजीविका का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण है. आजीविका की तलाश में साड़ियों पर पेंटिंग का काम ज्यादा फैल रहा है. मगर, इससे इसका कला पक्ष उपेक्षित रह जाता है.
संतोष कुमार दास, मिथिला चित्रकला के जाने-माने कलाकार
