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भारत-चीन एजेंडे में एशिया की दावेदारी

भारत-चीन द्विपक्षीय रिश्तों को बेहतर बनाने की अपनी अहमियत है पर भारत को साथ बनाए रखना चीन के लिए अमेरिका से जारी क्षेत्रीय दबदबे की होड़ में भी बेहद जरूरी.

अपडेटेड 11 मई , 2015
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 14 मई को चीन की अपनी यात्रा राष्ट्रपति शी जिनपिंग के गृहनगर शिआन से शुरू करेंगे. चीन के राष्ट्रपति ने उन्हें यह न्यौता इस ख्याल से दिया है कि पिछले सितंबर में गुजरात में मोदी की आवभगत का कुछ उधार चुका सकें. दोनों ही पक्ष इसे दो मजबूत नेताओं के बीच करीबी व्यक्तिगत संबंधों को जाहिर करने के मौके के रूप में देख रहे हैं.

हालांकि शिआन शी का वाकई गृहनगर नहीं है. शी का जन्म बीजिंग में हुआ. उनके पिता, कम्युनिस्ट पार्टी के क्रांतिकारी नेता शी जांगशुन का जन्म भले शिआन से 100 किमी दूर एक छोटे-से गांव फुपिंग में हुआ था. पहली नजर में फुपिंग शांशी प्रांत के हर गांव की तरह ही हराभरा दिखता है. वहां हरे मक्के-ज्वार के खेतों के बीच सरसों के पीले फूलों का विस्तार और चारों और धूल-धूसरित छोटी-छोटी पहाड़ियां मनोरम नजारा बनाती हैं. लेकिन पिछले ढाई साल से, जब से शी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बने हैं, यह पूरा इलाका काफी बदल गया है.

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखिया के नाते पहला साल पूरा करते ही शी ने अपने नजरिए को जाहिर कर दिया कि वे दुनिया में चीन को किस स्थान पर देखना चाहते हैं. मध्य एशिया के दौरे पर शी ने प्राचीन सिल्क रूट का जिक्र किया और ऐलान किया कि चीन आर्थिक गतिविधियों के नए सिल्क रूट का निर्माण करेगा. इस तरह उन्होंने दुनिया की महाशक्तियों में चीन की अहमियत का इजहार किया. इसके महीने भर बाद दक्षिण एशिया में शी ने कहा कि इस नए आर्थिक क्षेत्र के समांतर नौवहन सिल्क रूट भी तैयार किया जाएगा, जो चीन को एशिया-प्रशांत और हिंद महासागर से जोड़ेगा. इस योजना की वजह से शिआन की ओर नजरें उठीं और वहां नया निवेश आया. शिआन में विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए नए टेक्नोलॉजिकल जोन को विस्तार दिया गया है. इसमें एक सॉफ्टवेयर पार्क की भी योजना है जो स्थानीय अधिकारियों के मुताबिक “बेंगलूरू की तर्ज” पर ही बनाया जा रहा है. फुपिंग की “देशभक्त शिक्षा की पाठशाला” दशक भर से पहले बनाई गई थी. यह अब शिआन के प्रसिद्ध टेराकोटा वॉरियर्स (योद्धाओं की मूर्तियां) के बाद पर्यटकों के लिए दूसरा बड़ा पड़ाव है. यहां के म्युजियम में शी परिवार का इतिहास दिखाया जाता है. बगल में एक दुकान पर शी जांगशुन की मूर्ति और युवा शी तथा प्रथम महिला पेंग लियुआन की तस्वीरों वाली सेरामिक प्लेट बिकती है.

जब मोदी शिआन में शी के साथ टहल रहे होंगे और सितंबर में साबरमती के किनारे हुई बातचीत को आगे बढ़ा रहे होंगे तो उन्हें यह एहसास शिद्दत से होगा कि चार साल पहले बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री वे जिस चीन के दौरे पर आए थे, वह अब काफी बदल चुका है. चीन के पूर्व नेतृत्व के उलट शी ने मार्च, 2013 में पद संभालने के बाद अपने नजरिए से सत्ता पर  पुख्ता छाप छोड़ी है. उन्होंने पार्टी, सरकार और फौज की पूरी कमान अपने हाथ में कर ली है और निर्णय प्रक्रिया का पूरी तरह केंद्रीकरण कर दिया है. अपने देश में शी का संदेश है “चीनी राष्ट्र का महान पुनरुत्थान.” उन्होंने भ्रष्टाचार पर कठोर रवैया अपनाया और मजबूत तथा साफ-सुथरी सरकार बनाने पर जोर दिया. विदेशी मोर्चे पर वे नए दमखम से लबरेज चीन का संदेश दे रहे हैं यानी देंग शियाओपिंग के उस नारे के दिन अब लद गए कि “सही समय का इंतजार करो, अपना दम छुपाए रखो.”

शी की योजना में भारत
पिछले 12 महीने में शी की सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया कि “आर्थिक क्षेत्र और सिल्क रूट” का विचार महज बातों तक ही सीमित नहीं है. सरकार करीब 100 अरब डॉलर का खजाना तेजी से तैयार कर रही है. 40 अरब डॉलर का सिल्क रोड फंड चीन के समर्थन से बने नए एशिया इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआइआइबी) में मदद करेगा. सिल्क रोड परियोजना से ही स्पष्ट हो जाता है कि चीन का नया नेतृत्व दुनिया में अपने देश को किस स्थान पर देखना चाहता है. यानी चीन इस क्षेत्र में प्रमुख आर्थिक और भू-राजनैतिक ताकत की तरह उभरेगा.
इसमें भारत की जगह आखिर कहां होगी? दरअसल, चीन के विदेश नीति के रणनीतिकारों के दिमाग में अमेरिका है, न कि भारत. चीन के विदेश नीति विशेषज्ञों के मुताबिक, सिल्क रोड की पहल कई मायनों में एशिया में अमेरिका के आर्थिक और सामरिक दबदबे को कम करने की कोशिश का हिस्सा है. सरकारी संस्थान चीन इंस्टीट्यूट फॉर कंटेंपररी इंटरनेशनल रिलेशंस (सीआइसीआइआर) में सेंटर फॉर साउथ, साउथ ईस्ट एशिया के निदेशक हू शिशेंग कहते हैं, “अभी अमेरिका का एशिया-प्रशांत क्षेत्र में प्रभुत्व कायम है. अगर चीन की आर्थिक क्षेत्र और रोड निर्माण की परियोजना कामयाब हो जाती है तो इससे अमेरिका का दबदबा शर्तिया तौर पर घटेगा.”

चीन ने जिस तेजी से आर्थिक क्षेत्र और रोड निर्माण परियोजना&और खासकर एआइआइबी&पर काम आगे बढ़ाया है, उससे इन मामलों के जानकार भी हैरान हैं. अमेरिका की इस बैंक के बहिष्कार की कोशिश नाकाम हो गई और वह अकेला पड़ गया. वह हाथ मलता रह गया और उसके सहयोगी ब्रिटेन से लेकर दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया तक ने चीन की समयसीमा के भीतर बैंक के संस्थापक सदस्य बनने के लिए हड़बड़ी दिखाई. चीन की राजधानी में एक पश्चिमी कूटनयिक कहते हैं, “एआइआइबी बीजिंग के लिए बड़ी कूटनीतिक विजय है. अमेरिका अकेला ही हाथ मलता रह गया.” 

शी ने खुद पिछले साल मई में शंघाई में एशिया सुरक्षा शिखर सम्मेलन में विदेश नीति पर अपने पहले बड़े भाषण में कुछ ऐसा ही आभास दिया था. उन्होंने एशिया में एशिया संचालित नए क्षेत्रीय सुरक्षा तंत्र के निर्माण का आह्वान किया. शी ने साफ कहा, “एशिया के लोगों को ही एशिया का इंतजाम देखना है.” लेकिन बीजिंग की समस्या यह है कि यह भावना पूरे एशिया में हर देश में जाहिर नहीं हो रही. चीन के उभार से जापान, फिलीपींस और विएतनाम सशंकित हैं और ये देश अमेरिका के और करीब पहुंच गए हैं. खासकर इन तीन देशों के मामले में चीन ने समुद्री विवाद में कड़ा रुख अख्तियार किया है. एक वजह यह भी है कि वह सोचता है कि अमेरिका उन्हें भड़का रहा है.

बीच का देश
भारत-चीन द्विपक्षीय संबंधों की अपनी अहमियत है लेकिन चीन के लिए भारत को अपने साथ बनाए रखना अमेरिका से जारी उसकी होड़ की जरूरत के तौर पर भी देखा जा रहा है. एक साक्षात्कार में चीनी अधिकारियों और विशेषज्ञों ने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि मोदी जैसा “मजबूत नेता” भारत को श्किसी देश का मोहरा” बनने देगा. हालांकि कुछ चीनियों को डर है कि मोदी भारत को वॉशिंगटन और टोक्यो के करीब लिए जा रहे हैं. यह आशंका भारत को एआइआइबी का संस्थापक सदस्य और सिल्क रोड परियोजना में साझीदार बनाने के लिए चीन की जल्दबाजी में भी दिखाई पड़ती है. एआइआइबी का संस्थापक सदस्य बनने की पेशकश को तो भारत ने स्वीकार कर लिया, लेकिन सिल्क रोड में साझीदार बनने के प्रस्ताव पर वह कुछ सतर्क रवैया अपना रहा है. भारत की ओर से इस परियोजना के और ब्यौरों की जानकारी मांगी गई है. चीन ने भारत के साथ सीमा विवाद पर भी कुछ अलग रुख अख्तियार कर रखा है. उसने जापान और फिलीपींस के खिलाफ तो काफी कड़ा रुख अपना रखा है जबकि भारत-चीन सीमा विवाद को अतीत का बोझ बताकर कुछ नरम रुख दिखा रहा है.

असल में चीन में भारत को एक मायने में प्रतिद्वंद्वी से अधिक क्षेत्रीय दबदबे के लिए अमेरिका से टक्कर में बीच का खिलाड़ी माना जा रहा है. यानी ऐसा देश जिससे चीन सहयोग और होड़ का पेचीदा रिश्ता बनाए रखेगा लेकिन वह यह भी मानता है कि उसके क्षेत्रीय दबदबे को कायम करने में भारत अहम खिलाड़ी है. मसलन, भारत वैश्विक व्यापार संधियों, वित्तीय संस्थानों में सुधार और जलवायु परिवर्तन पर पश्चिम का दबाव घटाने में चीन का उपयोगी सहयोगी हो सकता है. चीन के विदेश मंत्रालय में एशिया विभाग के उप-महानिदेशक तथा भारत संबंधी विषयों के मुख्य प्रभारी हुयांग शीलियान का कहना है कि चीन भारत से अपने रिश्तों को “दशकों नहीं, हजारों साल” के संदर्भ में देखता है. वे कहते हैं, “अतीत में हम साथ-साथ ऊंच-नीच, सहज और असहज दौर से गुजर चुके हैं. हम सोचते हैं कि अब हमारे पास अपनी दो महान सभ्यताओं के पुनरुत्थान का मौका है.” 

सीआइसीआइआर के हू का मानना है कि चीन अगर एशिया में अपनी बड़ी भूमिका स्थापित करना चाहता है और शी के नजरिए को साकार करना चाहता है तो उसे भारत को शर्तिया तौर पर अपने साथ लेकर चलने की जरूरत है, वह भारत को ऐसी स्थिति में नहीं छोड़ सकता कि वह अपने पड़ोस में चीन की योजनाओं को लेकर सशंकित बना रहे. वे कहते हैं, “चीन के लिए बेहतर यही है कि वह भारत के साथ अपने सहयोग में ऐसा संतुलन कायम करे कि भारत चैन महसूस करे, वह चीन को स्वीकार करे. अगर भारत सिल्क रोड से अलग रहता है तो कोई बात नहीं लेकिन भारत अगर उसमें रोड़े अटकाता है तो समस्या होगी. मैं नहीं समझता कि भारत ऐसा करेगा.” 

मोदी-शी समीकरण
मोदी के चीन दौरे के पहले चीन के विदेश नीति विशेषज्ञों के सामने सबसे बड़ी गुत्थी यही है कि भारत और चीन में दो दशकों में पहली दफा दो मजबूत नेताओं के उभरने का क्या असर होगा? पुराने महल के विशाल आंगन में स्थित असरदार थिंक टैंक चाइनीज पीपल्स इंस्टीट्यूट फॉर फॉरेन अफेयर्स के मुखिया, पूर्व राजनयिक यांग वेंचांग बताते हैं कि पिछली बार जब दोनों देशों में भारी जनादेश के साथ दो नेता सत्ता में पहुंचे थे तो भारत और चीन अपने पुराने सीमा विवाद को सुलझाने के करीब पहुंच चुके थे. उन्होंने कहा, “मुझे व्यक्तिगत तौर पर उम्मीद है कि दो मजबूत नेता ही इस समस्या का हल निकाल सकते हैं. 1980 के दशक के आखिरी वर्षों में एक राजनयिक के नाते मैं गवाह हूं कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी और देंग (जो खुद भी एक मजबूत नेता थे) के सामने समस्या के समाधान का एक मौका था. देंग ने कहा, “हम पश्चिम के हिस्से पर कुछ समझौता करते हैं, आप पूरब के हिस्से पर कुछ झुको तो हमारी सीमाएं नई हो सकती हैं.” हमने अपनी ओर से पेशकश भी की लेकिन प्रधानमंत्री गांधी कोई जवाब नहीं दे सके. ” लेकिन बीजिंग में हर कोई इससे सहमत नहीं है. एक पूर्व राजनयिक कहते हैं, “दो मजबूत नेता विवाद का समाधान कर सकते हैं लेकिन दो मजबूत नेता यह भी नहीं चाहेंगे कि अपने घर में समझौते करते दिखें. इसलिए यह कहना मुश्किल है कि हल निकाला जा सकता है.”

मोदी का भारत शी के गणित में कहां माकूल बैठता है, यह इस पर निर्भर करेगा कि दोनों नेता संबंधों को किस हद तक आगे ले जाते हैं. क्या शक-शुबहों से अब भी सीमित रिश्ते में कोई बड़ा बदलाव आएगा? सीआइसीआइआर के हू कहते हैं, “हम औद्योगिक पार्कों, हाइ स्पीड रेल ट्रैक के निर्माण में प्रगति देख चुके हैं. वाकई यह बड़ी प्रगति है. आपके प्रधानमंत्री ने कहा है कि भारत और चीन एक आत्मा, दो शरीर की तरह हैं. यह काफी उत्साहवर्धक और महत्वपूर्ण बयान है. शी सरकार का मानना है कि भारत केसाथ ठोस रिश्ते कायम करना बेहद जरूरी है. व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि आने वाले वर्षों में कोई बड़ी अड़चन नहीं आने वाली है क्योंकि दोनों ही देश विकास पर जोर दे रहे हैं और इस मकसद के लिए दोनों के ही बीच काफी कुछ साझा है. हमारी ओर से, मेरा मानना है कि हम मोदी की मजबूत सरकार का पूरा लाभ उठाना चाहेंगे. इसमें दो राय नहीं कि यह एक बड़ा राजनैतिक मौका है और हम यह भी उम्मीद कर रहे हैं कि मोदी दूसरे कार्यकाल के लिए भी बड़े आराम से चुनाव जीत लेंगे.” बिलाशक ये बातें तो प्रधानमंत्री मोदी के कान में मिसरी घोलती ही लगेंगी.
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