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नए दौर के नए कहानीकार

जानें किस तरह हिंदी किताबों की मार्केटिंग से लेकर कहानियां, भाषा और संवेदनाएं, सब कुछ बदल रही है युवा हिंदी कहानीकारों की फ्रेश पीढ़ी.

अपडेटेड 24 फ़रवरी , 2015

इस साल जनवरी में जब युवा लेखक सत्य व्यास का उपन्यास बनारस टॉकीज रिलीज हुआ, तो उसके प्रकाशक हिंद युग्म ने दावा किया कि उस किताब की 1,268 प्रतियां पहले ही बुक हो चुकी हैं. इसी तरह जुलाई, 2014 में रीलीज से पहले अनु सिंह चौधरी की किताब नीला स्कार्फ की भी 1,500 प्रतियां बुक हो चुकी थीं. दिव्य प्रकाश दुबे से लेकर आशीष चौधरी जैसे युवा लेखकों की किताबों के बारे में भी ऐसी ही स्थिति थी. बिक्री को तरसने के लिए बदनाम हिंदी साहित्य की किताबों को लेकर यह नया ट्रेंड है.

हिंद युग्म के संपादक शैलेष भारतवासी बताते हैं, ''हिंदी किताबों की प्री बुकिंग बिल्कुल ताजा और अपूर्व ट्रेंड है. इसकी वजह हिंदी किताबों की ऑनलाइन खरीदारी का बढ़ता चलन तो है ही, सबसे महत्वपूर्ण है इन नए लेखकों का कॉर्पोरेट और मार्केटिंग की दुनिया से जुड़ा होना. वे पेशेवर तरीके से अपनी किताबों को प्रोमोट कर रहे हैं.''

यह हिंदी साहित्य में सूचना क्रांति के औजारों से लैस नई पीढ़ी के आगमन का संकेत है. इसका असर न सिर्फ किताबों की मार्केटिंग में नजर आ रहा है बल्कि हिंदी किताबों की विषय वस्तु में भी इस दखल का आभास होता है.

पंकज दुबे

कहानी वही, जो यूथ को कनेक्ट करे
तीस वर्षीय आशीष चौधरी को कॉलेज के दिनों में ही कहानियां लिखने का चस्का लग गया था. लेकिन उनके पापा पूछते, ''कमाई के लिए क्या करोगे?'' आशीष हंसकर कहते हैं, ''देखिए, अब सिर्फ लिख कर ही कमा रहा हूं.'' आज के यूथ के किस्से इसी तरह के हैं. ये लेखक अपनी किताबों में भी इसी को बयान कर रहे हैं.

वैश्वीकरण के साथ जवान हुई पीढ़ी के किस्से और विमर्श अलग हैं. हिंदी साहित्यकारों की यह नई जमात भी उसी की नुमाइंदगी करती है. उसके किस्सों, संवेदनाओं और बहसों में इक्कीसवीं सदी के यूथ की छाप है. बेस्ट सेलर लूजर कहीं का के लेखक पंकज दुबे कहते हैं, ''आज यूथ गंभीरता के आवरण में लिपटे पुराने ढर्रे के किस्सों को पसंद नहीं करता. हिंदी के पाठकों की ग्रोथ हिंदी लेखकों से कहीं ज्यादा तेजी से हो रही है.''

दिव्य प्रकाश दुबे                                                   
दिव्य प्रकाश दुबे के कहानी संग्रह मसाला चाय में इंजीनियरिंग, लव, प्लेसमेंट, नौकरी का किस्सा है. वे आत्मविश्वास के साथ कहते हैं, ''हम हिंदी लिटरेचर से नए पाठक वर्ग को जोड़ने का काम कर रहे हैं.'' वहीं रवि बुले की कहानियों में भी इसी तरह कस्बाई शहरों से महानगरों में आए यूथ की संवेदना का चित्रण है. बुले के ताजा उपन्यास दलाल की बीवी में आर्थिक मंदी में फंसे भारतीय समाज की त्रासदी का किस्सा है.

आशीष चौधरी

भाषायी शुद्धतावाद से आजादी
हिंदी के नई पीढ़ी के लेखकों में सबसे महत्वपूर्ण बदलाव उनकी भाषा है. स्वाभाविक तौर पर यह हिंदी समाज की भाषा में आए बदलाव की देन है. हिंदी साहित्य की भाषाई शुद्धता का दौर खत्म हो गया है. इसकी झलक इन लेखकों की किताबों में साफ दिखती है. दिव्य प्रकाश अपनी पहली हिंदी किताब का नाम अंग्रेजी में Terms and conditions apply यूं ही नहीं देते हैं. आशीष चौधरी की किताब का नाम देखिए: कुल्फी & cappucino.

इंटरनेट युग के साधनों से लैस
दिव्य प्रकाश ने 2013 में अपनी पहली किताब टर्म्स ऐंड कंडीशंस अप्लाई लॉंन्च करने के लिए अनूठी पहल की. उन्होंने उस संग्रह की कहानी लोलिता का दिलचस्प वीडियो ट्रेलर लॉंन्च किया. इसी तरह अपनी किताब मसाला चाय की कहानियों का भी ट्रेलर रिलीज किया. इससे पहले पंकज दुबे भी लूजर कहीं का का वीडियो प्रोमो बना चुके थे. हिंदी किताबों की दुनिया में यह नया प्रयोग है. जाहिर है, ये सभी इंटरनेट, सोशल साइट्स और तकनीक के साधनों को पूरा इस्तेमाल किताबों के प्रोमोशन में कर रहे हैं.

ये नए किस्सागो अपनी किताबों की पैकेजिंग और मार्केंटिंग में कोई कसर नहीं छोड़ रहे. ये हिंदी के परंपरागत साहित्यकारों की तरह गंभीरता के आवरण में लिपटे या प्रकाशकों पर पूरी तरह डिपेंड दब्बू किस्म के लेखक नहीं रहे. बुले कहते हैं, ''मार्केट के हिसाब से पैकेजिंग में क्या बुराई है? लोकप्रियता और पाठकों को आकर्षित करने के लिए पैकेजिंग की ही जानी चाहिए.''

अनु सिंह चौधरीदेहरी लांघ चुकी स्त्री
नई पीढ़ी की हिंदी लेखिकाएं भी अपने समय के साथ कदमताल कर रही हैं. वे देहरी से पांव निकाल रही नायिका नहीं, बल्कि देहरी से बाहर आ चुकी हैं. 33 वर्षीया लेखिका योगिता यादव आज के पात्रों के बारे में साफगोई से बताती हैं, ''उनमें अकेले पड़ जाने की छटपटाहट नहीं बल्कि आत्मविश्वास है. वे हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार हैं.'' इसी तरह लेखिका अनु सिंह चौधरी के हालिया चर्चित कहानी संग्रह नीला स्कार्फ में गांव की नायिकाएं हैं तो मेट्रो सिटी की मॉडर्न स्त्री भी.

योगिता यादवआधुनिक फील्ड्स के हिंदी लेखक
बिहार के छोटे-से शहर आरा मूल के पंकज दुबे झारखंड के चाईबासा और रांची में पले-बढ़े. वहां से वे दिल्ली यूनिवर्सिटी होते हुए यूके की कवेंट्री यूनिवर्सिटी में अप्लाएड कम्युनिकेशन में पोस्ट ग्रेजुएशन करने गए थे. फिर उन्होंने बीबीसी, लंदन में 2002-04 तक नौकरी की. वे अब बॉलीवुड में लेखन-निर्देशन कर रहे हैं.
साफ है, हिंदी का यह नया लेखक अब हिंदी पढ़ने-पढ़ाने वाला भर नहीं रह गया है. यह नई फौज मैनेजमेंट-इंजीनियरिंग, एडवर्टाइजमेंट, मार्केटिंग, कम्युनिकेशन फील्ड्स के उस्तादों की है. यूपी के गाजीपुर में जन्मे और लखनऊ में रहे दिव्य प्रकाश ने पुणे के सिम्बायोसिस इंस्टीट्यूट ऑफ बिजनेस मैनेजमेंट से एमबीए किया है और मुंबई में आइडिया सेलुलर लिमिटेड में प्रोडक्ट मार्केटिंग मैनेजर हैं. आशीष चौधरी भी एमबीए और ब्रॉडकास्ट जर्नलिज्म में पढ़ाई करके बीबीसी में सीनियर क्रिएटिव राइटर हैं.
अनिल यादव

पर कितनी प्रभावी है यह जमात?
हिंदी साहित्य में पूरी संजीदगी के साथ किस्सों-कहानियों को नया ट्रीटमेंट देने वालों में एक नाम अनिल यादव का है. उनकी कहानियां नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं और दंगा भेजियो मौला जैसी कहानियां इसकी मिसाल हैं. वे अपने किस्सों में समाज के यथार्थ, वंचितों और हाशिए के लोगों से रू-ब-रू कराते हैं. उन्होंने हिंदी में पूर्वोत्तर के अछूते जैसे प्रदेशों की अपनी यात्रा का भी उम्दा रिपोर्ताज लिखा है. वे हिंदी किताबों की दुनिया में कूद पड़ी नई पीढ़ी को लेकर अहम चिंता जाहिर करते हैं, ''नई पीढ़ी के लेखकों की संवेदना का फलक बहुत ही छोटा है. इसलिए वे समाज के मौजूदा यथार्थ को अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे हैं.'' अपवादों को छोड़ दिया जाए तो उनकी यह चिंता बेजा नहीं है. वे बताते हैं, ''पहले कई ऐसे बड़े लेखक हुए जो तरह-तरह के समाज में घूमा करते थे. इसलिए उनका अनुभव संसार बड़ा था. पर अब वे मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा हैं. अधिकतर प्रेम पर लिख रहे हैं, लेकिन वह भी उथला और बनावटी गढ़ कर.'' अंतिका प्रकाशन के गौरीनाथ भी इसी ओर इशारा करते हैं, ''इस तरह के अधिकतर कथित लेखक बस ताम-झाम दिखा कर भरमा रहे हैं. जबकि उनकी कहानियों में कोई दम नहीं.'' लेकिन रवि बुले कहते हैं, ''आज कालजयी और पॉपुलर जैसी बहसें बेमानी हो चुकी हैं. भले ही इन नए लेखकों की शैली और अनुभव जुदा हों, लेकिन उनको तवज्जो न देने से हिंदी किताबों की दुनिया सिकुड़ जाएगी और पाठक वर्ग का विस्तार नहीं होगा.''
जाहिर है, नए जेनरेशन के हिंदी लेखकों के पास तकनीक के सभी आधुनिक औजार तो मौजूद हैं, लेकिन उसकी चुनौती यही है कि क्या वे टिकी रहने वाली या प्रभावी कहानियां दे पा रहे हैं और वाकई पाठक वर्ग को कनेक्ट कर पा रहे हैं. या वह मैगी-नूडल्स और फेसबुक लेखन की तरह बस क्षणिक चमक भर है?

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