इक्कीस फरवरी को एक अनोखी बात हुई: अपने पुराने प्रतिद्वंद्वियों मुलायम सिंह यादव के पोते तेज प्रताप सिंह यादव और लालू प्रसाद की बेटी राजलक्ष्मी के तिलक समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल हुए. हालांकि प्रतिद्वंद्वियों के पारिवारिक समारोहों में भाग लेना दिल्ली दरबार के लिए आम बात है. सच तो यह है कि सभी राज्यों की राजधानियों में भी ऐसा होता रहता है. लेकिन बीजेपी पर नजर रखने वाले पुराने जानकार कहते हैं कि मोदी के लिए यह आम बात नहीं थी.
हालांकि मुलायम सिंह के गढ़ सैफई तक मोदी की यात्रा की वजह समझना मुश्किल नहीं है. संसद का बजट सत्र शुरू होने में सिर्फ दो दिन बाकी थे. ऐसे में तमाम विधेयकों का भाग्य राज्यसभा में विपक्षी एकता के स्तर पर निर्भर है, जहां एनडीए अल्पमत में है. डर है कि यह सत्र भी बहुत कुछ शीतकालीन सत्र की तरह ही न हो जाए, जिसमें विपक्षी सांसदों ने राज्यसभा को उसके निर्धारित समय से सिर्फ 59 प्रतिशत समय काम करने दिया था और प्रमुख विधेयकों को अटका दिया था. इसके विपरीत, लोकसभा ने अपने सूचीबद्ध समय के 98 प्रतिशत तक काम किया, जहां एनडीए का विशाल बहुमत है. इसलिए जरूरी था कि मुलायम सिंह के साथ संबंध मधुर किए जाएं, जिनकी पार्टी के ऊपरी सदन में 15 सदस्य हैं.
ये नए मोदी हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री से बिल्कुल अलग, जो विपक्ष को कुचलकर रख देते थे, उसे सदन में इस तरह चीखने-चिल्लाने का मौका तक नहीं देते थे. उनकी सरकार ने आम चुनाव से कुछ ही महीने पहले अक्तूबर, 2013 में लोकायुक्तविधेयक पारित किया था, जिसमें सदन के कार्य में बाधा डालने पर पूरे विपक्ष को दिन भर के लिए निलंबित कर दिया गया था. ये मोदी शीतकालीन सत्र के प्रधानमंत्री से भी अलग हैं, जिन्होंने उस समय टस से मस होने से इनकार कर दिया था, जब विपक्षी सांसदों ने अन्य मुद्दों के अलावा पुनर्धर्मांतरण के मुद्दे पर उनके बयान की मांग करते हुए कार्यवाही बाधित की थी.
शुरुआत में तो लगता था कि लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत के बाद विधानसभा चुनावों में लगातार सफल होते आ रहे मोदी अपने साथ गांधीनगर जैसा सख्त रवैया नई दिल्ली ले आए हैं. मोदी विपक्ष और अपनी पार्टी में भी नाक-भौं सिकोड़ने वालों के लिए पहुंच के बाहर थे. उनकी सरकार ने राज्यसभा में विपक्ष के बहुमत के प्रति बेफिक्री का संकेत देते हुए शीतकालीन सत्र खत्म होने के बाद जल्द ही कई सारे अध्यादेश जारी कर दिए थे.
लेकिन लगता है कि इस साल फरवरी में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों ने तस्वीर को बदल दिया है. एक झटके के बाद मोदी सरकार पुरानी दिल्ली-शैली की आम सहमति की राजनीति में हाथ आजमाने की कोशिश कर रही है. वही तरीका, जो संसद के अंदर और बाहर दोनों जगहों पर, सत्ता और विपक्ष के खंडित रिश्तों को पुनर्व्यवस्थित करने में अक्सर मददगार साबित होता रहा है. कम-से-कम कागजी तौर पर तो ऐसा होता ही रहा है.
यह बात 24 फरवरी को ही स्पष्ट हो गई थी कि सरकार की यह आशंका बेवजह नहीं थी. जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के सदन की संयुक्त बैठक को संबोधित करने के एक दिन बाद पूरा विपक्ष-कांग्रेस, सपा, बीएसपी, सीपीएम, टीएमसी और जेडी (यू)- तीन विधेयकों को वापस लेने के खिलाफ एक साथ विरोध प्रदर्शन करने लगा. ये विधेयक थे: बीमा कानून (संशोधन) बिल, कोयला खदान (विशेष प्रावधान) बिल और मोटर वाहन (संशोधन) विधेयक. सरकार को कदम पीछे लेने पड़े. टीएमसी, वाम दल और सपा तो बीमा विधेयक के पुराने विरोधी माने जाते हैं. कांग्रेस को आपत्ति कोयला खदान विधेयक पर है.
संभव है कि इस पूरे सत्र के दौरान भी इन विधेयकों को लेकर तनातनी बनी रहे. लेकिन हंगामा बरपा है भूमि अधिग्रहण विधेयक में नए संशोधन को लेकर, जिसका नया नाम 'भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकार और पारर्दिशता का अधिकार (संशोधन) विधेयक 2015,' रखा गया है. विधेयक पेश करने के लिए स्पीकर की अनुमति मांगने के फौरन बाद ही समूचे विपक्ष ने नारेबाजी और विरोध प्रदर्शन करते हुए सदन से वॉकआउट कर दिया. निचले सदन में बीजेपी की ताकत को देखते हुए सरकार के लिए इसे पारित करा लेना संभव है. जेडी (यू) अध्यक्ष शरद यादव ने राज्यसभा में यहां तक कह डाला, ''सरकार विपक्ष को रौंद डालने पर आमादा है.'' लेकिन असली बाधा होगी ऊपरी सदन में.
हालांकि अगर विपक्ष विधेयकों को अटकाता रहा तो शीर्ष सरकारी सूत्र संसद का संयुक्त अधिवेशन बुलाने की संभावना से इनकार नहीं करते. ठीक इसी मोड़ पर नई, संशोधित मोदी रणनीति सामने आती है: मीठी-मीठी बातों से विपक्षी नेताओं को चुनिंदा सहयोग की दिशा में बढ़ाने का प्रयास. सरकारी अधिकारी बताते हैं कि मोदी ने संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू को बजट सत्र की पूर्व संध्या पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलने के लिए भेजा. सत्र के पहले दिन मोदी खुद गलियारा पार करके गए और उन्होंने सोनिया गांधी और मुलायम सिंह यादव, मल्लिकार्जुन खड़गे और बीजू जनता दल के भतृर्हरि मेहताब सहित अन्य विपक्षी नेताओं का अभिवादन किया. ऐसा करके उन्होंने संकेत दिया कि वे शीतकालीन सत्र में विपक्ष की मांगों पर अपनी असहयोगात्मक चुप्पी से पीछे हटे हैं और अब सहयोग चाहते हैं.
दोनों सदनों में इस आशय के पर्याप्त संकेत थे कि बीजेपी के नेता विपक्ष की कतारों से संभावित पालाबदलुओं को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. इसका सबसे अच्छा साक्ष्य मिला राज्यसभा में. जब कांग्रेस के उपनेता आनंद शर्मा भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर बोल रहे थे तो वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपनी सर्वश्रेष्ठ जुझारू क्षमता का परिचय दिया. लेकिन इसी मुद्दे पर बीएसपी नेता मायावती और सपा सदस्य राम गोपाल यादव के भाषणों के दौरान बीजेपी सदस्यों को टोकाटोकी करने से रोकने के लिए संसदीय मामलों के राज्यमंत्री मुख्तार अब्बास नकवी निर्देश देते नजर आए. अब इस बारे में जरा भी संदेह नहीं रह गया था कि सरकार राज्यसभा में संकट से बाहर निकलने के लिए इन दो दलों पर आस लगाए हुए है. पिछली यूपीए सरकार के साथ भी इन दलों का महत्वपूर्ण विधेयकों के मौकों पर मेलजोल रहा था.
वास्तव में जेटली इससे भी दो कदम आगे गए. वे इन दोनों नेताओं को और खुश करने के लिए उठाए गए मुद्दों का जवाब देने के लिए उठकर खड़े हुए. मायावती ने कहा, ''2013 का भूमि अधिग्रहण विधेयक सभी राजनैतिक दलों की सहमति के साथ लाया और पारित किया गया था. लेकिन ये (नवीनतम) संशोधन किसान विरोधी है.'' उनकी आशंकाओं का निवारण करते हुए जेटली ने कहा कि संशोधनों से किसानों को फायदा होगा. यादव ने यह कहकर सरकार की खिंचाई की कि उसने एक अहम विधेयक से जुड़े ऐसे महत्वपूर्ण संशोधनों के मुद्दे पर अन्य राजनैतिक दलों को विश्वास में नहीं लिया. जेटली ने इसे एक बहुमूल्य सुझाव करार दिया और यादव को आश्वासन दिया कि सरकार इस पर काम करेगी.
शीर्ष सरकारी पदाधिकारियों का कहना है कि जेटली के आश्वासन का अनिवार्य अर्थ सर्वदलीय बैठक आयोजित करना नहीं है. इसका अर्थ यह है कि सरकार विभिन्न दलों के प्रतिनिधियों के साथ एक-एक कर सलाह-मशविरे की संभावना का पता लगाएगी. 25 फरवरी को गृह मंत्री राजनाथ सिंह को राज्यसभा में शरद यादव तक पहुंचते और उन्हें लॉबी में एक तरफ ले जाते हुए देखा गया था. अनुमान लगाया जा सकता है कि उनमें इसी मुद्दे पर चर्चा हुई होगी.
लेकिन अण्णा हजारे की मुहिम के अतिरिक्त संघ परिवार के अपने किसान संगठन भारतीय किसान संघ ने भी इस पर आपत्ति की है. इसे देखते हुए लगता है कि बीजेपी नेताओं को एहसास हो गया है कि गुस्सा शांत होने में थोड़ा समय लग सकता है. लेकिन इस मुद्दे पर पार्टी का इरादा पक्का लगता है. संशोधनों का सकारात्मक पक्ष रखते हुए 24 फरवरी को पार्टी सांसदों को संबोधित करते हुए मोदी ने कथित तौर पर उनसे कहा कि जो पार्टी दीनदयाल उपाध्याय के सिद्धांतों को मानती है, वह कभी किसानों के हितों के खिलाफ नहीं जा सकती.
गठबंधन के भागीदार दलों—शिवसेना, अकाली दल और लोक जनशक्ति पार्टी के संशोधनों का विरोध किया जाना उनके अपने-अपने समर्थक वर्गों को खुश करने का मामला भर हो सकता है. सरकार के वरिष्ठ पदाधिकारियों का ध्यान विपक्षी सुर को शांत करने पर ज्यादा केंद्रित है. उन्हें कांग्रेस से जरा भी लचीलेपन की उम्मीद नहीं है, लेकिन वे कहते हैं, ''अन्य महत्वपूर्ण विपक्ष'' -यानी सपा, बीएसपी, एनसीपी और अन्य क्षेत्रीय पार्टियों—के साथ विचार-विमर्श जारी है. ये दल अतीत में भी महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने में मदद के लिए सरकार के निजी संकेतों का सटीक जवाब देते रहे हैं.
सरकार एक समानांतर रणनीति पर भी विचार कर रही है: ज्यादा विवादास्पद विधेयकों को लोकसभा में पेश करवा कर पारित करवा लिया जाए और अगर विपक्ष राज्यसभा में एकजुट रहता है तो उस पर नैतिक दबाव डाला जाए. यह नया रास्ता होगा, जो जरूरी नहीं कि मोदी और उनकी सरकार के लिए खुशनुमा भी हो.
मोदी का नया मंत्र: विपक्ष के साथ भी गलबहियां
अपने राजनैतिक करियर में शायद अब पहली बार मोदी को सहयोग की राह पर चलना ही होगा. क्या वे भूमि अधिग्रहण और अन्य विवादास्पद विधेयकों को पारित करा सकते हैं?

अपडेटेड 2 मार्च , 2015
Advertisement
Advertisement