
हर साल की तरह इस साल भी 15 अगस्त को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पटना के लखनी बिगहा महादलित टोले में झंडा फहराने के कार्यक्रम में पहुंचे थे. वे 2011 से ही हर स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर पटना जिले के किसी महादलित टोले में जाते हैं. लखनी बिगहा में झंडोत्तोलन के बाद उनके हाथों 164 महादलितों को आवास योजना से लेकर आयुष्मान भारत कार्ड जैसी सरकारी योजना के लाभ का प्रमाणपत्र दिया गया. मगर इनमें सबसे वंचित मानी-जाने वाली मुसहर-भुइयां जाति का एक भी व्यक्ति नहीं था. लगभग सभी लाभार्थी उस रविदास जाति के थे, जिन्हें विकसित मानकर शुरुआती दिनों में महादलित समूह से बाहर रखा गया था.
इस बात को लेकर लखनी बिगहा के 27 घरों वाले मांझी टोले में उबाल था. बीस-बाइस साल का जामुन मांझी बोल पड़ा, "मांझी-मुसहर को कौन पूछता है? आए थे तो यहां आकर भी देखते, कैसे रहते हैं हमलोग? घर इतना टूट-फाट गया है कि रोज छत से पत्थल गिरता है. डर से घर में सोने का हिम्मत नहीं होता. लेकिन मांझी टोला में एक ठो इंदरा-वास (इंदिरा आवास) नहीं बंटा." बुजुर्ग उमिया देवी कहने लगीं, "देख लीजिए, 30 साल पहले घर मिला था. छत गिर रहा है, कैसे यहां सोएं?" दूसरी औरतें भी अपना-अपना घर दिखाने लगीं. सभी घरों का एक जैसा हाल था.
लखनी बिगहा के विकास मित्र लालजी कुमार, जिन्हें सरकार ने इस पंचायत में महादलितों के विकास के लिए तैनात किया है, कहते हैं, "यह सच है कि इस बार किसी मांझी परिवार को योजना का लाभ नहीं मिला, जबकि सबसे अधिक दिक्कत इन्हीं लोगों को है. लालूजी के समय जो इंदिरा आवास इन्हें मिला था, वह रहने लायक नहीं रहा. इनको किसी और योजना का लाभ नहीं मिल पाता, क्योंकि इनके जरूरी कागज तक नहीं बने हैं. कई लोगों का तो आधार भी नहीं बना है."
ऐन आजादी वाले दिन लखनी बिगहा के मांझी टोला की हालत को देखते हुए हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट की ओर से एससी-एसटी आरक्षण को लेकर किए गए फैसले की याद आ गई, साथ भी 2007 में बिहार में बने महादलित आयोग की भी याद ताजा हो गई, जिसकी एक रिपोर्ट में लिखा था: "दलितों में कुछ विशेष जातियां जैसे चमार (मोची, रविदास), दुसाध (पासवान), धोबी, पासी (चौधरी) की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, रोजगार और शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है. मगर मुसहर, भुइयां, मेहतर, डोम, नट जैसी जातियां शिक्षा और जागरूकता के अभाव में न सरकारी योजनाओं का ठीक से लाभ ले पाती हैं, न आरक्षण का. इसलिए बिहार की चार अपेक्षाकृत सशक्त जाति चमार, दुसाध, धोबी और पासी को छोड़कर शेष 18 दलित जातियों को महादलित श्रेणी में रखा जाए... हो सके तो उनके लिए अलग से आरक्षण की श्रेणी बनाई जाए."
यह पहले महादलित आयोग के सदस्यों की ओर से तैयार और 2008 में पेश रिपोर्ट के प्रस्ताव का हिस्सा है. इस प्रस्ताव की भाषा और हाल के दिनों में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री जीतनराम मांझी के बयानों को देखें तो कई बातें मिलती-जुलती लगेंगी. वे कहते हैं, "शेड्यूल्ड कास्ट में बिहार में 22 जातियां हैं, इन 22 जातियों में चार जातियां 'डेवलप्ड फोर’ कही जाती हैं, डी-4. उनके अलावा 18 जातियां यहां हैं, जिनकी साक्षरता दर 20 प्रतिशत से नीचे है. हम लोगों की मांग है, इनका अलग वर्गीकरण कर दिया जाए, जिसका सुझाव सुप्रीम कोर्ट ने भी दिया है. बिहार सरकार चाहे तो इन लोगों का वर्गीकरण कर दे. डी-4 के लोग तो 76 साल से गुलछर्रा उड़ा रहे हैं और हमारे लोग थूक से सतुआ सान कर खा रहे हैं. हम लोग तो यही मांग कर रहे हैं कि हमको अलग कर दीजिए." हालांकि बाद में मांझी ने यह साफ किया कि वे सुप्रीम कोर्ट के एससी आरक्षण में क्रीमी लेयर के प्रावधान के पक्ष में नहीं हैं. वे बस उप-वर्गीकरण के पक्षधर हैं.
वैसे, बिहार सरकार ने 2007 में ही दलितों के बीच उप-वर्गीकरण कर एक अलग महादलित श्रेणी बना दी थी. इसमें दुसाध, रविदास, पासी और धोबी को छोड़कर सभी 18 दलित जातियों को शामिल किया गया था. 15 अगस्त, 2007 के ही दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महादलितों के लिए एक अलग आयोग बनाने की घोषणा की थी. 21 सितंबर, 2007 को इस आयोग का गठन हो गया और मुसहर जाति के विश्वनाथ ऋषि इसके पहले अध्यक्ष बने. उस आयोग के तीन सदस्यों में से एक बबन रावत बताते हैं, "तब हमने पूरे राज्य में घूम-घूमकर महादलितों के टोलों का अध्ययन किया और सरकार को एक रिपोर्ट पेश की थी."

वे उस रिपोर्ट की प्रति दिखाते हुए बताते हैं, "हमने सभी महादलितों को बीपीएल मानने, उनके आवास के लिए 10-15 डिसमिल जमीन और इंदिरा आवास देने, ऊंची पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप और रोजगार के लिए प्रशिक्षण, स्थानीय निकाय चुनाव में सीटें आरक्षित करने, एक लाख से अधिक महादलितों वाली विधानसभा को आरक्षित करने और एससी आरक्षण में 50 फीसद कोटा अलग से दिये जाने की सिफारिश की थी."
उनकी सिफारिशों के आधार पर ही भूमिहीन महादलितों के बीच जमीन और इंदिरा आवास वितरित करने की योजना बनी, उन्हें रोजगारपरक ट्रेनिंग देने के लिए दशरथ मांझी कौशल विकास योजना बनी, महादलित परिवारों को जागरूक करने के लिए घर-घर रेडियो बांटा गया. रावत बताते हैं, "महादलितों के लिए अलग से आरक्षण देना तो बिहार सरकार के बस की बात नहीं थी, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने तब इस पर रोक लगाया हुआ था. मगर महादलितों के विकास के लिए महादलित विकास मिशन का गठन किया गया जो आज भी कार्यरत है."
रावत 1995 से ही महादलितों के लिए आरक्षण की अलग श्रेणी बनाने और उनके विकास के लिए अलग से योजना बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. उनका दावा है कि 'महादलित’ शब्द उन्हीं का दिया हुआ है. वे पंजाब में ज्ञानी जैल सिंह के मुख्यमंत्रित्व में दलितों के आरक्षण के उप-वर्गीकरण से प्रभावित थे. वे दावा करते हैं कि उनकी ही अवधारणा को लेकर नीतीश कुमार ने 2007 में महादलित आयोग गठित किया.
मगर बिहार में महादलितों के विकास का जो सपना देखा गया था, वह ज्यादा दिन नहीं चल पाया. 2008 में धोबी और पासी जाति को महादलित समूह में शामिल किया गया. फिर 2009 में रविदास जाति इस समूह का हिस्सा बन गई. उसके बाद सिर्फ दुसाध जाति ही इस समूह से अलग रही. बाद में 2018 में जब रामविलास पासवान और नीतीश कुमार साथ आए तो दुसाध जाति को भी महादलित का दर्जा दे दिया गया. अब राज्य के सभी दलित महादलित हैं. 2007 का उप-वर्गीकरण पूरी तरह खत्म हो गया है.
लेकिन ऐसा क्यों हुआ? इसकी कहानी लेखक-राजनेता प्रेम कुमार मणि बताते हैं, "2004 लोकसभा चुनाव में हार के बाद नीतीश कुमार मेरे घर आए थे. वे थोड़े निराश थे और 2005 विधानसभा चुनाव के लिए कोई बढ़िया मुद्दा तलाश रहे थे. उस वक्त मैं अपने मित्रों के साथ 'बिहार परिवर्तन मोर्चा’ नामक संगठन बनाकर सामाजिक बदलाव का काम कर रहा था. हमारा मानना था कि सामाजिक विकास कुछ जातियों के बीच ही ठिठक गया है. जिस तरह कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ा वर्ग में अति पिछड़ों के लिए अलग से उप-वर्गीकरण किया था, दलितों और मुसलमानों में भी ऐसे ही वर्गीकरण की जरूरत है."

मणि बताते हैं, "हमारा विचार उन्हें पसंद आया और उन्होंने अति पिछड़ों, पसमांदा मुसलमानों और वंचित दलितों के सवालों को मजबूती से उठाना शुरू किया." वे कहते हैं कि खासकर अक्टूबर, 2005 के चुनाव में वे अपने साथ अति पिछड़ा नेता उदयकांत चौधरी, पसमांदा अली अनवर और बबन रावत जैसे महादलित नेताओं को साथ लेकर घूमते थे, जिसका बड़ा असर हुआ. दलितों के लिए महादलित आयोग की स्थापना की. मणि कहते हैं, "मगर बाद में वे इन मामलों को लेकर राजनीति करने लगे."
मणि कहते हैं, "चूंकि बिहार में दुसाध और रविदास की संख्या दलितों में लगभग 30-30 फीसद हैं. नीतीश ने सोचा दुसाधों पर रामविलास का असर है, रविदास मायावती के असर में हैं. अगर हम धोबी और पासी को मिला लेते हैं तो 40 परसेंट हो जाएंगे. इसलिए शुरुआत में ही उन्होंने धोबी और पासी को महादलितों में शामिल कर लिया. 2009 के लोकसभा चुनाव में रामसुंदर दास इनके साथ आ गए और उन्होंने रामविलास पासवान को हाजीपुर में हरा दिया. इस वजह से उन्होंने रविदासों को महादलित वर्ग में शामिल कर लिया. इस तरह महादलित का मूल उद्देश्य खत्म हो गया."
अब तक राज्य महादलित आयोग के चार अध्यक्ष बने हैं. इनमें तीन मुसहर-भुइयां जाति के, चौथे और आखिरी संतोष निराला रविदास जाति के हैं. फरवरी, 2024 से महादलित आयोग भंग पड़ा हुआ है. इसी आयोग की सिफारिश पर महादलित विकास मिशन की स्थापना हुई थी, वर्तमान में इस मिशन के निदेशक गौतम पासवान हैं. वे बताते हैं, "फिलहाल इस मिशन का एक ही काम है, राज्यभर में फैले नौ हजार विकास मित्रों के जरिए महादलितों को सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाना." 2010 में महादलित विकास मिशन ने राज्य के हर पंचायत में संविदा पर विकास मित्र की बहाली की थी. इन्हें 25 हजार रुपए प्रति माह का मानदेय मिलता है.
इसी तरह महादलित बच्चों को पढ़ाने और स्कूल भेजने के लिए हर महादलित बस्ती में टोला सेवक बहाल किए गए. राज्य में अभी 28 हजार से ज्यादा टोला सेवक हैं. उन्हें अब शिक्षा सेवक कहा जाने लगा है और शिक्षा विभाग उनकी देखरेख करता है. कई टोला सेवक स्कूलों में पढ़ाने लगे हैं. उन्हें 22 हजार रुपए प्रति माह मानदेय मिलता है.
रावत कहते हैं, "जब तक टोला सेवकों की बहाली हो रही थी, रविदास महादलितों में शामिल नहीं थे, इसलिए टोला सेवकों में महादलितों की संख्या ठीक-ठाक है. विकास मित्र की बहाली के वक्त रविदास शामिल हो गए थे, इसलिए विकास मित्रों में रविदास जाति के लोगों की संख्या अधिक है."
लिहाजा, इन जातियों को महादलित आयोग और महादलित विकास मिशन का इतना ही लाभ मिला कि कुछ लोग टोला सेवक बन गए, कुछ लोगों को जमीन और आवास मिल गया. मगर हैरत की बात है कि बिहार में महादलितों के सबसे बड़े नेता जीतनराम मांझी के गांव गया के महकार में उनके अपने ही परिजन आज तक भूमिहीन हैं.
उनके गांव में रिश्ते में उनके नाती दुर्गेश मांझी मिलते हैं. वे कहते हैं, "गांव में भुइयां लोगों के 12-15 घर हैं, मगर ज्यादातर के पास न खेती की जमीन है, न रहने की. अपना पक्का मकान भी नहीं है." वहां के विकास मित्र उदय मांझी कहते हैं, "मैंने जीतनराम मांझी जी को यह सब बताया था. मगर वे क्या करेंगे? अपने गांव के बारे में कुछ कहने में उनको झिझक होती है."
महादलितों के सबसे बड़े आइकन दशरथ मांझी के गांव में भी जमीन और घर का संकट है. पहाड़ को तोड़कर रास्ता बनाने वाले दशरथ मांझी को उस दौर में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी कुर्सी पर बिठा कर सम्मानित किया था. मगर उनके गांव गया के गेहलौर में उनकी जाति के 250 से अधिक परिवार इंदिरा आवास की बाट जोह रहे हैं.
खुद दशरथ मांझी के पुत्र भागीरथ मांझी गांव के सामुदायिक भवन में डेरा-डंडा डाले हुए हैं. पूछने पर कहते हैं, "पिताजी को घर बनाने के लिए 1991-92 में सरकार से 20 हजार रुपए मिले थे. अब उस घर में रहने वाले 27 लोग हो गए हैं. मेरा अपना और मेरी तीन बहनों का परिवार. हम वहां कहां रहें.’’ गेहलौर पंचायत में ज्यादातर भुइयां परिवार का यही हाल है. विकास मित्र रामफल मांझी कहते हैं, ''भुइयां जाति के लगभग तीन सौ परिवार भूमिहीन हैं. दशरथ मांझी के टोले में ही 150 लोग आवास योजना की वेटिंग में हैं."
रामफल मांझी इस पंचायत में भुइयां जाति के इकलौते ग्रेजुएट हैं. दशरथ मांझी की इंटरमीडिएट पास पोती अंशु आंगनबाड़ी सहायिका हैं. रामफल बताते हैं, "1,230 भुइयां परिवार वाले इस पंचायत में किसी को स्थायी सरकारी नौकरी नहीं मिली है, जबकि पासवान जाति के 40-50 परिवार में 20-25 लोगों के पास सरकारी नौकरी है."
यही हाल जीतनराम मांझी के गांव महकार का है. पूरे गांव में सिर्फ एक भुइयां व्यक्ति को चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरी मिली है. हालांकि उस गांव में भुइयां जाति की नई पीढ़ी में पढ़ाई-लिखाई को लेकर जागरूकता है. खुद दुर्गेश मांझी बीएससी की डिग्री वाले हैं. मगर विज्ञान की पढ़ाई करने के बावजूद पैसों के अभाव में इंजीनियरिंग या मेडिकल की पढ़ाई कर नहीं सके. वे कहते हैं, "पॉलीटेक्निक की परीक्षा जरूर पास की, मगर पैसों के कारण एडमिशन नहीं करवा पाया. गांव के ज्यादातर लड़के-लड़कियों का यही हाल है. मेरे नाना जी की वजह से गांव में प्लस टू स्कूल खुल गया है तो लोग पढ़ाई कर लेते हैं. मगर आगे बढ़ नहीं पाते. कॉलेज जाने वाले युवा भी बहुत कम हैं."
इससे जाहिर है कि अंशु, रामफल और दुर्गेश जैसे मुसहर-भुइयां जाति के युवा क्यों पढ़ाई और आरक्षण के बावजूद ढंग की सरकारी नौकरी हासिल नहीं कर पाते. इस साल जारी हुई बिहार की जाति आधारित गणना की रिपोर्ट से पता चला कि पूरे भुइयां समाज में सिर्फ चार लोग एमबीबीएस डॉक्टर हैं और इंजीनियर सिर्फ 17. सिर्फ 3,514 लोगों के पास सरकारी नौकरी है.
यह सिर्फ भुइयां जाति का हाल नहीं है. बिहार में 22 दलित जातियों के 2,91,004 लोग के पास सरकारी नौकरी है. और अगर इनमें महादलित आयोग बनते वक्त जिन चार जातियों को अलग किया गया था, जिन्हें मांझी डी-4 कहते हैं, सिर्फ उनके पास ही 2,42,246 सरकारी नौकरियां हैं. शेष 18 जातियों के पास सिर्फ 48,758 सरकारी नौकरियां हैं. (देखें: जाति आधारित गणना में महादलित) मुसहर, भुइयां, डोम और नट जैसी महादलित जातियों की आधी से अधिक आबादी छह हजार रुपए प्रति माह भी नहीं कमा पाती. लगभग दो-तिहाई मुसहर जाति कच्चे मकान में रहती है और लगभग तीन हजार परिवार बेघर हैं. यही हाल दूसरी महादलित जातियों का है.
ये आंकड़े बताते हैं कि बिहार में दलितों और महादलितों (2007 में तय) के बीच आज भी बड़ा फर्क है. इसके लिए बिहार सरकार की ओर से चलाया गया विशेष अभियान राजनैतिक वजहों से किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले ही लगभग खत्म हो गया.