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चिट फंड के फर्जीवाड़े की पूरी हकीकत

संदिग्ध चिट फंड कंपनियों ने देश के चार राज्यों में नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए निवेशकों को 60,000 करोड़ रु. का चूना लगाया.

शारदा समूह के चेयरमैन सुदीप सेन गुप्ता के खिलाफ कोलकाता में प्रदर्शन करते निवेश और एजेंट
शारदा समूह के चेयरमैन सुदीप सेन गुप्ता के खिलाफ कोलकाता में प्रदर्शन करते निवेश और एजेंट
अपडेटेड 4 मार्च , 2015

लालच किसे कहते हैं, यह कुलमणि नाहा से पूछें. वे ही बता सकते हैं कि इस शब्द का एहसास कैसा होता है. ओडिसा सरकार के कपड़ा विभाग से 2012 में रिटायर हुए 62 वर्षीय नाहा का सपना था कि बाकी जिंदगी वे भुवनेश्वर में अपने परिवार के साथ चैन से बिताएंगे, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. पिछले दो साल से वे वकीलों के चक्कर लगा रहे हैं और मुकदमेबाजी में उनकी बची-खुची उम्र घिसती जा रही है. जब कभी पैसे की जरूरत होती है, उनके सामने परिवार और मित्रों के आगे हाथ फैलाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता. उनकी गलती बस इतनी थी कि वे थोड़े ज्यादा ब्याज के लालच में फंस गए और अर्थ तत्व समूह नामक कंपनी में अपने जीवन की जमा पूंजी यानी 30 लाख रु. लगा बैठे.

अर्थ तत्व भुवनेश्वर में पंजीकृत कंपनी है जो 2010 से ओडिसा और बंगाल में काम कर रही थी. इसका दावा था कि यह आवास और इन्फ्रास्ट्रक्चर समेत अन्य क्षेत्रों में काम करती है. नाहा जैसे निवेशकों से इसने निवेश पर 18 फीसदी सालाना ब्याज पर पैसे चुकाने का वादा किया था. दो साल बाद नाहा को पता चला कि उनके निवेश में कुल दो लाख रु. का ही इजाफा हुआ है. इसके बाद कंपनी भाग गई. नाहा कहते हैं, ''मैं सड़क पर आ गया हूं. अब पैसे के लिए मैं अपने परिजनों और दोस्तों पर निर्भर हूं.''

पश्चिम बंगाल के उत्तरी 24 परगना जिले के बारासात में कोचिंग सेंटर चलाने वाले 46 वर्षीय सुभाष चंद्र घोष के लिए सिर्फ ज्यादा ब्याज का आकर्षण नहीं था बल्कि 20 फीसदी के कमीशन का वादा भी था जो सन हेवन एग्रो इंडिया लिमिटेड नाम की कंपनी ने उनसे हर नया निवेशक लाने के एवज में किया था. उन्होंने बारासात की इस कंपनी में 1.75 लाख रु. का निवेश किया जबकि पड़ोस के इचापुर जिले के सुरंजन मंडल ने न सिर्फ पांच लाख रु. का निवेश किया बल्कि कंपनी के एजेंट भी बन गए. सन हेवन 2013 में हजारों लोगों की कमाई लेकर डूब गई.

इनके अलावा ओडिसा के खेरडा से सनातन बहेरा जैसे कुछ दिहाड़ी कमाने वाले लोग भी हैं जिन्होंने सिस्टेमेटिक फंड मैनेजमेंट लिमिटेड नाम की कंपनी में दो साल के भीतर 15,000 रु. जमा किए थे. कंपनी ने सालाना 13.5 फीसदी ब्याज का वादा किया था. यही कहानी सियालदह के 49 वर्षीय कारोबारी किंजल भट्टाचार्य, बालासोर की 45 वर्षीया विधवा सरस्वती दास, नदिया के 45 वर्षीय एलआइसी एजेंट देबाशीष हालदार और असम के ढुबरी जिले के 71 वर्षीय शौकत अली जैसे सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी की है.

यह फेहरिस्त इतनी लंबी है कि एक हद के बाद नामों का कोई मतलब नहीं रह जाता. जिन कंपनियों में उन्होंने निवेश किया, न तो वे और न ही उनकी डूबी रकम का भी कोई अर्थ रह जाता है. ओडिसा, बंगाल, असम और त्रिपुरा के पूर्वी गलियारे में वित्तीय घोटालों का एक ऐसा परिचित जाल है जो यहां के मध्यवर्ग की त्रासदी बन चुका है. यहां पिछले एक दशक में दर्जनों की संख्या में कुकुरमुत्ते की तरह घोटालेबाज पैदा हुए और कमजोर लोगों का पैसा डकार गए. संयोग नहीं है कि यह इलाका आर्थिक और वित्तीय रूप से काफी पिछड़ा रहा है, जहां लोगों के पास निवेश के लिए साफ-सुथरे विकल्प कम मौजूद रहे हैं. जाहिर है, घोटाले की उर्वर फसल काटने के लिए इससे अच्छी जमीन नहीं मिल सकती थी.

बंगाल में असरदार और ताकतवर लोगों की संलिप्तता की वजह से जहां शारदा चिटफंड घोटाला सुर्खियों में बना रहा, वहीं सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय का दावा है कि पिछले आठ साल के दौरान शारदा समेत कुल 194 संदिग्ध कंपनियों ने करोड़ों लोगों का 60,000 करोड़ रु. डकार लिया. इस घोटाले का बुलबुला पिछले ही साल फूटा है. यह फर्जीवाड़ा कितना बड़ा है, इसका अंदाजा लगाने के लिए बस इतना जानना काफी होगा कि इसके मुकाबले 2010 का कॉमनवेल्थ घोटाला सिर्फ 5,000 से 8,000 करोड़ रु. के बीच का था, जबकि 2009 में सत्यम कंप्यूटर्स नामक कंपनी में हुआ घोटाला 24,000 करोड़ रु. के करीब था, जिसे भारत का सबसे बड़ा कॉर्पोरेट घोटाला कहते हैं. सहारा समूह के पास भी निवेशकों के 24,000 करोड़ रु. हैं, जिसके प्रमुख सुब्रत रॉय जेल में हैं.

यह मामला सिर्फ पैसे के नुक्सान से नहीं जुड़ा है. पुलिस की मानें तो यह पता चलने के बाद कि उनके पैसे डूब गए हैं, चार राज्यों में 106 लोगों ने अब तक खुदकुशी कर ली है. इन घोटालों से जुड़े सबूतों के ढेर में छानबीन कर रहे जांचकर्ताओं का कहना है कि इस जटिल तंत्र के भीतर राज्य सरकार के अफसर, सांसद, विधायक और बैंक कर्मचारी किस्म के लोग शामिल हैं. सीबीआइ ने ओडिसा में 44 और बंगाल में 13 एफआइआर दर्ज की हैं, जबकि प्रवर्तन निदेशालय पैसे की हेराफेरी से जुड़े कानून मनी लॉन्डरिंग ऐक्ट के तहत चार मामलों की छानबीन कर रहा है. सीबीआइ ने ऐसे मामलों में कुल 46 लोगों को गिरफ्तार किया है जबकि पांच लोग प्रवर्तन निदेशालय की हिरासत में हैं. इनसे जुड़ी 1,500 करोड़ रु. की संपत्ति जब्त की है. यह लालच अगर आपराधिक नहीं है, तो फिर और क्या है?

आतंक से फुटबॉल तक
मामला बस इतना नहीं है कि ज्यादा ब्याज का झांसा देकर लोगों को फांसा जाए और फिर कंपनी उनके पैसे लेकर चंपत हो जाएं. इन जालसाजों ने इन पैसों को कहीं खतरनाक कामों में भी लगाया.सीबीआइ और ईडी के अफसर अब यह जांच करने में जुटे हैं कि शारदा मामले में गिरफ्तार किए गए तृणमूल कांग्रेस के नेता मदन मित्रा ने क्या जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश नाम के प्रतिबंधित आतंकी समूह के कथित सदस्य रिजाउल करीम का इस्तेमाल चिट फंड एजेंट के रूप में निवेशकों को लुभाने के लिए किया था. माना जाता है कि करीम बम बनाने का जानकार है और पिछले साल बंगाल के बर्धमान जिले में हुए बम धमाकों के सिलसिले में राष्ट्रीय जांच  एजेंसी (एनआइए) ने उसे गिरफ्तार किया था. माना जाता है कि करीम ने गौतम कुंडूर से भी मुलाकात की थी जो ओडिसा के रोज वैली समूह में निदेशक है और जिस के ऊपर 15,000 करोड़ रु. के घोटाले का आरोप है. मित्रा का दावा है कि इस मामले में जिस करीम का नाम आ रहा है वह उनके लिए काम करता था और वह आतंकी संगठन का सदस्य नहीं है. कुंडूर का दावा है कि जिस करीम से उनकी मुलाकात 2011 में हुई थी वह बांग्लादेश का एक निवेशक था.

सीबीआइ और ईडी इस बात का भी पता लगा रहे हैं कि क्या विजय माल्या के ईस्ट बंगाल फुटबॉल क्लब और यूनाइटेड मोहन बागान क्लब को शारदा समूह की ओर से प्रायोजक के तौर पर छह करोड़ रु. दिए गए थे. संदेह है कि यह पैसा एक अन्य खाते में डाल दिया गया था जहां से उसका इस्तेमाल इंडियन प्रीमियर लीग (आइपीएल) में शामिल विदेशी खिलाडि़यों को भुगतान में किया गया. यूनाइटेड ब्रूअरीज के प्रवक्ता सुमंतो भट्टाचार्य ने बताया कि कंपनी को इस संदिग्ध प्रायोजक के दिए छह करोड़ के बारे में ''कोई जानकारी नहीं है.'' भट्टाचार्य ने इंडिया टुडे को भेजे एक मेल में लिखा, ''रोजमर्रा का प्रबंधन क्लबों के हाथ में होता है. उन्हीं से पूछा जाना चाहिए.'' उन्होंने इस आरोप से भी इनकार किया कि दोनों क्लबों को मिले पैसे का इस्तेमाल आइपीएल के खिलाडि़यों को भुगतान में किया गया. उन्होंने कहा, ''आरसीबी (रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरू) का युनाइटेड मोहन बागान या यूनाइटेड ईस्ट बंगाल से कोई लेना-देना नहीं है. सभी खिलाड़ियों को होने वाला भुगतान आइपीएल की निगरानी और लेखा परीक्षण से गुजरता है ताकि नीलामी की सीमा का पालन किया जा सके.''

झूठ का दुष्चक्र
चारों राज्यों में जांच कर रहे जांचकर्ताओं का कहना है कि कुल एक करोड़ निवेशकों को जो चूना लगा है, उनमें ज्यादातर गरीब लोग हैं या फिर गांवों-कस्बों के निम्न मध्यवर्गीय लोग हैं. इनमें से कई की पहुंच औपचारिक बैंक चैनलों तक नहीं थी. दूसरी ओर नई कंपनियां सालाना 12 से 40 फीसदी के बीच के ब्याज की पेशकश कर रही थीं और बड़े पैमाने पर विज्ञापन और प्रायोजकों के सहारे प्रचार करती थीं. कोलकाता स्थित ऑल इंडिया स्मॉल डिपॉजिटर्स ऐंड फील्ड वर्कर्स प्रोटेक्शन कमेटी के समन्वयक सुबीर डे कहते हैं, ''कुछ महीने पहले तक इन लोगों के लिए बैंक खाते खुलवाना बहुत मुश्किल होता था क्योंकि केवाइसी के मानक बहुत कठोर थे. इनमें से कई के पास तो वैध पहचान पत्र नहीं हैं.''

भारी रिटर्न के वादे के अलावा ये कंपनियां एजेंटों के अनौपचारिक चैनल के माध्यम से भी काम करती थीं. भले ही इनमें से अधिकतर कंपनियां विज्ञापन में किए दावों के मुताबिक कोई वैध कारोबार भी नहीं करती थीं फिर भी वे आरंभिक निवेशकों को बाद के निवेशकों से जुटाए पैसे से कुछ भुगतान करने में कामयाब थीं या फिर उन्होंने आरंभ में जुटाया मूलधन ही ईमानदारी से लौटा दिया. इससे इनके पक्ष में विश्वास का माहौल बना और निवेशक उनसे जुड़े रहे. बारासात के घोष बताते हैं, ''उन्होंने मुझसे कंपनी का एजेंट बनने को कहा और इसके बदले में 20 फीसदी कमीशन का वादा किया.'' इस कंपनी की असम, ओडिसा और बिहार के सुदूर इलाकों में 17 शाखाएं थीं. इचापुर के मंडल कहते हैं, ''उन्होंने कहा था कि हर 100 रु. के निवेश पर वे हमें 70 पैसे का कमीशन देंगे.''

निवेशकों को लुभाने के कई दूसरे देसी और नए तरीके भी थे. सबसे बड़ी घोटालेबाज़ योजनाओं में से एक के कथित दोषी रोज वैली समूह ने अपना जाल बिछाने के लिए जमा राशि पर भारी ब्याज के अलावा जमीन, अपार्टमेंट और यात्राओं का भी वादा किया था. संभावित निवेशकों को बताया गया था कि वे एकमुश्त या किस्तों में भुगतान कर के जमीन और अपार्टमेंट खरीद सकते हैं और यात्रा पर जा सकते हैं. इसके साथ ही तय अवधि के अंत में अपने मूलधन समेत ब्याज मिलने का वादा भी निवेशक से किया गया था. रोज वैली के पास पश्चिम बंगाल के राजरहाट, दुर्गापुर, सालबोनी, झारग्राम, बांकुड़ा, सालतोरा, बागनान, मालबजार, सिलीगुड़ी, बीरभूम, मालदा, रानाघाट समेत ओडिसा, त्रिपुरा और मध्य प्रदेश में भी काफी जमीन थी. कुछ निवेशकों को हालांकि जमीन आवंटित की गई थी लेकिन बाद में ये आवंटन खानापूर्ति वाले निकले. कंपनी ने इसके अलावा होटलों और ट्रैवल फर्मों के साथ भी गठजोड़ किया था ताकि अपने जमाकर्ताओं को छुट्टियों पर भेज सके.

सीबीआइ को शारदा समूह की जांच का आदेश देते समय सुप्रीम कोर्ट ने एक फॉरेन्सिक ऑडिट रिपोर्ट का संदर्भ दिया था. इसमें इन कंपनियों के काम करने के चौंकाने वाले तरीकों का उद्घाटन होता है. यह रिपोर्ट हैदराबाद स्थित चार्टर्ड अकाउंटेंट फर्म शरत ऐंड एसोसिएट्स ने फरवरी 2014 में सेबी को सौंपी थी. रिपोर्ट के मुताबिक जो गरीब निवेशक 100 रु. तक की मामूली राशि का निवेश करते, उन्हें एक माह बाद परिपक्वता राशि दे दी जाती थी जिससे उन्हें वास्तव में भरोसा हो जाता कि उन्हें किया गया वादा पूरा हुआ है. रिपोर्ट कहती है, ''निवेशक को यह बात समझ में नहीं आती कि यह 100 रु. की राशि निवेश का रिटर्न थी न कि निवेश पर रिटर्न थी.'' रिपोर्ट कहती है कि शुरुआती निवेशकों को वादा की गई राशि मिलने के बाद ''निवेश योजना का प्रचार करने वाले के वास्तविक होने का भरोसा कायम होता है और निवेशक के दोस्तों और परिजनों में भी निवेश करने की लालसा पैदा हो जाती है.''

यह दुष्चक्र हालांकि लंबे समय तक नहीं ठहरता. चूंकि इन कंपनियों के पास कोई वैध कारोबार नहीं होता इसलिए योजना तभी तक चलती है जब तक नकद का प्रवाह नए निवेशकों की ओर से आता रहता है. जैसे ही पुराने निवेशकों की संख्या नए निवेशकों को पार कर जाती है और नकद प्रवाह में असंतुलन पैदा हो जाता है, तीन नतीजे सामने आ सकते हैं. शरत ऐंड एसोसिएट्स की रिपोर्ट कहती है, ''पहला, निवेश योजना का प्रचारक अपने साथ पैसे लेकर गायब हो जाता है. दूसरे, योजना अपने ही भार से ढह जाती है, प्रवर्तकों को वादे के मुताबिक पैसे देने में दिक्कत आने लगती है और जैसे-जैसे यह बात फैलती है, ज्यादा से ज्यादा लोग अपनी रकम मांगने लग जाते हैं जिससे भागमभाग की हालत पैदा हो जाती है. तीसरी स्थिति यह है कि निवेश योजना के प्रवर्तक हार मानकर अपनी गलती स्वीकार कर लेते हैं.''

फिलहाल जो घोटाले खुलकर सामने आ रहे हैं, उनमें एक बड़ा अंतर यह है कि जमा राशि जुटाने में कंपनियों के कथित राजनैतिक संपर्क उजागर हुए हैं. जांचकर्ताओं का कहना है कि शारदा घोटाले से यह बात रेखांकित हुई है. हालांकि अब तक जो बात परिदृश्य से गायब रही है वह यह है कि इन योजनाओं के पैसे को कैसे अर्थव्यवस्था के विविध क्षेत्रों में लगाया गया: जैसे निर्माण और रियल एस्टेट, खेलों को प्रायोजित करने में, अखबारों और टीवी चैनलों में, फिल्म अभिनेताओं, पेंटरों और अन्य हस्तियों से अनुबंध में, होटल और पर्यटन में, स्वास्थ्य सेवाओं और माइक्रो फाइनेंस जैसे क्षेत्रों में.

चिट फंडों और जमा योजनाओं की निगरानी, लेखा परीक्षण और नियमन का क्षेत्र ऐसा है जहां केंद्र की सरकारें और स्वतंत्र अधिकरण हमेशा ही निवेशकों के मामले में नाकाम होते आए हैं. कुछ राज्यों ने भले ही जनता से पैसे जुटाने के खिलाफ कानून पारित किए हों, लेकिन एक केंद्रीय कानून के अभाव के चलते हुआ यह है कि संदिग्ध कंपनियां उन राज्यों में अपनी दुकानें खोल लेती हैं जहां ऐसे कानून नहीं हैं और नियमन वाले राज्यों में अपने कारोबार का विस्तार कर लेती हैं. जांचकर्ताओं का कहना है कि ऐसे फर्जी फंडों का भंडाफोड़ करने में राज्यों के साथ मिलकर काम करने में काफी समय बर्बाद हो जाता है जिस वजह से घोटालेबाज पैसे लेकर उड़ जाते हैं.
ओडिसा में ऐसी कंपनियों ने ओडिसा स्वयंसहायता सहकारी कानून में मौजूद खामियों का फायदा उठाया है. इसकी आड़ में चिट फंड कंपनियां कुकुरमुत्ते की तरह उग आईं. पिछले साल 31 मार्च तक राज्य में कुल 979 ऋण और बहुउद्देश्यीय स्वयं सहायता सहकारी सोसाइटियां या चिट फंड इस कानून के तहत पंजीकृत थे, जिसके बाद कानून को वापस ले लिया गया.

ऑल इंडिया स्मॉल डिपॉजिटर्स ऐंड फील्ड वर्कर्स प्रोटेक्शन कमेटी के वकील सुबाशीष चक्रवर्ती कहते हैं, ''आरबीआइ, सेबी, सीरियस फ्रॉड ऑफिस और ईडी की ओर से लचर जांच के कारण जरूरी हो गया है कि अब केंद्रीय नियामक समिति बनाई जाए. हमने अपनी याचिका में कहा है कि इन तमाम इकाइयों को एक छत के नीचे होना चाहिए. जरूरत पड़ने पर एक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश को इसका आयुक्त बनाया जा सकता है. जिनके पैसे गए हैं कम-से-कम उन्हें उनके पैसे वापस तो मिलने ही चाहिए.''

यह मांग अतीत में एक नहीं कई बार की जा चुकी है, लेकिन देश के वित्तीय महकमे के भीतर मचे आंतरिक संघर्ष की वजह से बार-बार इसे दफना दिया जाता रहा है. लोगों को संगठित वित्तीय व्यवस्था से जोड़ने और सुशासन के प्रति वचनबद्ध एक सरकार के केंद्र में आने के बाद यह सही समय है कि पुरानी फाइलों की धूल झाड़ी जाए और एक राष्ट्रीय पैनल का गठन किया जाए. लुटे-पिटे निवेशकों को उनका मूलधन अगर वापस नहीं भी मिल सका, तब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि भविष्य में ऐसा फर्जीवाड़ा न होने पाए.

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