अगर आप अभी भी यह समझते हैं कि खाने के तेल की मिल में हर तरफ अजीब-सी गंध फैली रहती है, काले पड़ चुके फर्श पर तेल की फिसलन के बीच गंदे कपड़े पहने कर्मचारी तेल की बोतलों की पैकिंग करते होंगे, तो आपकी यह धारणा बरेली के परसाखेड़ा औद्योगिक क्षेत्र में बैल कोल्हू ब्रांड की निर्माता कंपनी की मिल में आकर बदल जाएगी. फर्श पर तेल की एक बूंद तक नहीं और न गंध. सभी कर्मचारी एक निर्धारित और साफ-सुथरे लिबास में अपने काम में तल्लीन. यहां एशिया में लगे किसी जर्मन कंपनी (सिडल) के पहले पैकिंग प्लांट और रोबोटिक मशीनों से संचालित रैंकिंग सिस्टम पूरी तरह आपको आधुनिक माहौल का एहसास कराएगा. तेल के कारोबार में यही बदलाव लाने के लिए घनश्याम खंडेलवाल 17 साल की उम्र में अपने पुश्तैनी धंधे में उतरे थे.
घनश्याम के पिता बिशनलाल और ताऊ किशनलाल खंडेलवाल आजादी के बाद से बरेली में तेल का कारोबार करते थे. उस दौर में तेल के व्यापारियों को अच्छे नजरिए से नहीं देखा जाता था. इन्हें घटतोलिया, मिलावटिया या कालाबाजारिया जैसे संबोधनों से पुकारा जाता था. स्कूल के दिनों से ही घनश्याम इससे व्यथित थे. बरेली कॉलेज से साइंस में ग्रेजुएशन करने के बाद 1976 में वे अपने पुश्तैनी धंधे में इस मकसद के साथ उतरे कि इस नजरिए को बदल देंगे. वे बताते हैं, “घटतोली और मिलावट जैसी कुरीतियां हमारे कारोबार में थीं. इसे बदलने के लिए मैंने संकल्प लिया कि मैं यह कारोबार परंपरागत तौर-तरीकों से नहीं करूंगा.” उन्होंने कारोबार शुरू करने से पहले बरेली के माधोवाड़ी में लैब बनाई जहां खुद तेल की जांच करनी शुरू की ताकि गड़बड़ी कहां हो रही है, यह पता लगाया जा सके.
1986 में घनश्याम ने “बैल कोल्हू” नाम से अपना ब्रांड बनाया और इसे ट्रेडमार्क और एगमार्क में रजिस्टर कराया. फिर बरेली के माधोवाड़ी में तेल का कारखाना खोला. चार साल बाद यह देश की पहली कंपनी थी जो तेल का उत्पादन न करने के बाद भी केंद्र सरकार से “पूल” श्रेणी का पहला एगमार्क का लाइसेंस हासिल कर चुकी थी. इसने तेल से ही तेल बनाया.
घनश्याम ने कच्ची घानी तकनीक पर खास ध्यान दिया. इसमें सरसों के बीजों की इस तरह पेराई की जाती है जिससे घर्षण से निकलने वाली ऊर्जा को कम कर तेल के प्राकृतिक गुणों को संरक्षित किया जा सके. घनश्याम बताते हैं, “इस तकनीक का जिक्र आयुर्वेद में भी है. प्राचीन काल में बैल वाले कोल्हू से तेल की प्राकृतिक ढंग से पेराई की जाती थी. इसी से हमने अपने ब्रांड का नाम बैल कोल्हू रखा.”
घनश्याम ने ही देश में पहली बार तेल को “कंज्यूमर पैक” में बेचना शुरू किया. उन्होंने लोगों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए एक लीटर, आधा लीटर, दो सौ एमएल और पांच रुपए, दो रुपए कीमत के पाउच जारी किए. वे बताते हैं, “पहले तेल को बड़े कनस्तरों में रखकर दुकानों से फुटकर बेचा जाता था, जिसमें जमकर धांधली होती थी. इसलिए हमने पाउच में तेल बेचने की शुरुआत की ताकि उपभोक्ताओं तक सही क्वालिटी पहुंच सके.” 1999 में उन्होंने अपने पिता बिशनलाल के नाम पर बी.एल. एग्रो ऑयल्स प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की स्थापना की जो 2006 में बी.एल. एग्रो ऑयल्स लिमिटेड हो गई. इसी दौरान कंपनी ने दो तरह के तेल को आपस में मिलाकर उसे बेचने के लिए सरकार से “ब्लेंडेड ऑयल” का लाइसेंस हासिल किया. इसे बैलेंस लाइट, मोहनधारा, अविरल धारा नाम से बाजार में उतारा गया. कारोबार बढऩे के बाद घनश्याम ने बरेली के परसाखेड़ा इंडस्ट्रियल एरिया मंा 2005 में पहली यूनिट लगाई और 10 साल के बाद आज यहां इनकी कुल नौ यूनिट्स काम कर रही हैं.
कंपनी के पास रोजाना 750 टन कंज्यूरमर पैक बनाने की क्षमता है जो फिलहाल उत्तर भारत में सबसे अधिक है. कंपनी का नेटवर्क देश के करीब दो दर्जन राज्यों के अलावा नेपाल में भी है. पिछले साल इसने 1,900 करोड़ रु. का कारोबार किया है. इतना ही नहीं, बी.एल. एग्रो उत्तर भारत की पहली तेल कंपनी है जिसने “रेलवे साइडिंग” विकसित की है. बरेली के सी.बी. गंज रेलवे स्टेशन के नजदीक बने इस डिपो में ट्रेन से लाए जाने वाले तेल के रैक को सीधे उठाकर वहीं पर स्थापित रिफाइनरी और “फ्रैक्शनेशन प्लांट” तक पहुंचा दिया जाता है.
घनश्याम ने परसाखेड़ा की यूनिट में कौशल विकास केंद्र भी खोल रखा है. इस आधुनिक केंद्र में एक साथ 35 बच्चे प्रशिक्षण पा सकते हैं. तीन से छह माह के प्रशिक्षण के दौरान कंपनी इन छात्रों का पूरा खर्च उठाती है. पिछले साल आइआइटी, बीएचयू के छात्र यहां प्रशिक्षण के लिए पहुंचे थे. देश के सभी बड़े संस्थान तेल के कारोबार में आ रही क्रांति को समझने के लिए अपने छात्रों को यहां भेजने को इच्छुक हैं. पर घनश्याम इसे दूसरे ढंग से देखते हैं, “हमें लगता है कि हम बच्चों को पढ़ा रहे हैं पर असल में ये बच्चे हमें ही पढ़ा जाते हैं.” यह सहजता ही घनश्याम खंडेलवाल की कामयाबी का मूल मंत्र है.