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आमदनी नहीं इकन्नी जिम्मेदारी सोलह आना

इन दिनों अपनी समाधान यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हर जगह जीविका दीदियों से मिलकर उनकी सराहना करते हैं पर 2007 में बिहार में शुरू जीविका मिशन से जुड़ीं ये 1.3 करोड़ महिलाएं इसका लाभ ले पाने से कोसों दूर. सार्वजनिक मंचों पर आत्मविश्वास से भरी दिखने के बावजूद ये दीदियां अभी तक भी आत्मनिर्भर न हो सकीं.

कामकाज : अरण्यक एग्री प्रोड्यूसर कंपनी के गोदाम में टैब पर हिसाब करतीं जीविका दीदियां
कामकाज : अरण्यक एग्री प्रोड्यूसर कंपनी के गोदाम में टैब पर हिसाब करतीं जीविका दीदियां
अपडेटेड 7 फ़रवरी , 2023

पुष्यमित्र

पूर्णिया जिले के ढोकवा गांव की किरण देवी 'अरण्यक एग्री प्रोड्यूसर कंपनी’ की बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की सदस्य हैं. अरण्यक पहली कंपनी है, जिसे बिहार में स्वयं सहायता समूहों के जरिए महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने में जुटी संस्था जीविका ने शुरू किया था. किरण देवी याद करती हैं, ''25 नवंबर 2009 को यह कंपनी स्थापित हुई थी.

पहले इसमें शेयर धारक के रूप में सिर्फ 1,200 महिलाएं जुड़ी थीं. अब संख्या 5,753 हो चुकी है. कंपनी मक्का, मखाना और केला जैसे कृषि उत्पादों को किसानों से खरीदती है और फिर उन्हें ऊंची कीमत में बेचती है. इसके अलावा कंपनी की अपनी खाद और बीज की दुकान भी है. पिछले साल हमने 5.5 करोड़ रुपए के मक्के का कारोबार किया.’’ पर जब उनसे पूछा जाता है कि पिछले 13-14 साल में कंपनी से उन्हें क्या हासिल हुआ, तो वे चुप्पी लगा जाती हैं.

बहुत कुरेदने पर कहती हैं, ''हम लोगों को क्या लाभ होगा? कंपनी जो कमाती है, उसका ज्यादातर हिस्सा कंपनी के दफ्तर, स्टाफ और दुकान के मेंटेनेंस में खर्च हो जाता है. इस वक्त कंपनी में 150 से ज्यादा का स्टाफ काम करता है, उनको वेतन दिया जाता है. बचेगा क्या? हमको तो बस दो बार बोनस मिला. एक बार 8,000 रुपए और एक बार 3,000 रुपए. बस.’’  

अरण्यक एग्री प्रोड्यूसर कंपनी को मुंबई की नेशनल कमोडिटी ऐंड डेरिवेटिव्स एक्सचेंज (नेस्डेक्स) संस्था वायदा कारोबार में बेहतरीन प्रयोग के लिए सम्मानित कर चुकी है. कंपनी के सीईओ की तनख्वाह 75,000-1,00,000 रु. महीने के बीच है. अकाउंटेंट तक की सैलरी 30,000 रुपए से ज्यादा है. मगर अपनी ही कंपनी के लिए खट रहीं किरण देवी और उनके जैसी दूसरी जीविका दीदियों को हर साल औसतन एक हजार रुपए भी हासिल नहीं हो पा रहे. सारा लाभांश स्टाफ और मेंटेनेंस पर खर्च.

किरण देवी ही नहीं, बिहार में महिलाओं की आर्थिक सफलता के रूप में प्रचारित जीविका संस्था से जुड़ी 1.30 करोड़ से ज्यादा महिलाओं की यही कहानी है. तमाम कोशिशों के बावजूद जीविका से जुड़ी 65 फीसद महिलाओं की पारिवारिक मासिक आय 6,000 रु. महीने से कम है (देखें बॉक्स).

पटना स्थित एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं, ''अगर आंकड़े यही हैं तो बिहार की ये जीविका दीदियां आज भी गरीबी की स्थिति में ही हैं. विश्व बैंक का मानक कहता है कि हर वह परिवार गरीब है, जहां रोज की आय प्रति व्यक्ति दो डालर यानी 160 रुपये से कम हो. अगर जीविका दीदियों का पांच लोगों का भी परिवार है, तो ज्यादातर परिवारों की प्रति व्यक्ति आय 40 रुपये से भी कम ठहरती है.’’ 

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन दिनों अपनी समाधान यात्रा के तहत पूरे बिहार की यात्रा पर हैं. इस दौरान आमलोगों में वे सिर्फ जीविका दीदियों से ही मिलते हैं. 29 जनवरी को कैमूर में जीविका दीदियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ''आपकी संख्या बहुत बढ़ी है, यह देखकर मुझे खुशी होती है. स्वयं सहायता समूह से अब 1.30 करोड़ से अधिक महिलाएं जुड़ गई हैं. 10 लाख से अधिक स्वयं सहायता समूह का गठन हुआ है. पहले महिलाएं सिर्फ घर में काम करती थीं, अब पुरुष के साथ महिलाएं भी कमा रही हैं जिससे परिवार की अच्छी आमदनी हो रही है. महिलाएं आगे बढ़ेंगी तो समाज भी आगे बढ़ेगा.’’

यह सच है कि 2007 में शुरू हुई जीविका संख्या के मामले में लगातार बढ़ रही है. इन्हें बैंकों से 26,708 करोड़ रु. का कर्ज मिला हुआ है. जीविका की तरफ से 14,000 करोड़ रु. का सपोर्ट ऊपर से. यानी कुल सपोर्ट 40,000 करोड़ रु. का. डीएम दिवाकर कहते हैं, ''इतने बड़े मैनपावर और धनराशि के दम पर 15 साल में एक संस्था के रूप में जीविका से जिस स्तर की उपलब्धि की आशा की गई थी, वह अब जमीन पर नहीं दिखती.’’

जीविका के सीईओ राहुल कुमार कहते हैं, ''यह सच है कि हम जीविका को एक ऐसे ब्रांड के रूप में तैयार नहीं कर पाए जिसकी देश के हर कोने में मौजूदगी हो. मगर हम इस कोशिश में जुटे हैं. हमने अपने तीस उत्पादों की सूची तैयार की है, इनमें कुछ फूड प्रोडक्ट होंगे, कुछ क्राफ्ट बेस्ड. इनमें मधु और मखाना जैसे उत्पादन होंगे और मधुबनी पेंटिंग और सिक्की के उत्पाद. हमने अपना ब्रांड लोगो और टैग लाइन फाइनल कर लिया है. अपने पोर्टल को इस रूप में विकसित कर रहे हैं, जिससे लोग आसानी से हमारे उत्पाद ऑनलाइन खरीद सकें.’’ 

जीविका उत्पादों को राष्ट्रीय स्तर पर बेचने की प्रक्रिया बहुत शुरुआती रूप में है जबकि एक स्वयं सहायता समूह अभियान को तभी सफल माना जाता है, जब उसको संचालित करने वाली संस्था 10 साल में खुद को समूहों से अलग कर ले और इस दौरान बने समूह और विकसित कंपनियां आत्मनिर्भर हो जाएं. राहुल के शब्दों में, इस अभियान से बाहर निकलने के बारे में ''सच तो यह है कि अभी हमने इस संबंध में कुछ सोचा भी नहीं है.’’

राज्य के ग्रामीण विकास मंत्री के तौर पर 2010 से 2015 तक इस अभियान से जुड़े रहे नीतीश मिश्र की राय में, ''लगता है, जीविका महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के बदले खुद की संस्था को ही किसी पीएसयू के रूप में स्थापित करने की कोशिश में है.’’

इस वक्त जीविका में 8,000 से अधिक प्रोफेशनल ऊंची सैलरी पर काम कर रहे हैं. और 90,000 जमीनी कार्यकर्ता पूरे राज्य में जीविका के लिए काम करते हैं. सबकी सैलरी जीविका अभियान से दी जाती है. मगर जीविका दीदियों की अपनी आय राज्य के प्रति व्यक्ति के आसपास भी नहीं पहुंच पा रही. मिश्र आगे जोड़ते हैं, ''हमने जीविका को अच्छे मकसद के साथ शुरू किया था. यह एक तरह की मौन क्रांति थी. शुरुआती दौर में यह मकसद को हासिल करने में सफल भी रही. मगर बाद के वर्षों में इसका विकास ठिठक रहा दिखता है.’’

मिश्र की बात अक्तूबर, 2020 में नेशनल रूरल लाइवलीहुड मिशन की इंपैक्ट असेसमेंट रिपोर्ट से भी जाहिर होती है. इस अध्ययन रिपोर्ट में बिहार की जीविका पर एक अलग अध्याय है. इसमें बताया गया है, ''ऐसा लगता नहीं कि जीविका दीदियों की स्थिति में 2017 के मुकाबले ज्यादा बदलाव हुआ है. 2017 के पहले असेसमेंट की रिपोर्ट जैसी स्थिति आज भी है.

साथ ही यह भी दिख रहा है कि महिलाओं के सशक्तिकरण की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है, जबकि उन्हें रोजगार मिलने की संभावना घटी है. रिपोर्ट कहती है कि समूहों पर समृद्ध महिलाओं का कब्जा है और कर्ज बांटने के मामले में असमानता बरती जाती है. क्षेत्र में पलायन की दर तेज हुई है और समूहों के जरिए जीविका सदस्यों को होने वाली पारिवारिक आय में कमी आई है.’’

ऐसे में जब जीविका के सीईओ राहुल कुमार से पूछा जाता है कि उनकी नजर में जीविका दीदियों की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है, तो उनका उत्तर होता है: ''आत्मविश्वास.’’

यह सच है कि पिछले 15 साल में जीविका से जुड़ी इन महिलाओं का आत्मविश्वास काफी बढ़ा है. मुख्यमंत्री के साथ बैठकों में ये घरेलू ग्रामीण महिलाएं पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी बात रखती नजर आती हैं. वे अकेले बैठकों में जाती हैं, लोन लेने और देने से जुड़े फैसले करती हैं. ट्रेनिंग लेने और देने के लिए दूर-दराज की यात्राएं भी करती हैं. इससे इन महिलाओं की राजनीतिक क्षमता में भी बढ़ोतरी हुई है. हाल के पंचायती राज चुनाव में इनमें से 483 महिलाएं मुखिया के पद पर चुनी गईं तो 21,549 महिलाएं अलग-अलग पदों पर चयनित हुईं.

बिहार के गांवों में महाजनी प्रथा की समाप्ति भी इसकी एक उपलब्धि मानी जाती है. राहुल कहते हैं, ''पहले गांव के गरीब लोगों को 5 से 10 फीसद तक मासिक ब्याज पर कर्ज लेना पड़ता था, अब लोग जीविका के माध्यम से महज एक फीसद मासिक दर पर कर्ज ले रहे हैं. अब महाजनी शहरों और कस्बों तक ही सीमित होकर रह गई है. बैंक भी जीविका के समूहों को आसानी से कर्ज देते हैं, क्योंकि उनकी रीपेमेंट दर 98.5 फीसद है.’’

माना जाता है कि ये महिलाएं सामाजिक रूप से भी सजग हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद कहते हैं कि उन्होंने शराबबंदी का फैसला एक जीविका दीदी के कहने पर लिया था. मगर शराबबंदी, बाल विवाह और दहेज प्रथा विरोधी अभियानों में इनकी भागीदारी बहुत कम नजर आती है. पंचायत से जुड़ी महिलाओं और किशोरियों के बीच काम करने वाली संस्था हंगर प्रोजेक्ट से जुड़ी शाहीना परवीन कहती हैं, ''इन महिलाओं का आर्थिक विकास तो थोड़ा-बहुत हुआ है, मगर सामाजिक जागरूकता न के बराबर लगती है.

राज्य सरकार बाल विवाह और दहेज प्रथा के खिलाफ बड़ा अभियान चला रही है. मगर जीविका दीदियां इस अभियान में बहुत कम शामिल होती हैं. बाल विवाह के खिलाफ सूचना या शिकायत करने वाली ज्यादातर छोटी बच्चियां होती हैं. इन जीविका दीदियों ने कभी न आसपास हो रही दहेज वाली शादियों को रोकने की कोशिश की, न बाल विवाह को. इन्हें कभी इस दिशा में जागरूक भी नहीं किया गया. तभी तो समाधान यात्रा में मुख्यमंत्री को अपील करनी पड़ी कि जीविका दीदियां शराबबंदी और बाल विवाह को रोकने में आगे आएं.’’

बिहार सरकार का मानना है कि देश भर में जो राष्ट्रीय आजीविका मिशन की शुरुआत हुई, वह बिहार की जीविका से ही प्रभावित थी. महिलाओं के जुड़ाव के मामले में भी बिहार सबसे आगे है. पूरे देश में आजीविका मिशन के तहत अब तक सिर्फ 8.8 करोड़ महिलाओं को ही जोड़ा जा सका है जबकि बिहार में अकेले 1.3 करोड़ जीविका दीदियां हैं. पर उपलब्धियों के मामले में बिहार दूसरे राज्यों के मुकाबले सबसे आगे नहीं दिखता. अक्तूबर, 2020 की असेसमेंट रिपोर्ट में भी कहा गया है कि एक समय में बने स्वयं सहायता समूहों में दूसरे राज्यों के मुकाबले बिहार की स्थित कमजोर नजर आती है.

शुरुआती दिनों में जीविका ने बेहतरीन मॉडल खड़ा किया था. तब छह जिलों के 102 प्रखंडों में इसका काम हो रहा था. मगर जब 2012-13 इसका विस्तार पूरे राज्य के सभी 534 प्रखंडों में हुआ तो इसकी गुणवत्ता कमजोर होने लगी और प्रभाव घटने लगा. नीतीश मिश्र कहते हैं, ''दरअसल हुआ यह कि जीविका की शुरुआती सफलता से प्रभावित होकर बिहार सरकार ने अपनी हर असफल परियोजना का जिम्मा जीविका को देना शुरू कर दिया.

पीडीएस भी वही चलाएंगी, अस्पतालों के किचन और साफ-सफाई का जिम्मा भी उन्हीं का होगा, स्कूलों की देखरेख भी वही करेंगी. कोरोना में मास्क भी वही तैयार करेंगी. एक तरह से सरकार अपनी फेल हो रही संस्थाओं की जिम्मेदारी उन्हें सौंपती चली गई. अब उनकी ताकत अपने उत्थान के बदले सरकार की नाकामियों को ठीक करने में लग रही है. सरकार लगातार उनपर निर्भर हो रही है. यह अपने आप में बहुत पवित्र अभियान है. मगर इसका खुद का विकास ठहर-सा गया है.’’

पूर्णिया की किरण देवी जैसी महिलाओं के हावभाव से मिश्र के दावे की पुष्टि हो जाती है. सवाल है कि एक कंपनी की डायरेक्टर होने के बावजूद उनकी स्थिति क्यों नहीं सुधरती? इसका जवाब जीविका दीदियों की मासिक आय से जुड़े उन आंकड़ों में दिखता है, जिसके मुताबिक राज्य की 65 फीसद जीविका दीदियां आज भी महीने के छह हजार रुपए कमाने के लिए संघर्ष कर रही हैं. सभाओं में उन्हें शोकेस की तरह पेश तो किया जा रहा है, पर उनका अपना संघर्ष आज भी जारी है.

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