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हां, मैं दाऊद से मिला और मैं एक पत्रकार हूं

वैदिक-सईद मुलाकात पर मचा हल्ला हमें लापरवाह, अंधराष्ट्रवादी और बेकार बैठे लोगों के रूप में पेश करता है. काश! हम जानते, किसे सम्मान देना, किससे डरना और किस पर हंसना है.

अपडेटेड 28 जुलाई , 2014
इस लेख का शीर्षक शायद दो तरीके से तय हो सकता है. पहला: हां, मैं दाऊद से मिला था और मैं आतंकवादी नहीं हूं. और दूसरा: मैं एक अदद पत्रकार हूं, और मेरा नाम वैदिक नहीं है.
अब आइए, इन दोनों से बारी-बारी से निबटते हैं.
पहले वाले शीर्षक पर बात करने के लिए पूरा खुलासा करना होगा. जैसे, मैं जरनैल सिंह भिंडरांवाले से डेढ़ दर्जन बार मिला. मैं ललदेंगा, मुइवा, गुलबुद्दीन हिकमतयार, काजी हुसैन अहमद, जनरल मिर्जा असलम बेग (पाकिस्तान की जमाते इस्लामी के तत्कालीन अमीर और फिर फौज के मुखिया) से मिला हूं. चूंकि यह मेरी स्वीकारोक्ति है, तो यह भी बताता चलूं कि मैं एक ट्रक में मोहम्मद ताहिर-उल-कादरी (इस्लामाबाद पर कब्जे के लिए कुख्यात) के साथ एक प्रदर्शन में गया था जहां उत्साह में हमारे चारों ओर क्लाश्निकोव राइफ लें हवा में लहराई जा रही थीं.
मैं विलुपिल्लै प्रभाकरन से भी मिला हूं, आइएसआइ के दो प्रमुखों से भी मैंने बात की है और मेरी किस्मत इतनी अच्छी थी कि जेनेवा के एक होटल की लिफ्ट में मेरी मुलाकात एक प्रतिष्ठित और मजबूत देहयष्टि वाले सूटबूटधारी सज्जन से हो गई जिनकी शख्सियत पर मानो फौजी लिखा था पर नाक पर पटौदी. वे मेजर जनरल अफ संदयार पटौदी थे, हमारे अपने टाइगर पटौदी के चचेरे भाई और सैफ अली खान के चाचा, जो उस वक्त आइएसआइ में दूसरे नंबर पर हुआ करते थे.
अब आजकल जिस किस्म का 'देशभक्ति’ भरा माहौल हमारे यहां है, उसमें मैं अपने इन दुस्साहसों की सफाई भला कैसे देता? और मेरी 'कायरता’ देखिए कि उस मौके का पर्याप्त फायदा भी नहीं उठा पाया? तो अब मैं भला क्या करता? क्या मैं भिंडरांवाले के किसी खाड़कू से एके राइफल छीन कर उसे गोली मार देता या फिर उसे लोगों को सौंप देता?
या फिर मुइवा और ललदेंगा को वफादार भारतीयों में तब्दील कर देता या सनी देओल की तरह अपने हाथों से ही उनकी गरदनें मरोड़ देता? और तब क्या मुझसे यह उम्मीद की जाती कि मैं हत्यारे मुजाहिदीन कमांडर से मुलाकात को ठुकरा दूं और अंतत: जेनेवा की लिफ्ट में हुई उस औचक मुलाकात के बाद सरकार में इसकी सूचना कहीं दर्ज कराऊं? लेकिन इसकी सूचना मैं कहां दर्ज कराऊं? अपनी सरकार में मैं किसे रिपोर्ट करूं? मैं तो अपने पाठकों को रिपोर्ट करता हूं.
जितना मैं वैदिक जैसे विद्वान (जरूरी नहीं कि मेरी निगाह में हों, लेकिन वे संभवत: खुद को ऐसा ही मानते हैं) को जानता हूं, ज्यादा संभावना यही है कि वे अचानक मिली इस प्रसिद्धि से फूले नहीं समा रहे होंगे. इस प्रक्रिया में हालांकि हमारी सामूहिक निर्णय क्षमता बौद्धिक दिवालियापन का शिकार हो चुकी है जिसने हमें एक सनकी, विवेकहीन, दकियानूस, अज्ञानी, अपरिपक्व या सीधे कहें तो एक मूर्ख राष्ट्र के रूप में उजागर कर डाला है. मैं ऐसा कहने में मौजूद जोखिम से भी वाकिफ हूं क्योंकि वेदप्रताप वैदिक और हाफिज सईद की मुलाकात का प्रहसन पूरे हफ्ते हमारे सामने चलता रहा है, यहां तक कि संसद में भी यह दिखा. यह प्रसंग बताता है कि हमारे देश में लोग कितने खाली हैं.
चैनलों के प्राइम टाइम योद्धाओं की आग उगलती जबानों को ईंधन देने का काम करने वाले तमाम बेमानी विवादों में अगर कोई सर्वाधिक मूर्खतापूर्ण विषय रहा है, तो वह यही है. एक पत्रकार की एक आतंकवादी से मुलाकात ने हमें हैरत में डाल दिया है. गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं. जैसे, क्या भारतीय उच्चायोग ने इस मुलाकात का इंतजाम किया था? यदि ऐसा वास्तव में था, तो फि र हमारा भारतीय उच्चायुक्त आज तक का सबसे ज्यादा पहुंच वाला राजनयिक होना चाहिए, बशर्ते सईद भी दो बार रॉ का एजेंट रह चुका हो. 
बहरहाल, वैदिक ने सईद से क्या बात की? अगर आप वैदिक को जानते हैं तो कह सकते हैं कि उन्होंने शायद कोई बात नहीं की. बहुत संभव है कि उन्होंने मुलाकात का सारा वक्त यह बताने में ही बिता दिया हो कि वे कैसे एक स्वयंभू और प्रतिष्ठित राजनयिक और शांतिदूत हैं और यह कि उन्होंने बेनजीर भुट्टो, आसिफ अली जरदारी, नवाज शरीफ, हामिद करजई, राजीव गांधी, पी.वी. नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी से क्या-क्या कहा था और कैसे बराक ओबामा ने शायद उनके सामने स्वीकारोक्ति की होगी कि वैदिक जी, काश! मैं आपकी सलाह मान लेता तो....
वैदिक के पुराने साक्षात्कार चलाए जा रहे हैं जिसमें वे कश्मीर की आजादी समेत उसके लिए इंकलाबी किस्म के नुस्खे बयान कर रहे हैं. तो क्या वैदिक ने भारत के हितों से समझौता कर लिया? क्या वापस लौट कर इस बारे में उन्होंने अधिकारियों को ब्रीफ  किया? क्या उन्होंने मुरिदके के जीपीएस कोऑर्डिनेट्स को अपने स्मार्टफोन पर फ्रीज कर दिया था? क्या उन्होंने सईद को कश्मीर की पेशकश की?

मैं बस इतना कहूंगा कि अगर उन्होंने वाकई ऐसा किया होगा तो सईद ने धन्यवाद सहित उनकी पेशकश स्वीकार ली होगी और जीत का जश्न मनाने के लिए अपने वफादारों के सामने तकरीर कर रहा होगा: बैरकों में लौट जाओ, भाई वैदिकजी ने हमें कश्मीर तोहफे में दे दिया है. और फिर जहां तक मेरा खयाल है, वह हमारे कंधों से उतर जाएगा, बल्कि हमारे हलक में से ही निकल जाएगा.

आप जानते हैं कि यह सब मैं बहुत गंभीर होकर नहीं कह रहा हूं. लेकिन जैसा अतिरेकपूर्ण देशभक्ति का माहौल इस देश में बना हुआ है, कि ट्रेंट ब्रिज की सीढिय़ों पर 'लॉर्ड’ रविंदर जडेजा को धकेलने पर अंग्रेज तेज गेंदबाज जिमी एंडरसन अचानक भारत का दुश्मन नंबर वन बन जाता हो, जहां हमारा समूचा हास्यबोध कपिल शर्मा के कॉमेडी नाइट्स और नवजोत सिंह के सिद्धूइज्म के दायरे में  सिमट गया हो, तो बेहतर यही है कि हर चीज को मूर्खताओं से बचाकर रखा जाए.

आखिर आप अगली रात प्राइम टाइम का स्टार या ब्रेकिंग न्यूज का विषय बनना नहीं चाहेंगे कि बकौल एक संपादक,  वैदिक की सईद को की गई कश्मीर की पेशकश ठीक है, कम-से-कम इसी बहाने सईद से हमारा पीछा तो छूटेगा. हां, मेरा आशय फिलहाल यह नहीं है. हालांकि मैंने भी एक बार ऐसा ही किया था जब 26/11 के बाद पैदा तनावपूर्ण माहौल में एक पाकिस्तानी टीवी एंकर ने फोन साक्षात्कार पर ताने मारते हुए मुझसे पूछा था कि अरुंधति रॉय चूंकि पहले ही कह चुकी हैं कि कश्मीर को पाकिस्तान को दे दिया जाना चाहिए, तो इस पर आपको क्या कहना है. तब मैंने अपना पीछा छुड़ाने के लिए पूरी गंभीरता से कहा था कि अगर ऐसा ही है तो कश्मीर उन्हीं से ले लीजिए क्योंकि जाहिर है, वे मुझसे ज्यादा प्रतिष्ठित और अच्छी लेखिका तो हैं ही. ऐसा कह कर मैं बच निकला था.

फिर भी, इस हफ्ते की बहस को कहीं-न-कहीं तो गंभीर मोड़ पर लाकर छोडऩा ही होगा. एक पत्रकार के पास पूरा अधिकार है कि वह जिससे चाहे उससे मिले, उसका इंटरव्यू करे, यहां तक कि उसके साथ ऑफ द रिकॉर्ड बात करे. अगर मार्क मजेटी (न्यूयॉर्क टाइम्स का रिपोर्टर जिसने अफगानिस्तान-पाकिस्तान में सीआइए के 'काले’ अभियानों पर सबसे बढिय़ा शोधपरक पुस्तक द वे ऑफ द नाइफ लिखी) ओसामा का इंटरव्यू ले पाते, तो वे अमेरिका में खलनायक नहीं होते, बल्कि वहां के बड़े नायक होते.

पीटर बर्जेन ने ओसामा से 1997 में वाकई मुलाकात की थी और उसके बाद ओसामा से जुड़ी हर बात के वे विशेषज्ञ बन गए थे. दशकों पहले जब आयतुल्ला खुमैनी अमेरिका के ताजा-ताजा दुश्मन नंबर वन बने थे, तब ओरियाना फ लाची उनका साक्षात्कार लेकर दुनियाभर के मीडिया में अचानक चमक गई थीं. किसी ने उनसे नहीं कहा कि जब तक अमेरिकी बंधक छोड़ नहीं दिए जाते, वे खुमैनी को अपनी हिरासत में रखें.

भारत में सार्वजनिक विमर्श के इस पतन को अब तो 15 बरस होने को आ रहे हैं, शायद करगिल के बाद से ही यह सब शुरू हुआ था जब हम पत्रकारों को 'फोर्स मल्टीप्लायर’ कहकर फुलाया गया और हम सत्ता के ऐसे प्रमाण-पत्रों का सुख लेने लगे. एक बार फिर इसकी प्रतिध्वनि 2001 में तब सुनाई दी जब उन संपादकों पर राष्ट्रवादी हमले किए गए (मुझ समेत) जिन्होंने पूरी विनम्रता से आगरा में परवेज मुशर्रफ के साथ नाश्ता किया जबकि कश्मीर पर भारत के पक्ष को उन्होंने वहां खारिज कर दिया था.

हमने न तो विरोध किया और न ही हम अपनी राष्ट्रभक्ति को साबित करने के लिए उसका बहिष्कार ही कर सके. पाकिस्तान के राष्ट्रपति के विचारों को सुनने के अपने अधिकारों की रक्षा करने की बजाए हममें से कई ने कायरतापूर्ण तरीके से खुद को मामले से दूर भी कर लिया. मैं हालांकि तब भी चुप नहीं रहा. पिछले साल, जो शायद उनका पहला चुनावी भाषण कहा जा सकता है, नरेंद्र मोदी ने दिल्ली की रैली में 29 सितंबर को भारतीय पत्रकारों पर फिर से हमला किया कि वे न्यूयॉर्क में उस वक्त खाना छोड़ कर विरोध क्यों नहीं कर सके जब नवाज शरीफ  हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कथित तौर पर ''देहाती औरत” कह रहे थे.

ठीक है, मोदी के लिए तो वह चुनावी मुहावरेबाजी थी लेकिन हम पत्रकारों ने तो अपने सुनने, सवाल पूछने, स्टोरी लाने के अधिकार के समर्थन में कहां कुछ कहा? हम कहां कह सके कि हमारा काम राजनयिकों या फौजियों की तरह जंग लडऩा नहीं है? इस बार फर्क बस इतना है कि जूते वही हैं, बस पैर बदल गए हैं क्योंकि वैदिक, संघ परिवार के करीबी हैं.

यहां हम इस लेख के दूसरे संभावित शीर्षक पर बात कर सकते हैं: कि मैं एक अदद पत्रकार हूं, और मेरा नाम वैदिक नहीं है. मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि एक अदद पत्रकार को किसी के साथ मिलने, बात करने, खाने की जो रियायत मिली होती है, फिर चाहे वह देश का सबसे खतरनाक दुश्मन ही क्यों न हो, वह रियायत आपको उसी तरह अपने आप नहीं मिल जाती, यदि आपका नाम वैदिक है.

ऐसा इसलिए क्योंकि लंबे अरसे से वैदिक अगर नेता नहीं हैं तो कम-से-कम राजनैतिक लटकन जरूर बने हुए हैं, जो कभी वैचारिक कमिसार तो अकसर भारत के स्वघोषित राजदूत के चोले में अवतरित हो जाते हैं और बेशक, वे बाबा रामदेव के बिचौलिए और प्रवक्ता तो हैं ही. उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि उन्होंने प्रणब मुखर्जी जैसे कद्दावर नेता से बात करके उन्हें दिल्ली हवाई अड्डे पर रामदेव के चरणों में लोटने के लिए चार कैबिनेट मंत्रियों को भेजने के लिए राजी कर लिया था. मैं मानता हूं कि इस इकलौती कायरतापूर्ण हरकत ने उस वक्त तक यूपीए-2 की बची-खुची साख को भी तार-तार कर डाला था. यही वैदिक की जिंदगी का सबसे बड़ा स्कूप था, लेकिन अफ सोस कि वे पत्रकार के चोले में नहीं थे.
पुनश्च: मैं वैदिक को 'नेशनल इंटरेस्ट’ के नियमित और समझ्दार पाठक के तौर पर गर्व से गिनता रहा हूं और वे अकसर मेरी सराहना करने या असहमति जताने के लिए कॉल करते रहे हैं, जो मेरे लिए सम्मान की बात रही है.
मैंने अण्णा आंदोलन की आलोचना में कुछ लिखा था. वैदिक उस वक्त उसके समर्थक थे. एक सुबह उन्होंने फोन किया और कुछ ऐसे बोले कि अरविंद (केजरीवाल) तो अच्छा बच्चा है लेकिन ये लड़की किरण (बेदी) अभी कुछ जिद्दी और अपरिपक्व है.
मैंने कहा, ''किरण बेदी को छोटी लड़की कहते हैं, वैदिक सर... वो तो आपसे कुछ साल ही छोटी होंगी.”
वे बोले, ''अरे भाई, ठीक कहते हो... लेकिन मैंने तो पचास के आगे से ही संन्यास ले लिया, देश की सेवा के लिए.”
संक्षेप में उन्होंने यह कहा कि वे जिस दिन 50 के हुए उसी दिन उन्होंने सारे सांसारिक मोह को त्यागकर राष्ट्र की सेवा करने के लिए एक कद्दावर राजनीतिक बनने का फैसला कर लिया था. यहां तक कि उन्होंने सेक्स को भी त्याग दिया. हर किस्म का सेक्स. और यह राष्ट्रसेवा उन्हें इतना संतोष देती रही है कि उन्हें कभी भी फिर कोई लालसा नहीं हुई.
मैंने आश्चर्य से पूछा, ''पचास के बाद  कभी लालसा नहीं हुई सर?”
उन्होंने गर्व से कहा, ''ना, कभी नहीं. और क्या आप जानते हैं, कि हर किस्म की आकर्षक औरतें मुझ्से मिलती हैं, मेरे घर पर रहती हैं और वे मुझे आकृष्ट करना चाहती हैं, जैसे मिस अमेरिका, मिस ब्राजील...?”
मैंने कहा, ''वैदिक सर, मैं ब्रह्मचर्य के प्रति आपकी निष्ठा और आत्मत्याग पर मुग्ध हूं लेकिन क्या आप मिस ब्राजील के आकर्षण के बरअक्स अपने धैर्य का इम्तिहान देना चाहेंगे?”
वैदिक ने पूरी गंभीरता से बिना हंसे कहा, ''बेशक, क्यों नहीं.”
वैदिक जी बेशक खुद को काफी गंभीरता से लेते हैं. sg@intoday.com
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