चारों तरफ खेत और उजाड़ मैदानों के बीच दोपहर में सुस्तातीं फुटकर पहाडिय़ां, हेलिकॉप्टर की ऊंचाई से मनोरम दृश्य आंखों में टांक रही हैं. खेतों की हरियाली, मिट्टी का लाल रंग और पहाडिय़ों की धूसर चमक, एक शानदार लैंडस्केप के लिए और क्या चाहिए? लेकिन यह क्या, एक पहाड़ी के गर्भ से सफेद धुआं-सा उठ रहा है. पहाड़ी का एक हिस्सा इस कदर क्षत-विक्षत है, जैसे किसी ने डायनासॉर के शरीर से मांस नोच लिया हो. गौर से देखने पर आस-पास की कुछ और पहाडिय़ां भी ऐसे ही घायल नजर आ रही हैं. जहां से सफेद धुआं उठ रहा है, वहां मोटे पत्थरों से लदे ट्रक नजर आ रहे हैं और यह धुआं पहाड़ से पत्थर काटने की प्रक्रिया में उड़ी पथरीली धूल है. यह तफ्सरा पहले पन्ने पर छपी उस तस्वीर और कैमरे के फ्रेम से बाहर रह गए इलाके का है, जो कुछ महीने पहले राजस्थान के करौली जिले में कैला देवी मंदिर के पास हेलिकॉप्टर से खींची गई. यह तस्वीर देश भर में पहाड़ों को धूल में मिलाने की हरकत की एक छोटी-सी झलक भर है. विकास की जरूरतों के नाम पर देश में पहाड़ों की खुदाई उस स्तर पर पहुंच गई है, जहां दिल्ली से सटे राजस्थान और हरियाणा के इलाकों में अरावली पहाडिय़ों के अब सिर्फ अवशेष नजर आते हैं. कहने को यहां के ज्यादातर इलाके में 10 साल से खनन पर पाबंदी लगी है, फिर भी जिस तरह रह-रहकर सुप्रीम कोर्ट में खनन रोकने की फरियाद होती रहती है, उससे पता चलता है कि अवैध खनन कभी रुकता नहीं. उधर हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार पहाड़ों को बरबाद करने में एक कदम आगे बढ़ गई है. हरियाणा के वन सचिव ने 13 अप्रैल को अपने 12 मार्च के उस आदेश को पलट दिया जिसके तहत अरावली पर्वत शृंखला की ज्यादातर जमीन आधिकारिक रूप से 'वन भूमि' की परिभाषा के दायरे में आ गई थी. वन भूमि का मतलब हुआ कि यहां वन संबंधी कार्य के अलावा अन्य किसी तरह की गतिविधि के लिए केंद्र सरकार से मंजूरी लेनी पड़ती. सरकार ने फिर पुरानी व्यवस्था स्वीकार कर ली, जिसके तहत पहले से चिह्नित वन भूमि को ही स्वीकार किया जाएगा. आदेश में संशोधन से अरावली की पहाडिय़ों को बरबाद करने वाले माफिया के लिए अपना काम करना आसान हो जाएगा.
अगर हरियाणा में अरावली को नष्ट होने देने के लिए सरकार कानूनी रास्ता अपना रही है तो झारखंड की सरकार ने खनन माफिया के प्रति इस कदर आंखें मूंद रखी हैं कि दर्जनों पहाड़ नक्शे से गायब हो गए और सरकार ने सख्ती से यह नहीं पूछा कि 5,000 क्रशर लाइसेंस होने के बावजूद 20,000 क्रशर कैसे चल रहे हैं. उत्तर प्रदेश में तो पिछली बहुजन समाज पार्टी सरकार में खनन मंत्री रहे बाबू सिंह कुशवाहा जेल में हैं और वर्तमान सरकार के खनन मंत्री गायत्री प्रसाद प्रजापति पर आए दिन खनन माफिया को संरक्षण देने के आरोप लगते रहते हैं. बुंदेलखंड में ग्रेनाइट पत्थर के लालच में पहाडिय़ों को डायनामाइट से उड़ाने का सिलसिला बदस्तूर जारी है.
बरबाद होती जमीन
आगे बढऩे से पहले वापस राजस्थान चलें जहां की घायल पहाड़ी से बात शुरू हुई थी. राज्य के अलवर जिले के बारे में वन विभाग की रिपोर्ट में कहा गया है कि यहां भिवाड़ी, टपूकड़ा, तिजारा और किशनगढ़बास इलाके में 2,612 हेक्टेयर वन भूमि की पहाडिय़ां पूरी तरह खत्म की जा चुकी हैं. अब खनन माफिया ने नीमली, बाघोर, देवता, मांछा, जैसे क्षेत्रों में पहाड़ों का नामोनिशान मिटाना शुरू कर दिया है. राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने अब इस इलाके में जेसीबी, ट्रक और ट्रैक्टरों के घुसने पर पाबंदी लगा दी है. पहाड़ न कट सकें, इसलिए और भी सख्त इंतजाम किए जा रहे हैं. अलवर के पुलिस अधीक्षक विकास कुमार का दावा है कि वर्ष 2014 में अवैध खनन के 1,000 से अधिक मामले दर्ज किए गए और 700 लोगों को गिरफ्तार किया गया. लेकिन इस कार्रवाई से पहाड़ अपनी जगह दुबारा तो नहीं उग आएंगे (देखें राजस्थान का ग्राफिक). पहाडिय़ों के इस हश्र के सवाल पर भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआइ) के पूर्व उप-महानिदेशक डॉ. नीतीश दत्ता पलट कर सवाल करते हैं, "आप कैला देवी मंदिर से पूरा राजस्थान पार करते हुए गुजरात के हिम्मत नगर में अंबा देवी मंदिर तक चले जाइए. कहीं बलुआ पत्थर, तो कहीं संगमरमर के लिए पहाड़ काटकर सैकड़ों मीटर के गड्ढे खुले छोड़ दिए गए हैं." यह सब पहली नजर में ही गैरकानूनी और पर्यावरण का नाश करने वाला है. बिना अध्ययन के गायब कर दिए गए पहाड़ इलाके के तापमान में इजाफा कर सकते हैं. पर्यावास में आया असंतुलन खेती के लिए भी खतरा हो सकता है. इस तरह का खनन बड़े पैमाने पर ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में भी होता है, लेकिन वहां जमीन को इस तरह बरबाद करके नहीं छोड़ा जाता. खनन के बाद किसी भी सूरत में गड्ढे को भरने और प्राकृतिक सुंदरता की भरपाई का नियम है. प्रदूषित होता भूजल
अलवर से 600 किमी दक्षिण-पूर्व यानी उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में कबरई पत्थरों की बड़ी मंडी है. यहां पास ही में पचपहरा पत्थर खदान है. यहां कभी 200 मीटर ऊंचा पहाड़ होता था, लेकिन आज यहां 200 मीटर गहरा विशाल गड्ढा है. ग्रेनाइट पत्थरों से लदे दर्जनों ट्रैक्टर पहाड़ में काटी गई सर्पिलाकार ढलानों पर आ-जा रहे हैं. किसान आत्महत्या के लिए बदनाम बुंदेलखंड के इस इलाके में उत्तर प्रदेश में महोबा, बांदा और ललितपुर जिलों और मध्य प्रदेश में पन्ना और छतरपुर जिलों में पहाड़ों के गायब होने का सिलसिला जारी है. तीन साल पहले इस रिपोर्टर ने महोबा में जुझार पहाड़ को बचाने के लिए गांव वालों का संघर्ष देखा था, लेकिन आज न संघर्ष बचा है, न पहाड़. खत्म हुए पहाड़ों की पूरी शृंखला है यहां.
क्या इस तरह पहाड़ गायब किए जा सकते हैं? जवाब में वाडिया इंस्टीटयूट में भूगर्भ विभाग के पूर्व एचओडी और अरुणाचल प्रदेश की राज्य पर्यावरण समिति के पूर्व अध्यक्ष डॉ. त्रिलोचन सिंह कहते हैं, "ये तो होना ही नहीं चाहिए. पहाड़ को खोदने के तय नियम हैं. अगर उनका पालन हुआ होता तो ऐसा हो ही नहीं सकता था." किसी पहाड़ में खनन की अनुमति हासिल करने के पहले तीन साल के फील्ड सीजन का अध्ययन करना होता है. फील्ड सीजन यानी गर्मी, सर्दी और बारिश में उस पहाड़ के आसपास की हवा, जमीन और पानी के बारे में संपूर्ण अध्ययन. जब यह पाया जाता है कि इनमें से किसी भी कारक को पहाड़ हटाने से नुक्सान नहीं होगा, तभी अनुमति दी जाती है. पत्थर काटने के लिए भी पहाड़ 100 फुट से अधिक नहीं खोदा जा सकता. त्रिलोचन सिंह दलील देते हैं, "200 मीटर गहराई तक खोदने से तो इलाके के जलवाही स्रोत चौपट हो जाएंगे." स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ता आशीष सागर इस अंदेशे की पुष्टि करने में देर नहीं लगाते. सागर बताते हैं, "इलाके में भूजल स्तर बेहद नीचे चला गया है. महोबा और आस-पास के कई इलाके डार्क जोन घोषित किए जा चुके हैं." उन्हें साफ लगता है कि पहाड़ों के खत्म होने और इलाके में भूजल का स्तर गिर जाने की दर जिस तरह आपस में मेल खाती है, उससे इन दोनों घटनाओं में जरूर कोई अंदरूनी रिश्ता है.धमाकों से कांपती जिंदगी
वैसे दुख का एक रिश्ता बुंदेलखंड और झारखंड के पहाड़ों के बीच भी है. दोनों जगह पहाड़ों को काटने के लिए ब्लास्ट किया जाता है. इसमें पहाड़ के अलग-अलग हिस्सों में डायनामाइट लगाकर उन्हें वायरिंग से जोड़ दिया जाता है. और फिर एक बटन दबाते ही पहाड़ का बड़ा हिस्सा धमाके से उड़ जाता है. छोटे-बड़े पत्थर हवा में उछल जाते हैं. इलाका गुबार से भर जाता है और कभी-कभी तो पत्थर उछलकर किसी आंगन में गिर जाते हैं. मकानों में दरारें पड़ती हैं, सो अलग. झारखंड में पत्थर के लालच में 80 के करीब पहाड़ तबाह होने के आंकड़े सामने आए हैं (देखें झारखंड का ग्राफिक). पहाड़ों के बेदर्दी से सफाए के बावजूद सरकार के पास अपने बचाव की घिसी-पिटी दलीलें हैं. जैसे झारखंड में खनन विभाग के वरिष्ठ अधिकारी आनंद मोहन ठाकुर कहते हैं कि पिछले छह महीने में अवैध खनन के 800 मामले दर्ज किए गए हैं. इस तबाही पर टिप्पणी करते हुए दिल्ली के इंस्टीटयूट ऑफ नेचुरल रिसोर्स के डायरेक्टर (माइनिंग ऐंड मेटल्स) के.बी. त्रेहन कहते हैं, "पहाड़ और फिर जमीन के भीतर गहराई तक पत्थर निकालने के लिए किए जाने वाले धमाके निश्चित तौर पर बहुत-सी ऊर्जा, जबरदस्त दबाव के साथ धरती के भीतर छोड़ते हैं. इससे इलाके की इमारतों के लिए स्थायी खतरा पैदा होता है." भूकंप जैसे हालात में इन इलाकों की इमारतों को सामान्य इमारतों से ज्यादा खतरा होता है. लेकिन पहाड़ों के साथ हो रही यह ज्यादती भौतिक समस्याओं के साथ सांस्कृतिक ताने-बाने को भी तार-तार कर रही है. झारखंड के डॉ. करमा ओराव की सुनिए, "आदिवासी प्रकृति के सबसे बड़े संरक्षक होते हैं और इसकी पूजा करते हैं. हम पहाड़ को भगवान मानते हैं और हमारे भगवान स्टोन क्रशर में पिस रहे हैं." झारखंड के ही साहेबगंज कॉलेज में भूविज्ञान के शिक्षक रणजीत सिंह समझाते हैं, "ताजमहल की पर्वत शृंखला में जानवरों के जीवाश्म खूब मिलते हैं. लेकिन मेरे देखते-देखते 2012 में इसका अमरजोला पहाड़ पूरी तरह खत्म हो गया और साथ ही प्रागैतिहासिक काल का अध्याय भी."
कैला देवी मंदिर के पास की घायल पहाड़ी से पलायन कर चुके पक्षी, महोबा में गिर गया जल स्तर और झारखंड में लुप्त हो गए दुर्लभ जीवाश्म पूछ रहे हैं कि कहीं वर्तमान संवारने की धुन में हम भविष्य तो चौपट नहीं कर रहे. आखिर यह कहां का इंसाफ है कि शहर की नींव में पहाड़ को दफन कर दिया जाए.
(साथ में राजेंद्र शर्मा और आभा भारती)
जानें किस तरह धूल में मिल रहे हैं पहाड़
देश भर में खनन माफिया के हौसले इस कदर बुलंद हैं कि वे विशालकाय पहाड़ों को चंद दिनों में ही धुआं कर दे रहे हैं.

अपडेटेड 5 मई , 2015
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