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तमिलनाडु : कई विधेयकों को मंजूरी न देकर सवालों में कैसे घिरे राज्यपाल?

इन मुद्दों पर शीर्ष कोर्ट के फैसले से राज्यपाल के विवेकाधिकारों की सीमाएं स्पष्ट होने की उम्मीद है. इसका केंद्र-राज्य संबंधों और राज्यपालों की भूमिका पर दूरगामी असर पड़ सकता है

राहें अलग-अलग तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन और राज्यपाल आर.एन. रवि 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस समारोह के दौरान
अपडेटेड 4 मार्च , 2025

तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि और द्रमुक की अगुआई वाली राज्य सरकार के बीच टकराव काफी आगे बढ़ गया है. सुप्रीम कोर्ट ने 12 लंबित विधेयकों को मंजूरी के मामले में राज्यपाल से कई सवाल पूछे हैं.

अदालत ने 7 फरवरी को पूछा कि क्या राज्यपाल विधानसभा में पारित विधेयकों को इस राय के तहत रोके रख सकते हैं कि ये 'संविधान के प्रतिकूल' हैं, और विधानमंडल को अपनी राय नहीं बता सकते.

राज्य का कोई प्रस्तावित कानून किसी मौजूदा केंद्रीय कानून के असंगत या उसका अतिक्रमण कर रहा हो, तो वह संविधान के अनुच्छेद 254 के तहत 'प्रतिकूल' हो सकता है.

मंजूरी के लिए लटके 12 विधेयकों में ज्यादातर राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्तियों से संबंधित हैं. ये विधेयक विधानसभा से जनवरी 2020 और अप्रैल 2023 के बीच रवि के पास मंजूरी के लिए भेजे गए थे. उन्हें लंबे समय तक लटकाए रखा गया, तो राज्य सरकार ने नवंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया.

उसके बाद राज्यपाल ने दो विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया और बाकी 10 पर मंजूरी रोक ली. अनुच्छेद 200 के तहत विधेयक पेश किए जाते हैं तो राज्यपाल उन्हें मंजूरी दे सकता है, या मंजूरी रोक सकता है या फिर विधेयकों को राष्ट्रपति को विचार के लिए भेज सकता है.

अनुच्छेद 200 के पहले प्रावधान के तहत अगर मंजूरी रोक दी जाती है तो राज्यपाल को विधेयक को पुनर्विचार या संशोधन के 'संदेश' के साथ विधानसभा में वापस भेजना चाहिए. अहम बात यह है कि अगर विधानसभा संशोधित या बिल्कुल वही विधेयक राज्यपाल के पास दोबारा भेज देती है तो वे उसे रोक नहीं सकते और मंजूरी देने को बाध्य हैं.

यही तमिलनाडु विधानसभा ने किया. कुछ ही दिनों में एक विशेष सत्र में 10 रोके गए विधेयकों को नए सिरे से पारित किया गया और उन्हें राज्यपाल के पास (अनिवार्य) मंजूरी के लिए भेज दिया गया. फिर रवि ने सभी 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया. राष्ट्रपति ने एक विधेयक को स्वीकृति दी, सात को खारिज कर दिया और दो विधेयकों पर विचार नहीं किया. यह गजब का गतिरोध अब सुप्रीम कोर्ट के सामने है.

मामला सर्वोच्च अदालत में पहुंचा तो तमिलनाडु के वकील पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने दावा किया कि राज्य सरकार ने पहले प्रावधान के अनुसार काम किया और उम्मीद है कि राज्यपाल विधेयकों को मंजूरी देंगे. उन्होंने दलील दी कि राज्यपाल अनुच्छेद 254 के तहत कथित 'अप्रिय' होने पर ही विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं. राज्यपाल की ओर से अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने दलील दी कि राज्यपाल की मंजूरी की जरूरत वाले सभी विधेयकों पर विचार किया गया है और फिलहाल कोई भी विधेयक मंजूरी के लिए लंबित नहीं है.

राज्य सरकार की दलील से संकेत लेकर न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने राज्यपाल से तीखे सवाल पूछे, ''राज्यपाल को अगर पहली नजर में लगता है कि विधेयकों में असंगति है, तो क्या उन्हें इसे राज्य सरकार के ध्यान में नहीं लाना चाहिए? सरकार से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह यह जान सके कि राज्यपाल के मन में क्या है?

अगर असंगति से राज्यपाल को दिक्कत लगती है, तो उन्हें फौरन सरकार के ध्यान में लाना चाहिए था और विधानसभा को विधेयकों पर पुनर्विचार करना चाहिए था.'' पीठ ने टिप्पणी की कि रवि ने विधेयकों को मंजूरी देने के लिए अपनी खुद की प्रक्रिया तैयार की है और यह संविधान के अनुच्छेद 200 के प्रावधानों के उलट है.

संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत शीर्ष अदालत में दायर रिट याचिका में तमिलनाडु सरकार ने दावा किया कि राज्यपाल ने खुद को 'राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी' बना लिया है. उसकी दलील यह है कि अनिश्चित काल तक सहमति न देने से विधायी अधिकार कमजोर हो जाता है. उसने मिसाल दी कि पंजाब राज्य बनाम पंजाब के राज्यपाल के प्रमुख सचिव (2023) के केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान में विधेयकों पर स्थायी वीटो का प्रावधान नहीं है.

विशेषज्ञों के अनुसार, संवैधानिक प्रावधान के मुताबिक, राज्यपाल सिर्फ 'मुख्यमंत्री के अधीन मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह' के तहत काम करेंगे, लेकिन विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपालों का दुरुपयोग दशकों पहले से होता आया है. राजनैतिक टिप्पणीकार एन. सतिया मूर्ति कहते हैं, ''मौजूदा केंद्र सरकार राज्यपालों के जरिए विपक्ष शासित राज्यों पर दबाव बनाती है, लेकिन तमिलनाडु के रवि जैसे राज्यपाल संवैधानिक सीमाओं को इस हद तक खींच लेते हैं कि प्रशासन के हर पहलू में नए मोड़ आ रहे हैं, जहां राजभवन की बात सुनी जा सकती है.''

इसकी एक मिसाल सरकारी वित्तपोषित विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल की भूमिका है. रवि ने तमिलनाडु में राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को नियुक्त करने वाले विधेयकों को मंजूरी देने से इनकार कर दिया है. दरअसल, उन्होंने कुलपतियों के चयन के पैनल के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के प्रतिनिधियों को नियुक्त किया है. यह राज्यपाल कुलाधिपति के नाते करते हैं. हालांकि कुलाधिपति के रूप में उनके बने रहने का बड़ा मामला कोर्ट में विचाराधीन है.

गुजरात जैसे कुछ राज्यों में संशोधित कानूनों से चांसलर मुख्यमंत्री होता है. इस प्रकार, विशेषज्ञों के मुताबिक, राज्यपाल या यहां तक कि राष्ट्रपति अगर दूसरे राज्यों में ऐसे विधेयकों को मंजूरी देने से इनकार करते हैं तो उसे नाजायज और राजनीति से प्रेरित माना जा सकता है. मूर्ति कहते हैं, ''राजनैतिक लड़ाई के लिए संवैधानिक प्रावधानों को ढाल बनाया जा रहा है.''

विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर मंजूरी में देरी करना या अनिश्चित काल तक बैठे रहना कथित तौर पर कई गैर-भाजपा शासित राज्यों में राज्यपालों की पसंदीदा रणनीति रही है. पंजाब, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल के कुछ ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा है और राज्यपालों से निर्णय लेने की प्रक्रिया में तेजी लाने का आग्रह किया गया है. 

केरल ने 6 फरवरी को अपनी रिट याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में शीघ्र सुनवाई पर जोर दिया. उसने कहा कि विपक्ष शासित राज्यों के राज्यपालों ने विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर मंजूरी में विलंब की रणनीति अपनाई है. इन मुद्दों पर शीर्ष कोर्ट के फैसले से राज्यपाल के विवेकाधिकारों की सीमाएं स्पष्ट होने की उम्मीद है. इसका केंद्र-राज्य संबंधों और राज्यपालों की भूमिका पर दूरगामी असर पड़ सकता है.

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