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अल्फांसो असली है या नकली? पहचानने की व्यवस्था व्यापारियों ने कर दी!

कुछ धोखेबाज व्यापारी कोंकण में पैदा होने वाले प्रसिद्ध अल्फांसो आम का नाम खराब कर रहे हैं, जिससे इसके उत्पादकों को अपने आम पर एक विशिष्ट पहचान अंकित करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है

मुंबई के खुदरा बाजार में ग्राहकों का इंतजार करते अल्फांसो
मुंबई के खुदरा बाजार में ग्राहकों का इंतजार करते अल्फांसो
अपडेटेड 10 मार्च , 2025

आम फलों का राजा है, तो अल्फांसो इन राजाओं का भी राजा है. आम की इस किस्म के पौधे को 16वीं सदी में जेसुइट मिशनरियों ने रोपा था और इसका नाम पुर्तगाली जनरल अफांसो डी अल्बुकर्क के नाम पर पड़ा बताया जाता है. वहां से यह घूमता हुआ कोंकण पहुंचा और गोवा में 'अफूस’ और महाराष्ट्र में 'हापुस’ कहा जाने लगा.

वह शाही दर्जा अब खतरे से घिरता मालूम देता है. खतरा ढोंगी या झूठे दावेदारों के जत्थे से पैदा हुआ है जो उस ताज पर दावा ठोक रहे हैं जिस पर महाराष्ट्र की कोंकण तटरेखा पर उगाई जाने वाली इस किस्म का जायज हक है. लतीफा यह है कि आज बाजार में बिक रहे अल्फांसो की तादाद महाराष्ट्र की कोंकण तटरेखा पर उगाए जाने वाले अल्फांसो से कई गुना ज्यादा है.

सच्चे पारखी को तो आप शायद बेवकूफ न बना पाएं. वह अपने अल्फांसो को उसके पतले छिलके, खास खुशबू और मोटे रेशेहीन गूदे से पहचानता है. लेकिन इस फल के आम आशिक के साथ ऐसा नहीं है. वह तो शायद हापुस और दूसरे राज्यों यानी गुजरात के वलसाड, कर्नाटक के धारवाड़ या अफ्रीका के मलावी तक से आने वाले अल्फांसो के नकलचियों के बीच फर्क न कर पाए.

राज्य सरकार से सेवानिवृत्त कर्मचारी 60 वर्षीय प्रमोद मानकोजी वलंज के पास सिंधुदुर्ग जिले के देवगढ़ तालुका के वाडा में तीन एकड़ जमीन पर आम के 362 पेड़ हैं. वे कहते हैं कि दूसरी जगहों पर उगाए गए लेकिन देवगढ़ किस्म के नाम से गलत ब्रांड किए गए आमों यानी सस्ती कीमत के फलों को प्रीमियम अल्फांसो के साथ मिला दिया जाता है, जिससे उनकी कीमत और प्रतिष्ठा पर असर पड़ रहा है.

असल और मूल अल्फांसों के लिए 1,200-2,000 रुपए चुकाने के बजाए खरीदार 600-700 रुपए में अल्फांसों के ढोंगी बहुरूपिए आम खरीद लेंगे. वलंज कहते हैं, "मुझे खरीदारों को यकीन दिलाना पड़ता है कि मेरे आम असली और प्रामाणिक हैं." यही वजह है कि कोंकण के अल्फांसो उगाने वाले किसान अपनी प्रख्यात और प्रतिष्ठित उपज को अल्फांसो का नकली भेष धरकर आ रहे आमों से बचाने के लिए अब टेक्नोलॉजी—टेंपर-प्रूफ यानी छेड़छाड़-रोधी स्टिकर से लेकर क्यूआर कोड तक—का सहारा ले रहे हैं.

अल्फांसो के देश में

जियोग्राफिकल इंडिकेशन रजिस्ट्री ने 2018 में अल्फांसो को जीआइ के दर्जे से नवाजा. यह अहम कदम था, क्योंकि आखिर यह अल्फांसो की खेती और पर्यटन ही है जिसने कोंकण की उस मनीऑर्डर इकोनॉमी को बदलकर रख दिया जिसमें लोग मुंबई और उसके आसपास ब्लू-कॉलर जॉब यानी मेहनत-मजदूरी के काम करते और पैसा घर भेजते थे.

अल्फांसो के महाराष्ट्र के पांच जिलों—सिंधुदुर्ग, रत्नागिरि, रायगढ़, ठाणे और पालघर—में 1.26 लाख हेक्टेयर जमीन पर उगाए जाने का अनुमान है. इसमें से 14,920 हेक्टेयर देवगढ़ में है जहां हर साल करीब 50,000 टन अल्फांसो उगाए जाते हैं. फल तीन चरणों में पेड़ से उतारे जाते हैं—फरवरी के अंत से मध्य मार्च, मध्य मार्च से मध्य अप्रैल, और मध्य अप्रैल से मई.

देवगढ़ के किसान अब अलग जीआइ रजिस्ट्री के लिए हल्ला मचा रहे हैं. पूर्व विधायक और देवगढ़ तालुका आंबा उत्पादक सहकारी संस्था के अध्यक्ष अजित गोगटे कहते हैं, "दूसरे हिस्सों के आम बरसों से देवगढ़ के आम बताकर बेचे जाते रहे हैं, लेकिन हमारे आम की अलग और खास क्वालिटी और स्वाद है." अपनी किताब में पत्रकार सोपान जोशी कहते हैं कि अल्फांसो का विशिष्ट स्वाद उसके भूगोल की देन है, जो कोंकण की समृद्ध और लेटराइट या मखरैला मिट्टी से निकलता है.

देवगढ़ आम उत्पादक संघ के बोर्ड के सदस्य और सलाहकार ओंकार सप्रे का कहना है कि नकली हापुस आमों का असर देवगढ़ आम के ब्रांड पर पड़ रहा है और नुक्सान किसानों को उठाना पड़ रहा है. वे दावा करते हैं, "युवा पीढ़ी दूसरी जगहों पर पलायन करने को मजबूर है." जीआइ रजिस्ट्री ने देवगढ़ तालुका आंबा उत्पादक सहकारी संस्था के साथ अनुसंधान निदेशक, बालासाहब सावंत कोंकण कृषि विद्यापीठ, कोंकण हापुस आंबा उत्पादक आणि उत्पादक विक्रेते सहकारी संस्था और केलशी परिसर आंबा उत्पादक सहकारी संघ को पंजीकृत मालिक का दर्जा दिया है.

देवगढ़ का पैंतरा

इस सीजन से देवगढ़ के आम एक विशिष्ट टेंपर-प्रूफ यानी छेड़छाड़-रोधी स्टिकर के साथ आएंगे, जिसके भीतर एक कोड होगा. इसी काम के लिए एक व्हाट्सऐप नंबर बनाया गया है जिसके जरिए उपभोक्ता यह तस्दीक कर पाएंगे कि वे आम देवगढ़ का हैं या नहीं, उसे उगाने वाला किसान कौन है और आम का वह बगीचा कहां है जहां यह उगाया गया है.

गोगटे का कहना है कि इस स्टिकर के जरिए उपभोक्ताओं को असली और प्रामाणिक फल मिल पाएंगे और देवगढ़ के बागान मालिकों को अच्छी कीमत मिल सकेगी. पहले साल संस्था बिक्री के लिए भेजे जाने वाले एक करोड़ आमों को शामिल करने का मंसूबा बना रही है. वह इसे धीरे-धीरे बढ़ाना चाहती है. गोगटे बताते हैं कि वे आम के किसानों से संस्था में पंजीकरण करवाकर स्टिकर हासिल करने के लिए कह रहे हैं. अब तक देवगढ़ के अल्फांसो उगाने वाले 5,000 किसानों में से करीब 750 साथ आ गए हैं.

स्टिकर सन सॉल्यूशंस ने विकसित किया है. इसके मैनेजिंग डायरेक्टर प्रशांत यादव का कहना है कि इसमें डेटा न केवल एन्क्रिप्टेड है बल्कि इसे पढ़ना भी आसान है. खरीदार को बस आम पर लगा यह स्टिकर फाड़कर हटाना होगा, जिसमें नौ खुले अंक हैं, और तस्वीर निर्धारित व्हाट्सऐप नंबर पर भेजनी होगी. फिर उन्हें स्टिकर के पीछे दो छिपे हुए अंकों के बारे में बताने के लिए कहा जाएगा. इसके बाद उन्हें उत्पाद के असली होने या नहीं होने, किसान का नाम और बगीचे की जगह के ब्योरे भेज दिए जाएंगे.

ये ब्योरे डेटाबेस में स्टिकरों के साथ डाले गए होंगे. तादाद के हिसाब से 1.5 रुपए और 2 रुपए कीमत के ये स्टिकर हर फल पर चिपके होंगे और एक ही बार इस्तेमाल किए जा सकेंगे. सप्रे बताते हैं, "पेटेंट की गई टेक्नोलॉजी पर आधारित सिंगल-यूज स्टिकर हमने डिब्बे के बजाए अलग-अलग फलों पर चिपकाने का फैसला किया ताकि किसी भी तरह की छेड़छाड़ को रोका जा सके."

अल्फांसो उगाने वाले कोंकण के दूसरे हिस्सों के किसान भी ब्रांड की हिफाजत के तरीकों पर विचार कर रहे हैं. कोंकण हापुस आंबा उत्पादक आणि उत्पादक विक्रेते सहकारी संस्था, रत्नागिरि, के अध्यक्ष डॉ. विवेक भिडे कहते हैं, "अल्फांसो के मामले में मिलावट वाकई एक समस्या है. अल्फांसो की एक निश्चित अहमियत और करिश्मा है जो दूसरे राज्यों के आमों में नहीं है. यह मिलावट कोंकण के अल्फांसों के ब्रांड मूल्य पर असर डालती है और किसानों को अच्छी कीमत नहीं मिलने देती."

वे बताते हैं कि ताजे खाए जाने वाले फलों पर गलत लेबल लगाने के अलावा दूसरे इलाकों के कम महंगे आमों को भी अल्फांसों के गूदे के साथ मिलाकर ऐसे उत्पाद बनाए जाते हैं जिन्हें सस्ता बेचा जा सके. इसका असर कोंकण के आम के गूदा उत्पादकों पर पड़ता है. भिडे की सोसाइटी पिछले साल से किसानों से यह आग्रह कर रही है कि वे फलों या डिब्बे पर क्यूआर कोड का इस्तेमाल करें ताकि उपभोक्ताओं को उसे उगाने वाले किसान, बगीचे की जगह और तोड़ने की तारीख का पता चल सके. मगर फल तोड़ने से लेकर उसे बाजार में पहुंचाने तक लगने वाला समय कम होने की वजह से किसान इस टेक्नोलॉजी को अपनाने में सुस्त रहे हैं.

लौहकवच में छिपी पहचान

अल्फांसो उगाने वाले किसान सरकार से भी खुश नहीं है. वे अपनी मौजूदा बदहाली के लिए जीआइ व्यवस्था लागू करने में उसकी ढिलाई को जिम्मेदार ठहराते हैं. भिडे कहते हैं, "सरकार ने अपनी भूमिका जीआइ प्रमाणन जारी करने तक समेट रखी है. जीआइ व्यवस्था को ताकत देने और लागू करने, जीआइ उत्पादों को बढ़ावा देने, उन्हें उन्नत बनाने और उल्लंघनों पर नकेल कसने के लिए उसने कम ही कुछ किया है." पुणे के देसाई बंधु आंबेवाले के मंदर देसाई भी ऐसा ही सोचते हैं.

उनका कहना है कि जीआइ व्यवस्था को लागू करना और उल्लंघनों की जांच करके उन्हें रोकना और स्टिकरों के इस्तेमाल को बढ़ावा नहीं देना प्राथमिकता होनी चाहिए. इस कारोबार में अपने परिवार की चौथी पीढ़ी की नुमाइंदगी कर रहे और रत्नागिरि के पावस में 400 से ज्यादा एकड़ पर आम के बागानों के मालिक देसाई दरअसल देवगढ़ के किसानों की तरफ से अपने अल्फांसो के लिए अलग पहचान की मांग के खिलाफ हैं. उनका कहना है कि देवगढ़ और रत्नागिरि के आमों में कम ही अंतर है.

अलबत्ता, समुदाय की भावना कुल मिलाकर जीआइ मानदंडों को लागू करने के पक्ष में है. डॉ. बालासाहेब सावंत कोंकण कृषि विद्यापीठ, दापोली, रत्नागिरि के कृषि महाविद्यालय में बागवानी विभाग के सहायक प्रोफेसर महेश एम. कुलकर्णी का कहना है कि ऐसा उपभोक्ताओं के भी पक्ष में होगा. वे जोर देकर कहते हैं, "उपभोक्ता को जागरूक करना जरूरी है. वे (अल्फांसो के) जायके के लिए पैसा देते हैं और इसलिए उन्हें असली उत्पाद मिलने ही चाहिए."

ग्रेट मिशन ग्रुप सोसाइटी के संस्थापक और अध्यक्ष और बौद्धिक संपदा (आइपी) के उत्साही हिमायती वकील गणेश हिंगमिरे का कहना है कि ऐसी पहलकदमियों से नकली उत्पादों को हटाकर जीआइ टैग पाने का मकसद पूरा होगा और किसानों व उपभोक्ताओं दोनों के हितों की रक्षा होगी. यह सभी के लिए फायदे का सौदा होगा.

संक्षिप्त इतिहास

●आम की इस किस्म को अपना नाम पुर्तगाली जनरल अफांसो डी अल्बुकर्क से मिला बताया जाता है. जेसुइट मिशनरियों ने 16वीं सदी में इसकी कलम रोपी, जल्द ही यह घूमता हुआ कोंकण पहुंच गया.

●अल्फांसो का छिलका पतला, खुशबू अलग और खास, और गूदा रेशेहीन होता है. इसका अनूठा स्वाद इलाके की खनिजों से भरपूर लाल मखरैला मिट्टी से आता है.

●अल्फांसो के अलावा 14 अन्य किस्मों को भी जीआइ टैग दिया गया है—मराठवाड़ा केसर (महाराष्ट्र), मनकुराद (गोवा), बंगानपल्ले (तेलंगाना और आंध्र प्रदेश), मालदा लक्ष्मण भोग, खिरसापटी और फाजिल (पश्चिम बंगाल), कुट्टियाटूर (केरल), गिर केसर (गुजरात), रीवा सुंदरजा (मध्य प्रदेश), करी ईशद और अप्पेमिडी (कर्नाटक), बनारस लंगड़ा, रटौल और मलीहाबादी दशहरी (उत्तर प्रदेश).

खास पहचान

● इस सीजन में देवगढ़ के आम एक छेड़छाड़-रहित स्टिकर के साथ आएंगे. 
● खरीदारों को स्टिकर हटाकर, नौ खुले अंकों की तस्वीर लेकर एक विशेष व्हाट्सऐप नंबर पर भेजनी होगी. 
● इसके बाद उन्हें स्टिकर के पीछे छिपे दो अंकों को दर्ज करने के लिए कहा जाएगा. 
● इसके बाद उन्हें बताया जाएगा कि आम असली है या नहीं, साथ ही उत्पादक का नाम और वह बाग जहां से यह आया है.

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