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यूपी में उर्दू के साथ क्या हो रहा है?

उपेक्षा का शिकार हुईं उर्दू अकादमियां, विधानसभा की कार्यवाही के अंग्रेजी के अलावा चार क्षेत्रीय भाषाओं में लाइव अनुवाद की सुविधा से उर्दू को बाहर रखने पर विवाद

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में बदहाल पड़ा उर्दू अकादमी का भवन
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में बदहाल पड़ा उर्दू अकादमी का भवन
अपडेटेड 12 मार्च , 2025

राजधानी लखनऊ में गोमतीनगर के विभूति खंड इलाके में वाणिज्यिक कर अधिकारी प्रशिक्षण संस्थान से सटी सफेद रंग की इमारत पर पसरा सन्नाटा प्रदेश में उर्दू की हालत को बयान करता है. यह उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी का भवन है. करीब पांच दशक पहले 1972 में प्रदेश में उर्दू भाषा को बढ़ावा देने के लिए उर्दू अकादमी की स्थापना हुई थी. अपनी स्थापना के बाद से अकादमी ने उर्दू भाषा और साहित्य को बढ़ावा देने और लोकप्रिय बनाने के लिए कई योजनाएं शुरू कीं. प्राचीन उर्दू कृतियों का संपादन और प्रकाशन, बच्चों के लिए साहित्यिक पुस्तकों का प्रकाशन, छात्रों को स्कॉलरशिप जैसी योजनाओं ने उर्दू अकादमी को इस भाषा के कद्रदानों के बीच खासा लोकप्रिय बना दिया था.

लेकिन गोरखपुर के चौधरी हाउस निवासी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के करीबी चौधरी कैफुल वरा अंसारी का बतौर उर्दू अकादमी के चेयरमैन का कार्यकाल पूरा होने के बाद सितंबर, 2023 से यहां का काम सुस्त है. पिछले तीन साल से उर्दू अकादमी अपना सालाना अवार्ड भी नहीं बांट पाई है. इसमें कर्मचारियों के 30 से ज्यादा पद खाली हैं और जो हैं भी, वे भारी गुटबाजी का शिकार हैं. उनके निशाने पर अकादमी के वर्तमान सचिव शौकत अली हैं. तीन साल में अकादमी के तीन सचिव बदले जाने पर सवाल खड़े हुए हैं.

उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी का दायरा पूरा प्रदेश है सो देश भर में उर्दू भाषा और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए वर्ष 1976 में फखरुद्दीन अली अहमद मेमोरियल कमेटी की स्थापना की गई थी. प्रदेश के उर्दू अकादमी के भवन में चौथे माले पर टंगा एक बैनर ही फखरुद्दीन अली अहमद मेमोरियल कमेटी के दफ्तर का पता बताता है. चेयरमैन के अभाव में यहां का कामकाज ठप हो गया लगता है. हालांकि दोनों संस्थाओं के सचिव की जिम्मेदारी संभाल रहे शौकत अली बताते हैं, "उर्दू अकादमी और फखरुद्दीन अली अहमद मेमोरियल कमेटी की योजनाओं का संचालन जारी है. चेयरमैन के न होने से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ा है." साथ ही शौकत अली खुद के खिलाफ अकादमी के कर्मचारियों की लामबंदी को साजिश करार देते हैं.

उत्तर प्रदेश की उर्दू अकादमी से मिलते-जुलते हालात देश की अन्य अकादमियों के भी है. दरअसल, उर्दू भाषा के विकास के लिए देश को तीन जोन में बांटकर तीन अलग-अलग विश्वविद्यालयों में तीन उर्दू अकादमी बनाई गई थीं. जामिया मिल्लिया इस्लामिया दिल्ली की अकादमी के पास राजस्थान, पंजाब, दिल्ली, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर के उर्दू शिक्षकों को अपग्रेड करने की जिम्मेदारी थी. वहीं अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) की उर्दू अकादमी पर उत्तराखंड, बिहार, पश्चिमी बंगाल और ओडिशा तथा मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद के पास दक्षिण भारतीय राज्यों का जिम्मा है.

भारत सरकार ने अक्टूबर 2006 में इन तीनों विश्वविद्यालयों में उर्दू अकादमी खोलने पर सहमति दी थी. इसके लिए इन तीनों अकादमियों को 4-4 करोड़ रुपए भी दिए गए. इन अकादमियों में उन शिक्षण संस्थाओं के शिक्षकों को अपडेट किया जाता था जहां पर उर्दू पहली, दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है. इनमें मदरसों के शिक्षक भी शामिल थे. एएमयू की उर्दू अकादमी के पूर्व निदेशक डॉ. राहत अबरार कहते हैं, "मैं 2016 से चार साल तक एएमयू की उर्दू अकादमी का निदेशक रहा. इस दौरान एक बार भी उर्दू अकादमी को बजट नहीं मिला. बीते आठ साल से इसका बजट बंद है, जिससे यहां से संचालित होने वाले सभी कार्यक्रम भी बंद हैं." यही हालात जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली और मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में स्थापित उर्दू अकादमियों के भी हैं.

एएमयू में ही उर्दू विभाग के एडवांस स्टडी सेंटर के बंद होने से भी सरकार की मंशा पर सवाल खड़े हुए हैं. एएमयू के उर्दू विभाग में हो रहे शोध कार्यों को देखते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने 2013 में 'एडवांस स्टडी सेंटर' शुरू करने के लिए अनुदान दिया था. यह अनुदान पांच साल के लिए था जिसमें उर्दू के लिए 99 लाख रुपए और अरबी के लिए 90 लाख रुपए का प्रावधान किया गया. वर्ष 2018 में फिर अनुदान मिला जिसकी मियार्द 2023 तक थी. लेकिन अप्रैल 2023 में पांच साल के लिए जो अनुदान एएमयू का मिलना था, वह मिला ही नहीं. इससे एडवांस स्टडी सेंटर के जरिए उर्दू छात्रों के लिए होने वाली कार्यशाला, सेमिनार और विख्यात उर्दू लेखकों के व्याख्यान का आयोजन ठप हो गया. छात्रों के दबाव के बाद एएमयू प्रशासन ने उर्दू अकादमी और एडवांस स्टडी सेंटर के लिए बजट की व्यवस्था करने के लिए यूजीसी के दफ्तर पर दौड़-भाग शुरू की है. 

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार में उर्दू से भेदभाव के आरोपों ने 18 फरवरी को यूपी विधानमंडल के बजट सत्र के पहले दिन को हंगामेदार बना दिया. विवाद तब खड़ा हुआ जब विधानसभा अध्यक्ष सतीश महाना, जो विधानसभा, इसके गलियारों और दीर्घाओं को नया रूप देने और आधुनिक बनाने के अभियान में जुटे हैं, ने सदन की कार्यवाही के अंग्रेजी के अलावा चार क्षेत्रीय भाषाओं अवधी, ब्रज, बुंदेली और भोजपुरी में लाइव अनुवाद की पहल की. इसके तहत उत्तर प्रदेश विधानसभा ने सदस्यों के संबोधन का हिंदी में लाइव अनुवाद करने की सुविधा शुरू की, अगर वे सदन में अवधी, ब्रज, बुंदेली या भोजपुरी में बोलना पसंद करते हैं.

इसके अलावा, अगर सदस्य चार क्षेत्रीय बोलियों (अवधी, ब्रज, बुंदेली और भोजपुरी) में से किसी में दूसरों का संबोधन सुनना चाहते हैं, तो उन्हें अब अपनी संबंधित सीटों पर संबंधित चैनल का चयन करने की सुविधा है, ताकि वे अपने ईयर प्लग में लाइव अनुवाद सुन सकें. चूंकि सदन की आधिकारिक भाषा हिंदी है, इसलिए अंग्रेजी से किसी भी उद्धरण/शब्द का उपयोग करने वाले सदस्यों को उसका हिंदी अनुवाद प्रदान करने के लिए कहा जाता है. अब सदन में बोलियों में लाइव अनुवाद की भी सुविधा होगी. अनुवाद सुविधा के माध्यम से सदन में सुनने के लिए शुरू की गई भाषाएं अवधी, ब्रज, बुंदेली, भोजपुरी और अंग्रेजी हैं.

सदन में मौजूद समाजवादी पार्टी (सपा) विधायक और नेता प्रतिपक्ष माता प्रसाद पांडेय ने अनुवाद के लिए निर्धारित भाषाओं की सूची में उर्दू को छोड़कर अंग्रेजी को शामिल करने का तुरंत विरोध किया. पांडेय ने कहा, "मैं सदन में सदस्यों पर अंग्रेजी थोपे जाने का विरोध करता हूं. यह सुविधा उर्दू में क्यों नहीं हो सकती?" उन्होंने कहा, "समाजवादी पार्टी के सदस्यों ने अंग्रेजी के खिलाफ आंदोलन चलाया था और जेल भी गए थे. अंग्रेजी में सुविधा प्रदान करने के विधानसभा के फैसले का विरोध किया जाएगा. हम भाजपा सरकार को विधानसभा को उच्च वर्ग के लोगों का सदन नहीं बनने देंगे."

सदन के भीतर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच तीखी नोकझोंक के बीच मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा अध्यक्ष की पहल का आक्रामक ढंग से बचाव किया. उन्होंने समाजवादी पार्टी पर तीखा हमला बोला और कहा, "सपा अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ाएगी और जब सरकार आम जनता के बच्चों को बेहतर सुविधाएं देने की बात करती है, तो ये लोग उर्दू थोपने की वकालत करने लगते हैं." मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया कि सपा देश को कठमुल्लापन की ओर ले जाना चाहती है, जो कतई स्वीकार्य नहीं होगा.

इस बयान के बाद से आदित्यनाथ देश भर में विपक्षी नेताओं के निशाने पर आ गए. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा, "यह पहली सरकार है जो उर्दू का विरोध उर्दू में कर रही है. मुख्यमंत्री जी ने कई बार उर्दू के शब्द बोले. बदनाम, बख्शा नहीं जाएगा, पैदा, गुनहगार, मौत, पायदान, सरकार. क्या ये उर्दू शब्द नहीं हैं." योगी सरकार पर उर्दू भाषा के साथ भेदभाव बरतने का आरोप लगाकर सपा सदन के बाहर भी इस मुद्दे को ले जाने की तैयारी कर रही है.

माता प्रसाद पांडेय बताते हैं, "बजट सत्र की समाप्ति के बाद हम विधानसभा में अंग्रेजी को बाहर करने और उर्दू को अनुवाद भाषा के तौर पर शामिल करने के लिए जन समर्थन जुटाने का प्रयास करेंगे. इसे आगे बढ़ाना इसलिए जरूरी है क्योंकि हमारे नेताओं ने इसके लिए लड़ाई लड़ी थी. अगर यूपी ऐसा नहीं करेगा तो कौन करेगा? उर्दू का इस्तेमाल सुनिश्चित करने के लिए हमारी कोशिशें जारी रहेंगी."

राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि उर्दू के मुद्दे को तूल देकर राजनीतिक दल अपने एजेंडे को साधने का हर संभव प्रयास करेंगे. शिब्ली नेशनल कॉलेज, आजमगढ़ के पूर्व प्रधानाचार्य डॉ. ग्यास असद खान कहते हैं, "भाजपा उर्दू को मुसलमानों की भाषा समझ कर अपने हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ा रही है. इसके जरिए हिंदू मुसलमानों के बीच ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने की कोशिश की जा रही है. साल 2027 के विधानसभा चुनाव तक इस तरह की रणनीति से विवादों को जन्म दिया जाए तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए."

उत्तर प्रदेश के उर्दू को अपनी दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाने के पैंतीस साल बाद, राज्य विधानसभा में मचे हंगामे ने भाषा की स्थिति पर विवादास्पद मुद्दे को पुनर्जीवित कर दिया है. सितंबर 1989 में कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने अविभाजित यूपी में 425 सदस्यों वाले सदन में भाजपा के 16 सदस्यों के विरोध के बीच उर्दू को दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा देते हुए उत्तर प्रदेश आधिकारिक भाषा (संशोधन) अधिनियम, 1989 पेश किया था. विधेयक में कहा गया था, "उर्दू भाषा और उर्दू बोलने वाले लोगों के हित में, उर्दू को समय-समय पर दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा."

अधिनियम के कार्यान्वयन से पहले मध्य यूपी के बदायूं में उर्दू समर्थक और विरोधी समूहों के बीच सांप्रदायिक दंगे हुए थे, जिसमें एक दर्जन लोगों की जान चली गई थी. भाजपा ने राम मंदिर आंदोलन के नाम पर हिंदू वोटों को लामबंद करना उसी समय शुरू कर दिया था जब उर्दू भाषा का विवाद गरमाया था. यहीं से भाजपा को राजनैतिक उड़ान भी मिली जब अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटें 16 से बढ़कर 57 हो गईं. यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां यूपी हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उर्दू भाषा को दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा प्रदान करने वाले कानून को चुनौती देते हुए याचिका दायर की.

इस मामले की सुनवाई पांच जजों की बेंच ने की, जिसने 2014 में सरकार के कानून को बरकरार रखते हुए याचिका खारिज कर दी. हालांकि इस कानून का क्रियान्वयन अधर में लटका रहा और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सपा सरकार ने राज्य और जिला अधिकारियों को सरकारी कामकाज में उर्दू को दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में इस्तेमाल करने का निर्देश दिया.

कुल मिलाकर, उर्दू का इस्तेमाल सरकार के कम से कम सात अलग-अलग कार्यों में किया जाना था, जिसमें उर्दू में याचिकाओं और आवेदनों को स्वीकार करना और उनका जवाब देना, पंजीकरण कार्यालयों में उर्दू में लिखे गए दस्तावेज स्वीकार करना, महत्वपूर्ण सरकारी नियमों, विनियमों और अधिसूचनाओं का उर्दू में प्रकाशन और सार्वजनिक महत्व के सरकारी आदेश और परिपत्र उर्दू में जारी करना शामिल है. डॉ. खान कहते हैं, "उर्दू की संवैधानिक वैधता है क्योंकि भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में उर्दू सहित 14 भाषाओं को परिभाषित किया गया है. साथ ही, वैज्ञानिक और मानवशास्त्रीय रूप से यह सिद्ध है कि उर्दू एक स्वदेशी भाषा है—जो भारत में विकसित हुई है."

लेकिन एक दशक बाद भी उर्दू राज्य की दूसरी आधिकारिक भाषा केवल कागजों पर ही है. फिलहाल, यह विभिन्न दलों के लिए राजनैतिक रोटी सेकने का जरिया बनी हुई है.

राजनीति का शिकार बनी उर्दू

> शाही की जगह अमृत अखाड़ा परिषद के संतों के अनुरोध पर प्रयागराज महाकुंभ में योगी सरकार ने उर्दू और फारसी शब्दों के प्रयोग में बदलाव किया था. कुंभ में प्रमुख स्नान तिथियों में अखाड़ों के साधु-संत संगम में स्नान करते हैं जिसे 'शाही स्नान' कहा जाता था. इस बार महाकुंभ में उर्दू शब्द 'शाही' की जगह 'अमृत' शब्द का प्रयोग किया गया. इस तरह 'शाही स्नान' को वर्ष 2025 के महाकुंभ में 'अमृत स्नान' कहा गया. 

> नई पाठ्य पुस्तक बेसिक शिक्षा परिषद के स्कूलों में कक्षा एक एवं दो के उर्दू माध्यम और मदरसों की पुस्तकों में बड़ा बदलाव किया गया है. उर्दू सिखाने के लिए परिषदीय विद्यालयों में उर्दू माध्यम के कक्षा एक और मदरसों में पढ़ाई जा रही 'उर्दू जबान' पुस्तक बंद कर दी गई है. इसके स्थान पर 'शहनाई' पुस्तक शामिल की गई है. यह उर्दू विषय की पुस्तक है. इस बदलाव के कारण नई पुस्तकों के छपने में काफी विलंब हुआ था. 

> बीयूएमएस में अनिवार्यता खत्म प्रदेश के यूनानी मेडिकल कॉलेजों में बीयूएमएस पाठ्यक्रम में प्रवेश के वक्त उर्दू की अनिवार्यता खत्म कर दी गई है. बीयूएमएस पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने वाले छात्र ने अगर विषय के रूप में उर्दू, अरबी या फारसी विषय की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं की है तो उसे पढ़ाई के पहले सेमेस्टर में अरबी, मंतिक व फलसफा (लॉजिक एंड फिलॉसफी) के साथ उर्दू भाषा का भी अध्ययन करना होगा. 

> शिक्षकों की भर्ती सपा सरकार ने विधानसभा चुनाव से ठीक पहले दिसंबर 2016 में उर्दू के 4,000 सहायक अध्यापकों की भर्ती प्रक्रिया शुरू की थी. नई सरकार के गठन के बाद 22-23 मार्च 2017 को प्रदेश भर में उर्दू शिक्षक भर्ती के लिए काउंसिलिंग की गई थी. 23 मार्च, 2017 को ही योगी सरकार ने उर्दू विषय के सहायक अध्यापकों की भर्ती प्रक्रिया पर रोक लगा दी. करीब डेढ़ साल बाद अक्तूबर 2018 को यह पूरी प्रक्रिया निरस्त कर दी गई. 

> रामपुर का गेट सपा नेता और पूर्व नगर विकास व अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री आजम खान ने अपने गृह जिले रामपुर में स्वार मार्ग पर 2016 में आलीशान उर्दू गेट का निर्माण कराया था. जल निगम की कार्यदायी संस्था कंस्ट्रक्शन ऐंड डिजाइन सर्विसेज ने 40 लाख रुपए की लागत से उर्दू गेट का निर्माण कराया था. 2019 में रामपुर प्रशासन ने अवैध रूप से निर्मित होने के कारण उर्दू गेट को बुलडोजर से ढहा दिया था.

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