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आरबीआईः तक पर साख

आरबीआइ से उर्जित पटेल की विदाई और उनकी जगह शशिकांत दास की नियुक्ति के बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि केंद्रीय बैंक किस तरह अपनी स्वायत्तता बरकार रखते हुए सरकार के साथ मिलकर डावांडोल होती अर्थव्यस्था को सभालने में प्रभावी सिद्ध होता है

 पल्ला झाड़ा आरबीआइ के पूर्व गवर्नर उर्जिल पटेल
पल्ला झाड़ा आरबीआइ के पूर्व गवर्नर उर्जिल पटेल

बालों के मोटे गुच्छे, भावशून्य चेहरा और शांत आचरण के साथ, वह भारत के सबसे शक्तिशाली अधिकारियों में से एक की बजाए, एक प्रोफेसर ज्यादा लगते थे. वे ऐसे व्यक्ति रहे हैं जो किसी प्रोफेसर वाले अंदाज में अपनी किसी भी बात को सिद्ध करने के लिए मधुरता के साथ अकाट्य तर्क प्रस्तुत कर सकते थे और आंकड़ों का अंबार लगा सकते थे. भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) के 55 वर्षीय पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल, आरबीआइ प्रमुख के रूप में सत्ता से बहुत प्रभावित रहने वाले या चर्चा में बने रहने के लिए उतावले व्यक्ति तो कतई नहीं थे. ऐसी उम्मीद लगाई गई थी कि पटेल सरकार के साथ कभी टकराव नहीं मोल लेंगे और सरकार के अर्थशास्त्र के साथ सुरताल मिलाते हुए ही चलेंगे. लेकिन आखिरकार शांत स्वभाव वाले इस बैंकर ने जो रुख अख्तियार किया उससे सरकार न सिर्फ स्तब्ध रह गई बल्कि असहज भी होने लगी.

इसके विपरीत, भारतीय रिजर्व बैंक के नव-नियुक्त गवर्नर 63 वर्षीय शक्तिकांत दास को अधिक सुलभ और उत्तरदायी माना जाता है और नोटबंदी के दौरान वे आर्थिक मामलों के सचिव होने के नाते सरकार के सार्वजनिक चेहरे थे. मुंबई में आरबीआइ मुख्यालय में पदभार संभालने के एक दिन बाद दास ने भी एक प्रेस ब्रीफिंग की और उसमें साफगोई, सहजता, खुलेपन और अनौपचारिकता का परिचय देते हुए सभी सवालों के उत्तर दिए.

दास को जो कुर्सी मिली है वह कांटों भरी है. ऐसे वक्त में जब सरकार और शीर्ष बैंक के बीच की तनातनी सार्वजनिक हो चुकी है, दास के सामने बहुत सी चुनौतियां सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी हैं. आरबीआइ की स्वायत्तता बनाए रखते हुए सरकार के साथ सामंजस्य बनाने, केंद्रीय बैंक को अपने पास नकदी के रिजर्व की मात्रा तय करने, सार्वजनिक क्षेत्र के खस्ताहाल बैंकों के लिए सख्त त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (प्रॉम्पट करेक्टिव ऐक्शन या पीसीए), इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग ऐंड फाइनेंसियल सर्विसेज के कंगाली के कगार पर पहुंचने के मद्देनजर सिस्टम में और पैसा डालने के साथ-साथ महंगाई को काबू में रखते हुए आर्थिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने जैसे जटिल प्रश्नों के हल ढूंढने के लिए दास को अपने प्रशासकीय कौशल के सारे घोड़े खोलने होंगे.

ऊबड-खाबड़ रास्ते पर एक मुश्किल शुरुआत

पटेल की शुरुआत मुश्किल स्थितियों में हुई थी क्योंकि नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले के कारण भारत की प्रचलित मुद्रा का लगभग 86 प्रतिशत नोट कचरा हो चुका था. जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था मंथन के दौर से गुजरती गई पटेल और सरकार के बीच रिश्ते भी कसौटियों पर उतने ही ज्यादा कसे गए. केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली, जिन्होंने अपने उत्कृष्ट वार्ता कौशल का परिचय देते हुए के गैर-भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी माल और सेवा कर (जीएसटी) के समर्थन को मना लिया था, वह सरकार और आरबीआइ के बीच अच्छे कामकाजी संबंध स्थापित नहीं कर पाए. आरबीआइ के गवर्नर के साथ सरकार और वित्त मंत्री का सामंजस्य नहीं बन पाया.

आने वाले वक्त में क्या होने वाला है इसकी आहट तो तभी मिल गई थी जब जेटली ने 20 नवंबर को नई दिल्ली में दो दर्जन से अधिक अर्थशास्त्रियों के साथ एक बैठक में आश्चर्यजनक रूप से कहा, ''स्वतंत्रता, किसी अक्षम का अंतिम आश्रय होता है.'' भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार के बीच तनातनी से निवेशक तो पहले से ही चिंतित थे, उस पर जेटली की इस प्रतिक्रिया ने सबको चकित कर दिया था. इंडिया टुडे ने अगस्त महीने में ही दोनों पक्षों के बीच तनाव की सबसे पहले रिपोर्ट दी थी. निजी बातचीत में, सरकारी सूत्रों ने गवर्नर के रवैये के प्रति निराशा व्यक्त की और यहां तक कहा कि इससे अच्छा हो कि वे अपनी कुर्सी छोड़ ही देते, हालांकि उन्हें विश्वास नहीं था पटेल ऐसा कर गुजरेंगे.

इस बात के पूरे संकेत दिख रहे थे कि आरबीआइ बोर्ड ने 19 नवंबर की बैठक में कम से कम आरबीआइ के रिजर्व को सरकार को देने, पैसे की आपूर्ति में सुधार करने के लिए पीसीए मानदंडों में कुछ ढील देने, छोटी कंपनियों को और अधिक उधार देने और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लिए एक विशेष खिड़की खोलने जैसे कुछ पेचीदे मसलों के निपटारे पर कुछ सहमति बन चुकी है. लेकिन अगले दिन अर्थशास्त्रियों के साथ बातचीत में जेटली की टिप्पणी ने जता दिया कि अभी तक बात बनी नहीं है.

बताया जाता है कि पटेल ने 10 दिसंबर को आधिकारिक रूप से अपने इस्तीफे की घोषणा से लगभग दो हफ्ते पहले ही इस्तीफे की पेशकश कर दी थी. उन्हें विधानसभा चुनाव के नतीजों तक इंतजार करने के लिए कहा गया था. आरबीआइ के दो गवर्नरों ने भी अतीत में, आपातकाल के दौरान और 1990 में केंद्र में नेतृत्व परिवर्तन के बाद इस्तीफा दे दिया था. कार्यकाल पूरा होने के करीब 10 महीने पहले पटेल के पद छोड़ देने से अच्छी प्रतिभाओं को साथ लेकर चलने की सरकार की क्षमता पर सवाल खड़े हुए हैं. इसे पहले अरविंद सुब्रह्मण्यम ने भी मुख्य आर्थिक सलाहकार जैसे वित्त मंत्रालय से जुड़े हाइ-प्रोफाइल पद को छोड़ दिया था. यह तब है जब सरकार अलग-अलग आर्थिक या राजनैतिक विचारधारा के लोगों को खोजकर उनके साथ काम करने के लिए संघर्ष कर रही है.

आरबीआइ बोर्ड की 14 दिसंबर की बैठक से पहले पटेल के त्यागपत्र पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आई हैं. एक शांत स्वभाव वाले गवर्नर के साथ सरकार की लगातार चल रही कहासुनी और गवर्नर की संवादहीनता की स्थिति से बहुत से लोग निराश थे. लंदन के एक मैक्रो इन्वेस्टर बताते हैं कि पटेल निवेशकों का कोई भी प्रश्न लेने में बहुत अनिच्छा दिखाते थे. उन्हें सारे प्रश्न लिखित रूप में देने होते थे और प्रश्न देखने के बाद वे फैसला करते थे कि किस प्रश्न का उत्तर देना है, किसका नहीं. उनके पूर्ववर्ती रघुराम राजन उनसे एकदम अलग थे. वे निवेशकों और अर्थशास्त्रियों को मात्र एक फोन कॉल पर उपलब्ध रहते थे.

हालांकि, पटेल के कार्यकाल में ही भारत ने नई मौद्रिक नीति ढांचे को अपनाया, जिसमें यह व्यवस्था दी गई कि ब्याज दर तय करना अकेले गवर्नर का दायित्व नहीं है बल्कि इसका निर्धारण छह सदस्यीय मौद्रिक नीति समिति करेगी. पटेल ने बैंकों को बड़े डिफॉल्टर्स पर शिकंजा कसने और उन्हें इनसॉल्वेंसी कोर्ट में लेकर आने को उकसाया, रिपोर्टिंग के कठोर मानदंडों को अपनाने और निजी क्षेत्र के बैंकों को अपने मुख्य कार्यकारी अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराने जैसी व्यवस्था शुरू की. और निश्चित रूप से, उन्होंने भारतीय रिजर्व बैंक की स्वायत्तता को फिर से बहाल करने, ब्याज दरों को कम करने और रिजर्व की सुरक्षा से जुड़े दबावों का जोरदार विरोध किया. उनका अगला लक्ष्य बोर्ड की भूमिका को सीमित करने का था. सूत्रों ने बताया कि एक आरबीआइ बोर्ड मेंबर ने शिकायत की थी कि गवर्नर बोर्ड से आजादी चाहते है.

पेचीदे मुद्दे

गवर्नर की अध्यक्षता वाले आरबीआइ बोर्ड, जिसमें आरबीआइ के चार डिप्टी गवर्नरों समेत 18 निदेशक होते हैं, को मुख्य रूप से एक सलाहकार निकाय के रूप में जाना जाता था. हालांकि, ऐसे संकेत मिल रहे थे कि सरकार बोर्ड को केवल नए विचारों को उछालने के लिए सिर्फ एक मंच के रूप में उपयोग करने की बजाए, गवर्नर को बोर्ड के प्रति उत्तरदायी बनाना चाहती है. एक अर्थशास्त्री कहते हैं, ''इससे पहले, अगर गवर्नर को राजी कर लिया जाता था, तो इसका अर्थ था कि बोर्ड को भी आश्वस्त किया जा सकता है. यह एक दूसरे के साथ आपसी मेल-जोल जैसा मामला था. सरकार अब बोर्ड की भूमिका को नए सिरे से परिभाषित करना चाहती है.''

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस ऐंड पॉलिसी के एन.आर. भानुमूर्ति के मुताबिक, ''बोर्ड का व्यवहार तो तनातनी को बढ़ाने वाला ही रहा है. बोर्ड बस एक सलाहकार निकाय है और उसका काम-काज में दखल नहीं हो सकता.'' राजन ने कहा कि पटेल का इस्तीफा 'विरोध का स्वर है' और सरकार को आरबीआइ के साथ अपने संबंधों को लेकर बहुत सावधान रहना चाहिए.

2016 में राजन ने अपना पद छोडऩे से पहले गैर-निष्पादित संपत्तियों (एनपीए) या डूबत कर्जों को पहचानकर बैंकिंग प्रणाली की सफाई करने के जो प्रयास किए थे संपत्ति गुणवत्ता समीक्षा (एक्यूआर) उसी का हिस्सा था. पटेल ने राजन के प्रयास को पूरे उत्साह के साथ आगे बढ़ाया. फरवरी 2018 में, आरबीआइ ने 2,000 करोड़ रु. या इससे अधिक के एनपीए के निपटारे के लिए बैंकों के लिए छह महीने की समय सीमा तय की.  छह महीने में निपटारा नहीं होने की स्थिति में बैंकों को दिवालिया घोषित करने से जुड़ी कार्यवाही शुरू करने के लिए उस एनपीए को नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्युनल में भेजना अनिवार्य बना दिया. हालांकि, यह कदम विवादास्पद हो गया और कई उद्योगों ने इसे जरूरत से ज्यादा सक्चत बताया.

बिजली उत्पादक तो इस आदेश पर अंतरिम रोक की मांग करते अदालत तक चले गए थे. पटेल को नोटबंदी के दौरान हुई परेशानियों के लिए भी दोषी ठहराया गया था, क्योंकि बैंकों के पास अपने एटीएम और शाखाओं के लिए छोटे मूल्य वाले नोट पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं थे. मुद्रास्फीति को 4 प्रतिशत के अपने निर्धारित लक्ष्य पर बनाए रखने के लिए वे बहुत चौकन्ने रहे और इस साल भी दो बार ब्याज दरों में वृद्धि की गई. लेकिन उन पर मुद्रास्फीति का सही अनुमान नहीं लगा पाने और खुली बाजार में बॉन्ड की बिक्री जैसे अनावश्यक फैसलों के आरोप भी लगे. वह भी तब जब सरकार वित्तीय स्थिति को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही थी.

दास की चुनौतियां

नए गवर्नर के सामने काम का जितना अंबार लगा है और उनकी पृष्ठभूमि अर्थशास्त्र की नहीं है, इसके कारण बहुत से लोगों ने उनकी क्षमता पर संदेह जताया है. लेकिन दास के पुराने मंत्रालयों में उनके कामकाज को देखते हुए उनकी छवि एक ऐसे व्यक्ति की है जिन्हें काम कराना आता है. उन्हें आरबीआइ का विश्वास बहाल करने के लिए और भी कठिन परिश्रम करना होगा, आर्थिक मुद्दों पर बैंक की स्वतंत्रता पर जोर देना होगा और वित्त मंत्रालय में बैठे अपने पूर्व वरिष्ठों के सामने मजबूती से खड़ा होना होगा.

कंसल्टेंसी फर्म ईवाई इंडिया में साझेदार (वित्तीय सेवाएं) अबीजर दीवानजी के अनुसार नए गवर्नर के सामने सबसे बड़ी चुनौती ''आरबीआइ की स्वायत्तता में गिरावट और नई परिस्थितियों में बोर्ड ने जिस तरह से हावी होने की कोशिशें की हैं, उससे निपटने की होगी.'' दीवानजी ने कहा कि दास को ऐसे किसी भी प्रयास के प्रति सावधान रहना होगा जिससे आरबीआइ की स्वायत्तता में स्थायी रूप से कमी आ सकती हो. उन्होंने कहा कि ऐसी आशंका थी कि चुनाव वर्ष होने के कारण कहीं सरकार अपना हिसाब-किताब ठीक करने के लिए आरबीआइ के पास रखा सारा रिजर्व ही ले ले. वे कहते हैं, ''अगर गवर्नर इसकी अनुमति दे देते हैं, तो यह अर्थव्यवस्था के लिए बहुत नुक्सानदेह होगा. सरकार के सामने अल्पकालिक लक्ष्य होते हैं और वह सिर्फ मौजूदा स्थितियों को देखती है जबकि आरबीआइ लंबे समय के लिए सोचता है.''

केयर रेटिंग्स के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस कहते हैं ''आपको एक ऐसे केंद्रीय बैंक की जरूरत है जो कई चीजों के लिए 'नहीं' भी कह सकता है, खासकर उन बातों के लिए जिनका मौद्रिक प्रभाव होता है.''

दीवानजी ने कहा, आरबीआइ को अर्थव्यवस्था में तरलता के प्रवाह को बनाए रखने में भी सक्षम होना चाहिए. ''अर्थव्यवस्था मुश्किल दौर से गुजर रही है. निर्यात घट रहे हैं. रुपए को स्थिर बनाए रखने की जरूरत है.'' इसलिए उनका समय रहते पर्याप्त और उचित कार्रवाई करने की स्थिति में बने रहना जरूरी है.

12 दिसंबर को प्रेस वार्ता में दास ने पीसीए ढांचा, जो खराब स्थिति वाले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को और स्वस्थ होने तक और अधिक कर्ज देने से रोकता है, से संबंधित प्रश्न पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए 'परामर्शदाता' शब्द पर जोर दिया. उन्होंने यह भी कहा कि वे ''इस संस्था (आरबीआइ) को ज्यादा प्रोफेशनल, अपने मूल सिद्धातों पर अटल और इसकी विश्वसनीय तथा स्वायत्तता बनाए रखने के लिए भरपूर प्रयास करेंगे.''

उनके सबसे पहले कार्यों में से एक था सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंकों के प्रमुख के साथ मुलाकात क्योंकि बैंकिंग क्षेत्र ''कई चुनौतियों का सामना कर रहा है जिनका तत्काल समाधान करने की जरूरत है.'' इस बीच, फिच रेटिंग्स ने आगाह किया है कि दीर्घकालिक खराब ऋण समस्याओं से निपटने से जुड़े किसी भी उपाय से कदम पीछे खींचने और कमजोर पूंजीकृत बैंकों के विकास पर लगाम लगाने वाला कोई भी प्रयास प्रभावित बैंकों की क्रेडिट प्रोफाइल को खराब कर सकता है और इससे वित्तीय प्रणाली में जोखिम बढ़ सकता है.

दास के सामने विकास की गति को आगे बढ़ाने के लिए सरकार की प्रतिबद्धताओं से जुड़ी जरूरतों और उद्योग की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए, आरबीआइ की स्वायत्तता को बरकरार रखने की बड़ी जिम्मेदारी भी है.

कैसे असहज हुए रिश्ते

उर्जित पटेल और सरकार के बीच रिश्ते कैसे खराब होते चले गए

सितंबर, 2016

आरबीआइ के 24वें गवर्नर के रूप में कार्यभार संभाला

नवंबर, 2016

नोटबंदी के समय बैंकों के पास पर्याप्त नकदी उपलब्ध नहीं थी.  पटेल को जिम्मेदार माना गया

जून, 2017

पटेल आरबीआइ की द्वि-मासिक बैठक से पहले वित्त मंत्रालय के अधिकारियों से मिलने से इनकार कर देते हैं

अगस्त, 2017

आरबीआइ ने 30,659 करोड़ रुपए का भुगतान लाभांश के रूप में किया, 2016 में इसका आधा भुगतान किया गया था

फरवरी, 2018

आरबीआइ खराब ऋण रिपोर्टिंग के मानदंडों को सख्त करती है, कई बैंकों को पीसीए के तहत रखा जाता है. सरकार ने आरबीआइ को ढीले विनियमन के लिए दोषी ठहराया

मार्च, 2018

सरकार, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर आरबीआइ द्वारा और अधिक अधिकार प्रदान करने से जुड़ा अनुरोध ठुकरा देती है

अप्रैल, 2018

आरबीआइ सार्वजनिक क्षेत्रों के 21 में से 11 बैंकों को पीसीए के तहत रखती है

अगस्त, 2018

स्वदेशी अर्थशास्त्री एस. गुरुमूर्ति और कोऑपरेटिव बैंकर सतीश मराठे की आरबीआइ बोर्ड में नियुक्ति

अक्तूबर, 2018

आरबीआइ के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने कहा कि आरबीआइ की स्वायत्तता को कम करने की कोशिश 'अनर्थकारी' साबित हो सकती है

अक्तूबर के आखिर में 2018

सरकार आरबीआइ अधिनियम की धारा 7 के प्रयोग का संकेत देती है ताकि वह कुछ मामलों पर बैंक को दिशा-निर्देश दे सके

19 नवंबर 2018

सरकार और आरबीआइ के बीच नौ घंटे लंबी बैठक होती है

10 दिसंबर, 2018

निजी कारणों का हवाला देते हुए पटेल इस्तीफा सौंप देते हैं

नए कर्ताधर्ता

नए आरबीआइ गवर्नर का परिचय

शशिकांत दास, 61 वर्ष

शिक्षाः सेंट स्टीफंस कॉलेज, दिल्ली से इतिहास में बी.ए और एम.ए.

नोटबंदी के दौरान सरकार के चेहरेः नवंबर 2016 में नोटबंदी के फैसले के बाद जब बैंकों के एटीएम और शाखाओं में अफरा-तफरी मची थी, उस समय सरकार की ओर से इस पर जानकारियां देने वाले दास ही सरकार के सार्वजनिक चेहरा बने थे. पैसे का लेन-देन करने वाले लोगों की पहचान के लिए उनकी उंगलियों पर नीली स्याही लगाने जैसे उनके फैसलों पर विवाद हो गया था जिसे बाद में वापस ले लिया गया था.

  • करियर ग्राफः दास जून 2014 से लेकर अगस्त 2015 तक केंद्रीय राजस्व सचिव और अगस्त 2015 से मई 2017 तक आर्थिक मामलों के सचिव रहे हैं. रिटायरमेंट के बाद उन्हें पंद्रहवें वित्त आयोग का सदस्य बनाया गया और जी-20 में वे जानकार व्यक्ति की भूमिका रहे थे.
  • चुनौतियां: 1980 बैच के तमिलनाडु कैडर के आइएएस अधिकारी दास को कुशल संवादकर्ता माना जाता है जो बातचीत से बड़े से बड़े गतिरोध का भी हल निकालने की क्षमता रखते हैं. लेकिन नौकरशाह के रूप में उनके अतीत को देखते हुए सवाल उठाए जा रहे हैं कि वे आरबीआइ की स्वायतत्ता को कैसे बहाल रख पाएंगे.

पटेल ने बैंकों को बड़े डिफॉल्टर्स पर शिकंजा कसने और उन्हें इनसॉल्वेंसी कोर्ट में लेकर आने को उकसाया, रिपोर्टिंग के कठोर मानदंडों को अपनाने और निजी क्षेत्र के बैंकों को अपने मुख्य कार्यकारी अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराने जैसी व्यवस्था शुरू की.

अर्थव्यवस्था मुश्किल दौर से गुजर रही है. ऐसे में नए आरबीआइ गवर्नर शक्तिकांत दास की चुनौती आरबीआइ की स्वायत्तता को बनाए रखते हुए सरकार और उद्योग की आर्थिक विकास से जुड़ी चिंताओं को दूर करने की होगी.

उर्जित पटेल ने 10 दिसंबर को औपचारिक रूप से इस्तीफा देने से दो हफ्ते पहले ही पदभार छोडऩे की पेशकश की थी. बताया जाता है कि सरकार ने उन्हें विधानसभा चुनाव के नतीजे आने तक इंतजार करने के लिए कहा था

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